स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (7 सितम्बर, 1901)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
मठ, बेलूड़,
७ सितम्बर, १९०१
प्रिय निवेदिता,
हम सभी तात्कालिक आवेश में मग्न रहते हैं – ख़ासकर इस कार्य में हम उसी रूप से संलग्न हैं। मैं कार्य के आवेश को दबाये रखना चाहता हूँ; किन्तु कोई ऐसी घटना घट जाती है, जिसके फलस्वरूप वह स्वयं ही उछल उठता है; और इसीलिए तुम यह देख रही हो कि चिन्तन, स्मरण, लेखन – और भी न जाने कितना सब किया जा रहा है।
वर्षा के बारे में कहना पड़ेगा कि अब पूरे जोर से आक्रमण शुरू हो गया है, दिन-रात प्रबल वेग से जल बरस रहा है, जहाँ देखो वहाँ वर्षा ही वर्षा है। नदियाँ बढ़कर अपने दोनों तटों को प्लावित कर रही हैं, तालाब, सरोवर सभी जल से परिपूर्ण हो उठे हैं।
वर्षा होने पर मठ के अन्दर जो जल रूक जाता है, उसे निकालने के लिए एक गहरी नाली खोदी जा रही है। इस कार्य में कुछ हाथ बँटाकर अभी अभी मैं लौट रहा हूँ। किसी किसी स्थल पर कई फुट तक जल भर जाता है। मेरा विशालकाय सारस तथा हंस-हंसिनी सभी पूर्ण आनन्द में विभोर हैं। मेरा पाला हुआ ‘कृष्णसार’ मृग मठ से भाग गया था और उसे ढूँढ़ निकालने में कई दिन तक हम लोगों को बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी थी। एक हंसी दुर्भाग्यवश कल मर गयी। प्रायः एक सप्ताह से उसे श्वास लेने में कष्ट का अनुभव हो रहा था। इन स्थितियों को देखकर हमारे एक वृद्ध रसिक साधु कह रहे थे, महाशय जी, इस कलिकाल में जब सर्दी तथा वर्षा से हंस को जुकाम हो जाता है, और मेढक को भी छींक आने लगती है, तो फिर इस युग में जीवित रहना निरर्थक ही है।
एक राजहंसी के पंख झड़ रहे थे। उसका कोई प्रतिकार मालूम न होने के कारण एक पात्र में कुछ जल के साथ थोड़ा सा ‘कार्बोलिक एसिड’ मिलाकर उसमें कुछ मिनट के लिए उसे इसलिए छोड़ दिया गया था कि या तो वह पूर्णरूप से स्वस्थ हो उठेगी अथवा समाप्त हो जायगी; परन्तु वह अब ठीक है।
त्वदीय,
विवेकानन्द