स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (28 अगस्त, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
पेरिस,
२८ अगस्त, १९००ई०
प्रिय निवेदिता,
बस, यही तो जीवन है – केवल मेहनत करते रहो, बस मेहनत करते रहो। इसके अतिरिक्त हम और कर ही क्या सकते हैं? मेहनत करते रहो, मेहनत करते रहो। कुछ होना अवश्य है, कोई न कोई रास्ता अवश्य मिलेगा। और यदि ऐसा न हो – सम्भवतः वास्तव में ऐसा कभी नहीं होगा – तो फिर, क्या है? हमारे जितने भी प्रयास है, वे सभी सामयिक हैं – वे उस चरम परिणति मृत्यु के परिहार के लिए हैं। अहो सम्पूर्ण क्षतियों की पूर्ति करने वाली मृत्यु! तुम्हारे बिना जगत की न जाने क्या दशा होती?
ईश्वर को धन्यवाद है कि यह संसार नित्य नहीं है और न चिरन्तन। भविष्य फिर अच्छा किस प्रकार से हो सकता है? वह तो वर्तमान का ही परिणाम है; अतः अधिक ख़राब भले ही न हो, फिर भी वह वर्तमान के अनुरूप ही होगा।
स्वप्न, अहा! केवल स्वप्न! स्वप्न देखते रहो! स्वप्न – स्वप्न की पहेली ही इस जीवन का कारण है, और उसके अन्दर इस जीवन का समाधान भी मौजूद है। स्वप्न, स्वप्न, केवल स्वप्न ही है! स्वप्न के द्वारा ही स्वप्न को दूर करो।
मैं फ़्रेंच भाषा सीखने का प्रयास कर रहा हूँ और यहाँ – के साथ उस भाषा में बातें कर रहा हूँ। अभी से बहुत से लोग प्रशंसा कर रहे हैं। सारी दुनिया के साथ वही अन्तहीन गोरखधन्धे की बातें, भाग्य की सीमाहीन उत्थान-पतन की बातें – जिसका छोर ढूँढ़ना किसीके लिए भी सम्भव नहीं है; फिर भी प्रत्येक व्यक्ति उस समय ऐसा समझने लगता है कि मैंने उसे ढूँढ़ निकाला है और उसके द्वारा कम से कम उसे स्वयं तृप्ति मिलती है तथा कुछ क्षण लिए वह अपने को भुलावे में डाल रखता है – क्या यह सत्य नहीं है?
हाँ, एक बात यह है कि अब महान् कार्य करने होंगे। किन्तु महान् कार्य के लिए कौन माथापच्ची करता है? सामान्य कार्य भी कुछ क्यों न किये जायँ? किसीकी अपेक्षा कोई हीन तो नहीं है। गीता तो छोटे के अन्दर महान् को देखने की शिक्षा देती है। धन्य है वह ग्रन्थ!…
शरीर के बारे में सोचने-विचारने के लिए मुझे विशेष अवकाश नहीं था। इस लिए वह ठीक ही है, ऐसा समझ लेना चाहिए। इस संसार में कोई भी वस्तु चिरकाल के लिए भली नहीं है। किन्तु हम बीच बीच में यह भूल जाते हैं कि भलाई का तात्पर्य केवल भला होना तथा भलाई करना है।
चाहे भला हो या बुरा, हम लोग सभी इस संसार में अपना अपना अभिनय कर रहे हैं। जब स्वप्न टूट जायगा और हम इस रंगमच को छोड़कर चले जायँगे, तभी हम खुले दिल से इन विषयों को लेकर हँसते रहेंगे। एकमात्र यही बात निश्चित रूप से मेरी समझ में आयी है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द