स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (1 अक्टूबर, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
श्रीनगर, काश्मीर,
१ अक्टूबर, १८९७
प्रिय मार्गो,
कुछ लोग किसी के नेतृत्व में सर्वोत्तम काम करते हैं। हर मनुष्य का जन्म पथप्रदर्शन के लिए नहीं होता है। परन्तु सर्वोत्तम नेता वह है जो ‘शिशुवत् मार्ग-प्रदर्शन करता है।’ शिशु सब पर आश्रित रहते हुए भी घर का राजा होता है। कम से कम मेरे विचार से यही रहस्य है… बहुतों को अनुभव होता है, पर प्रकट कोई-कोई ही कर सकते हैं। दूसरों के प्रति अपना प्रेम, गुण-ग्राहकता और सहानुभूति प्रकट करने की शक्ति जिसमें होती है, उसे विचारों के प्रचार करने में औरों से अधिक सफलता प्राप्त होती है।…
मैं काश्मीर के वर्णन करने का यत्न तुमसे नहीं करूँगा। इतना कहना पर्याप्त होगा कि इस भूलोक के स्वर्ग के अतिरिक्त किसी अन्य देश को छोड़ने का दुःख मुझे नहीं हुआ; एक केन्द्र स्थापित करने के लिए मैं राजा को प्रभावित करने का यथाशक्ति प्रयत्न कर रहा हूँ। यहाँ काम करने को बहुत है और कार्यक्षेत्र भी आशाप्रद है।…
महान् कठिनाई यह है : मैं देखता हूँ कि लोग प्रायः अपना सम्पूर्ण प्रेम मुझे देते हैं। परन्तु इसके बदले में मैं किसी को अपना पूरा पूरा प्रेम नहीं दे सकता, क्योंकि उसी दिन कार्य का सर्वनाश हो जायगा। परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसा बदला चाहते हैं, क्योंकि उनमें व्यक्तिनिरपेक्ष सर्वव्यापक दृष्टि का अभाव होता है। कार्य के लिए यह परम आवश्यक है कि अधिक से अधिक लोगों का मुझसे उत्साहपूर्ण प्रेम हो, परन्तु मैं स्वयं बिल्कुल निःसंग व्यक्तिनिरपेक्ष रहूँ। नहीं तो ईर्ष्या और झगड़ों में कार्य का सर्वनाश हो जायगा। नेता को व्यक्तिनिरपेक्ष निःसंग होना चाहिए। मुझे विश्वास है कि इसे तुम समझती हो। मेरा यह आशय नहीं कि मनुष्य को पशु-समान होकर, अपने मतलब के लिए दूसरों की भक्ति का उपयोग करके उनके पीठ-पीछे उनका मजाक करना चाहिए। तात्पर्य यह कि मेरा प्रेम नितान्त व्यक्तिसापेक्ष (personal) है, परन्तु जैसा कि बुद्धदेव ने कहा है, ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ यदि आवश्यक हो तो अपने हृदय को अपने हाथ से निकालकर फेंक देने की मुझमें शक्ति है। प्रेम में मतवालापन और फिर भी बंधन का अभाव; प्रेम-शक्ति से जड़ का भी चैतन्य में रूपान्तर – यही तो हमारे वेदान्त का सार है। वह एक ही है जिसे अज्ञानी जड़ के रूप में देखते हैं और ज्ञानी ईश्वर के रूप में। और जड़ में अधिकाधिक चैतन्य-दर्शन – यही है सभ्यता का इतिहास। अज्ञानी निराकार को साकार रूप में देखते हैं तथा ज्ञानी साकार में भी निराकार का दर्शन करते हैं। सुख और दुःख में, सन्तोष और सन्ताप में हम यही एक सबक सीख रहे हैं।… कर्म के लिए अधिक भावप्रवणता अनिष्टकर है। ‘वज्र के समान दृढ़ तथा कुसुम के समान कोमल’ – यही है सार नीति।
चिरस्नेहशील सत्याबद्ध,
विवेकानन्द