स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी क्रिश्चिन को लिखित (14 अक्टूबर, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी क्रिश्चिन को लिखा गया पत्र)1
६, प्लेस द एतात युनि,
पेरिस,
१४ अक्तूबर, १९००
प्रिय क्रिश्चिन,
ईश्वर पग पग पर तुम्हारा कल्याण करे, यही मेरी सतत प्रार्थना है।
तुम्हारे इतने सुन्दर और इतने शान्त पत्र ने मुझे ऐसी नयी शक्ति दी है, जिसे मैं अक्सर ही खोता जा रहा हूँ।
मैं सुखी हूँ। हाँ, मैं सुखी हूँ, पर चिन्ताओं ने पूरी तरह से मेरा पीछा नहीं छोड़ा है। दुर्भाग्यवश वे कभी कभी लौट आती हैं, पर अब उनमें वह पहले जैसी मन को अस्वस्थ बना देनेवाली बात नहीं रही।
मैं मोशियो जुल बोया नामक एक प्रसिद्ध फ़्रेंच लेखक के यहाँ ठहरा हुआ हूँ। मैं उनका मेहमान हूँ। चूँकि कलम ही उनकी रोजी का साधन है, अतः वे धनी नहीं है; पर हम लोगों के कई महान् विचार आपस में मिलते हैं, इसलिए हममें ख़ूब पटती है।
कुछ वर्ष पहले उन्हें मेरा पता लगा था और उन्होंने मेरी कई पुस्तिकाएँ फ्रेंच में अनुवादित भी कर डाली हैं। अन्त में जाकर हम दोनों पायेंगे कि हमें किस वस्तु की खोज थी, है न?
इस प्रकार मैं मादाम क्लावे, कुमारी मैक्लिऑड तथा मोशियो जुल बोया के संग यात्रा करूँगा। मैं प्रसिद्ध गायिका मादाम कालभे का अतिथि रहूँगा।
हम कांस्टान्टिनोपल, निकट-पूर्व, यूनान तथा मिस्र जायँगे। लौटते समय वेनिस भी देखेंगे।
यह संभव है कि पेरिस में मैं लौटने के बाद कुछ व्याख्यान दूँ, लेकिन वे अंग्रेजी में होंगे, जिन्हें एक दुभाषिया फ़्रेंच में अनुवाद करता चलेगा।
न तो मेरे पास समय है, न इतनी शक्ति ही कि इस उम्र में मैं एक नयी भाषा का अध्ययन करूँ। मैं एक बूढ़ा आदमी हूँ, है न?
श्रीमती फंक बीमार हैं। मेरा ख़्याल है, वे बहुत अधिक परिश्रम करती हैं। उनको पहले से ही कुछ स्नायविक कष्ट था। आशा है कि वे शीघ्र ही अच्छी हो जायँगी।
जितना भी रूपया मैंने अमेरिका में कमाया था, वह सब मैं भारत भेज रहा हूँ। अब मैं मुक्त हूँ। पहले की तरह ही एक भिक्षु-संन्यासी। मठ के अध्यक्ष-पद से भी मैंने त्याग-पत्र दे दिया है। ईश्वर को धन्यवाद कि मैं मुक्त हूँ। अब ऐसी जिम्मेदारी अपने सिर पर लेना मेरे बूते की बात नहीं। मैं बहुत विक्षुब्ध और दुर्बल हो गया हूँ।
‘जिस प्रकार पेड़ की डालियों पर सोती हुई चिड़ियाँ जग जाती हैं और सुबह होने के साथ गाती हुई गहन नीलाकाश में ऊपर उड़ जाती हैं, उसी प्रकार मेरे जीवन का अन्त भी है।’
मुझे अनेक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी और इसके साथ ही कई महान् सफलताएँ भी मिलीं। किन्तु मेरी तमाम कठिनाइयों और कष्टों का कोई मूल्य नहीं, क्योंकि अन्त में मैं सफल हुआ हूँ। मैंने अपना लक्ष्य पा लिया है। मुझे वह मोती मिल गया है, जिसके लिए मैंने जीवनरुपी सागर में गोता लगाया था। मैं पुरस्कृत हुआ हूँ। मैं संतुष्ट हूँ।
इस तरह मुझे ऐसा लगता है, जैसे मेरे जीवन का एक नया अध्याय खुल रहा है। मुझे ऐसा लगता है, जैसे अब जगन्माता जीवन-मार्ग पर मुझे मंद मंद बिना किसी अवरोध के ले चलेंगी। विघ्न-बाधाओं से पूर्ण मार्ग पर अब नहीं चलना पड़ेगा, अब जीवन फूलों की सेज होगा। इसे समझ रही हो न? विश्वास करो, मैं इस विषय में पूर्ण आश्वस्त हूँ।
अब तक के मेरे समस्त जीवन के अनुभवों ने मुझे सिखाया है – और इसके लिए मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ – कि मैने जिस भी वस्तु की उत्कटता से इच्छा की है, वह मुझे मिली है। कभी कभी बहुत भोगने के बाद, पर इसकी कोई बात नहीं – वह सब कुछ पुरस्कार की मधुरता में भूल जाता है। तुम भी तो परेशानियों से गुजर रही हो, पर तुम्हें भी पुरस्कार अवश्य मिलेगा। दुःख इस बात का है कि इस समय जो भी तुम्हें मिल रहा है, वह पुरस्कार नहीं, वरन् अतिरिक्त कष्ट है।
जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो अपने बुरे कर्मों के बादलों को उठता हुआ और लोप होता हुआ देख रहा हूँ। और मेरे अच्छे कर्मो का चमकता हुआ सुन्दर और शक्तिशाली सूर्य उग रहा है। यही तुम्हारे साथ भी होगा। इस भाषा का मेरा ज्ञान मेरी भावनाओं को वहन करने में असमर्थ है। लेकिन फिर कौन सी ऐसी भाषा है, जो ऐसा करने में समर्थ है?
इसलिए अब मैं यहीं बस करता हूँ। तुम्हारे हृदय पर यह छोड़ देता हूँ कि वह मेरे विचारों को कोमल, मधुर और उज्ज्वल भाषा का जामा पहनाये। शुभरात्रि!
तुम्हारा सच्चा मित्र,
विवेकानन्द
पुनश्च – २९ अक्तूबर को हम वियना के लिए पेरिस से रवाना होंगे। अगले हप्ते श्री लेगेट अमेरिका जा रहे हैं। अपनी डाक के नये पते के बारे में हम डाकखाने को सूचित करेंगे।
वि.
- ये दोनों पत्र मूल फ्रेंच के अंग्रेजी अनुवाद से अनूदित है।