स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (फरवरी, 1890)

(स्वामी विवेकानंद का श्री स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय

गाजीपुर,
फरवरी १८९०

प्राणाधिकेषु,

तुम्हारा पत्र पाकर बहुत हर्ष हुआ। तिब्बत के सम्बन्ध में जो कुछ तुमने लिखा है, वह बहुत आशाजनक है। मैं एक बार वहाँ जाने की चेष्टा करूँगा। संस्कृत में तिब्बत को उत्तरकुरुवर्ष कहते हैं, वह म्लेच्छभूमि नहीं। पृथ्वी भर में सबसे ऊँची भूमि होने के कारण वह बहुत शीतप्रधान है। परन्तु शीत सहकर धीरे-धीरे वहाँ रहने का अभ्यास हो सकता है। तिब्बती लोगों के आचारव्यवहार के बारे में तुमने कुछ नहीं लिखा। यदि वे इतने आतिथ्यशील हैं, तो उन्होंने तुम्हें आगे क्यों नहीं बढ़ने दिया? एक लम्बे पत्र में सब कुछ विस्तार से लिखो। यह जानकर कि तुम न आ सकोगे, खेद हुआ। मुझे तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा थी। ऐसा लगता है कि मैं तुम्हें सबसे अधिक प्यार करता हूँ। जो भी हो, इस माया से भी छुटकारा पाने की चेष्टा करूँगा।

तिब्बतियों के जिन तांत्रिक अनुष्ठानों के सम्बन्ध में तुमने लिखा है, उसका श्रीगणेश बौद्ध धर्म के पतन-काल में भारतवर्ष में हुआ था। मेरा विश्वास है कि जो तंत्र हम लोगों में प्रचलित हैं, उनका सूत्रपात बौद्धों के द्वारा ही हुआ था। वे तांत्रिक अनुष्ठान हमारे वामाचारवाद (वाममार्ग) से भी अधिक भयंकर थे। उनमें व्यभिचार के लिए कोई रोक-टोक न थी। जब बौद्ध लोग अत्यन्त व्यभिचारपरायण और अनैतिक बनकर निर्वरीय हो गये थे, तभी कुमारिल भट्ट ने उन्हें यहाँ से भगा दिया। जिस प्रकार कुछ संन्यासियों का श्रीशंकराचार्य के सम्बन्ध में और बाउल लोगों का श्रीचैतन्य के सम्बन्ध में कहना है कि वे गुप्तभोगी और सुरापायी थे तथा नाना प्रकार के जघन्य आचरण करते थे, उसी प्रकार आधुनिक तांत्रिक बौद्ध बुद्धदेव के सम्बन्ध में कहते हैं कि वे घोर वाममार्गी थे। ये लोग प्रज्ञापारमितोक्त तत्त्वगाथा जैसे सुन्दर उपदेशों के विकृत अर्थ लगाते हैं। इसके परिणामस्वरूप आजकल बौद्धों के दो सम्प्रदाय हो गये हैं। ब्रह्मदेशवाले और सिंहलदेशवासी बौद्ध प्रायः तंत्रों को नहीं मानते। साथ ही इन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं को दूर कर दिया है तथा जिन ‘अमिताभ बुद्धम्’ को उत्तराञ्चल के बौद्ध परम पूजनीय समझते हैं, उन्हें भी उन्होंने हटा दिया है। सारांश यह कि ‘अमिताभ बुद्धम्’ और दूसरे देवता, जिनकी उत्तराञ्चल में पूजा-अर्चा होती है, उनका उल्लेख तक प्रज्ञापारमिता जैसी पुस्तकों में नहीं है, किन्तु उन्हींमें बहुत से देवी-देवताओं के पूजन का विधान है। दक्षिणवालों ने तो जान-बूझकर शास्त्रों का उल्लंघन कर डाला है और देवी-देवताओं का त्याग दिया है। बौद्ध धर्म का वह भाव, जिसका अर्थ है, everything for others(सर्वस्व परोपकार के लिए) और जिसका तुम तिब्बत भर में प्रचार पाते हो, बौद्ध धर्म के उस भाव के प्रति आजकल यूरोप में बड़ा आकर्षण है। जो हो, इस भाव के सम्बन्ध में मुझे बहुत कुछ कहना है, पर इस पत्र में कहाँ तक लिखूँ? जो धर्म उपनिषदों में केवल एक जातिविशेष के लिए आबद्ध था, उसका द्वार गौतम बुद्ध ने सबके लिए खोल दिया और सरल लोकभाषा में उसे सबके लिए सुलभ कर दिया। उनका श्रेष्ठत्व उनके निर्वाण के सिद्धान्त में नहीं, अपितु, उनकी अतुलनीय सहानुभूति में है। समाधि प्रभृति बौद्ध धर्म के वे श्रेष्ठ अंग, जिनके कारण उक्त धर्म को महत्ता प्राप्त है, प्रायः सबके सब वेदों में पाये जाते हैं; वहाँ यदि अभाव है, तो वह है बुद्धदेव की बुद्धि तथा उनका हृदय, जिनकी बराबरी जगत् के इतिहास में आज तक कोई नहीं कर सका।

वेदों में जो कर्मवाद है, वही यहूदी तथा अन्य धर्मों में भी है अर्थात् यज्ञ तथा अन्य बाह्य आचरणों द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि। इसका विरोध सबसे पहले भगवान् बुद्ध ने ही किया। परन्तु उसके मूल भाव प्राचीन जैसे ही रहे। उदाहरणार्थ उनका अन्तःकर्मवाद तथा वेदों को छोड़ सूत्रों (सुत्त) पर विश्वास करने की आज्ञा देखो। जाति-भेद वही पुराना था (बुद्ध के समय में जातियों का पूर्ण लोप नहीं हो पाया था), किन्तु उनका निर्णय व्यक्ति के गुणों के आधार पर होता था और जो उनके धर्म पर विश्वास नहीं करते थे, वे पाखण्डी कहलाते थे। ‘पाखण्ड’ बौद्धों का एक पुराना शब्द है, परन्तु वे बड़े भले और सहिष्णु थे; उन्होंने कभी अविश्वासियों पर तलवार नहीं उठायी। तुमने तर्कों की आँधी में वेदों को उड़ा दिया, किन्तु तुम्हारे धर्म का प्रमाण क्या? बस, विश्वास करो!! – यही तरीका तो सब धर्मों का है। यह उस समय की एक बड़ी आवश्यकता थी और इसी कारण उनका अवतार हुआ था। उनका मायावाद कपिल के जैसा है। परन्तु श्रीशंकराचार्य का सिद्धान्त कितना महान् और कितना युक्तिपूर्ण था! बुद्ध और कपिल सदा से यही कहते आये हैं, “इस जगत् में केवल दुःख ही दुःख है – इससे दूर रहो, दूर रहो।” सुख क्या यहाँ बिल्कुल नहीं है? यह कथन ब्राह्मों के जैसा है, जिनके मत से इस जगत् में सब सुख ही सुख है। दुःख तो है, पर इसका इलाज क्या? शायद कोई यह कहे कि दुःख भोगने का निरन्तर अभ्यास हो जाने पर वह दुःख ही सुख जैसा प्रतीत होने लगेगा। श्रीशंकराचार्य का मत इससे भिन्न है। उनका कहना है कि यह संसार है भी और नहीं भी (सन्नापि असन्नापि)। अनेक रूप होने पर भी एक है (भिन्नापि अभिन्नापि) – मैं इसका रहस्योद्घाटन करूँगा। मैं इसका पता लगाऊँगा कि वहाँ दुःख है कि कुछ और। मैं उसे हौआ समझकर क्यों भागूँ? मैं इसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करूँगा। इसके जानने में जो अनन्त दुःख है, उसका मैं पूर्णतया आलिंगन कर रहा हूँ। क्या मैं पशु हूँ, जिसे तुम इन्द्रियजनित सुख-दुःख, जरा-मरण आदि से भयभीत करना चाहते हो? मैं इसे जानूँगा, इसके जानने के लिए जान दूँगा। इस जगत् में जानने योग्य कुछ भी नहीं है। अतएव यदि इस मायिक जगत् के परे जो है – जिसे भगवान् बुद्ध ‘प्रज्ञापारम्’ अथवा अतीतात्मक कहते हैं – उसका अस्तित्व हो, तो मुझे वही चाहिए। मुझे इस बात की परवाह नहीं कि उसकी प्राप्ति होने पर मुझे दुःख होगा या सुख। क्या ही उच्च भावना है यह! कितनी महान्! उपनिषदों के ऊपर बौद्ध धर्म पनपा है और उसके भी ऊपर है श्रीशंकरचार्य का दर्शन। यदि श्रीशंकराचार्य में कोई कमी है, तो यह है कि उनमें बुद्ध के विशाल हृदय का अणु मात्र भी नहीं है। उनकी केवल शुष्क बुद्धि थी। तंत्रों के भय से, लोकभय से एक फोड़े को अच्छा करने के प्रयत्न में पूरा हाथ ही काट डाला। कोई चाहे तो इन बातों पर एक बड़ा ग्रन्थ लिख सकता है, पर मुझे न तो इतना ज्ञान है, न अवकाश ही।

भगवान् बुद्ध मेरे इष्टदेव हैं – मेरे ईश्वर हैं। उनका कोई ईश्वरवाद नहीं, वे स्वयं ईश्वर थे। इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है। किन्तु परमात्मा की अनन्त महिमा को सीमाबद्ध करने की किसी में शक्ति नहीं। ईश्वर में भी यह शक्ति नहीं कि वह अपने को सीमित कर सके। ‘सुत्तनिपात’ से गण्डारसुत्त का जो अनुवाद तुमने किया है, वह अति उत्तम है। उस ग्रन्थ में एक दूसरा ‘धनियासुत्त’ नामक सुत्त है, जिसमें इसी प्रकार के भाव हैं। धम्मपद में भी इन्हीं भावों से ओतप्रोत बहुत से वाक्यसमूह हैं। परन्तु वह तो पूर्ण ज्ञान और आत्मानुभूति से संतुष्ट होने पर जो परिपक्वावस्था होती है, उसकी बात है – वह अवस्था, जो सभी परिस्थितियों में अक्षुण्ण रहती है और जिसमें इन्द्रियों पर प्रभुत्व प्राप्त हो जाता है – ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। जिसमें शरीरबोध बिल्कुल नहीं है, वह मदमत्त हाथी की तरह इतस्ततः विचरण करता है। परन्तु मेरे समान क्षुद्र जीव के लिए यह आवश्यक है कि वह एक स्थान पर बैठकर साधना करे और तब तक अभ्यास में लगा रहे, जब तक उसे इष्ट-सिद्धि प्राप्त न हो। और फिर वह चाहे तो, उस प्रकार निर्द्वन्द्व विचरण कर सकता है। परन्तु वह अवस्था बहुत दूर – निस्सन्देह बहुत दूर है।

चिन्ताशून्यमदैन्यभैक्ष्यमशनं पानं सरिद्वारिषु
स्वातन्त्र्येण निरंकुशा स्थितिरभीर्निद्रा श्मशाने वने।
वस्त्रं क्षालनशोषणादिरहितं दिग्वास्तु शय्या मही
संचारो निगमान्तवीथिषु विदां क्रीडा परे ब्रह्मणि॥
विमानमालम्ब्य शरीरमेतद्-भुनक्त्यशेषान् विषयानुपस्थितान्।
परेच्छया बालवदात्मवेत्ता योऽव्यक्तलिंगोऽननुषक्तबाह्यः॥
दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा त्वगम्बरो वापि चिदम्बरस्थः।
उन्मत्तवद्वापि च बालवद्धा पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम्।

– ‘ब्रह्मज्ञानी को भोजन बिना किसी परिश्रम के अपने आप मिल जाता है। जहाँ पाता है, वहीं पानी पी लेता है, स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करता है – निर्भय रहता है, कभी जंगल में और कभी श्मशान में सो जाता है और जिस मार्ग पर चलकर वेद भी उसका पार नहीं पाते, वहाँ वह संचरण करता है। आकाश जैसा उसका शरीर है, वह बालकों की तरह दूसरों के इच्छानुसार परिचालित होता है, कभी नंगा, कभी वस्त्रालंकारमण्डित रहता है, और कभी-कभी तो उसका आच्छादन ज्ञान मात्र रहता है। कभी अबोध बालक की भाँति, कभी उन्मत्त के समान और कभी पिशाचवत् व्यवहार करता है।1

मैं श्री गुरुदेव के पवित्र चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि तुमको वह दशा प्राप्त हो और तुम गैंडे की भाँति निर्द्वन्द्व विचरण करो। इति।

विवेकानन्द


  1. विवेकचूड़ामणि ॥५३८-४०॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!