स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (7 जून, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
६३, सेंट जार्जेस रोड, लन्दन,
७ जून, १८९६
प्रिय कुमारी नोबल,
मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है – मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।
यह संसार अन्धविश्वासों की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है। जो अत्याचार से दबे हुए हैं, चाहे वे पुरूष हों या स्त्री, मैं उन पर दया करता हूँ, परन्तु अत्याचारियों के लिए भी मेरे अन्दर करूणा है।
एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ, वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत् को प्रकाश कौन देगा? बलिदान भूतकाल से नियम रहा है और हाय! युगों तक इसे रहना है। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है।
संसार के धर्म प्राणहीन परिहास की वस्तु हो गये हैं। जगत् को जिस वस्तु की आवश्यकता हैं, वह है चरित्र। संसार को ऐसे लोग चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण है। वह प्रेम एक एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा।
मेरी दृढ़ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। ‘साहसी’ शब्द और उससे अधिक ‘साहसी’ कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकती हो? हम बार बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान् कर्म क्या है? चलते चलते मुझे भेद-प्रभेद सहित सब बातें ज्ञात हो जाती हैं। मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्यसंकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो!
अनन्त काल के लिए तुम्हें मेरा आशीर्वाद।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द