स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (21 फरवरी, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ तत् सत
कैलिफोर्निया,
२१ फरवरी, १९००
कल्याणवरेषु,
तुम्हारा पत्र पाकर और विस्तारपूर्वक सब समाचार पढ़कर मुझे अति हर्ष हुआ। विद्या और पाण्डित्य बाह्य आडम्बर हैं और बाह्य भाग केवल चमकता है; परन्तु सब शक्तियों का सिंहासन हृदय होता है। ज्ञानमय, शक्तिमय तथा कर्ममय आत्मा का निवासस्थान मस्तिष्क में नहीं वरन् हृदय में है। शतं चैका च हृदयस्य नाड्यः – हृदय की नाड़ियाँ एक सौ एक हैं, इत्यादि। मुख्य नाड़ी का केन्द्र जिसे संवेदन समूह (sympathetic ganglia) कहते हैं, हृदय के निकट होता है; और यही आत्मा का निवास दुर्ग है। जितना अधिक तुम हृदय का विकास कर सकोगे, उतनी अधिक तुम्हारी विजय होगी। मस्तिष्क की भाषा तो कोई कोई ही समझता है, परन्तु हृदय की भाषा, ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक सभी समझ सकते हैं। परन्तु हमें अपने देश में तो ऐसे लोगों को जाग्रत करना है, जो मृतप्राय हैं। इसमें समय लगेगा, परन्तु यदि तुममें असीम धीरज और उद्योगशक्ति है, तो सफलता निश्चित रूप से ही प्राप्त होगी। इसमें तनिक भी त्रुटि नहीं हो सकती।
अंग्रेज कर्मचारियों का क्या दोष है? क्या वे परिवार, जिनकी अस्वाभाविक निर्दयता के बारे में तुमने लिखा है, भारत में अनोखे हैं? या ऐसों का बाहुल्य है? पूरे देश में यह एक ही कथा है। परन्तु यह स्वार्थपरता जो हमारे देश में साधारणतः पायी जाती है, निरी दुष्टता का ही परिणाम नहीं है। यह पाशविक स्वार्थपरता शताब्दियों की निष्फलता और अत्याचार का फल है। यह वास्तविक स्वार्थपरता नहीं है, वरन अगाध नैराश्य है। सफलता के पहले झोंके में यह शान्त हो जायेगा। अंग्रेज कर्मचारी चारों ओर इसीको देखते हैं, इसीलिए उन्हें आरम्भ से ही विश्वास कैसे हो सकता है? परन्तु मुझे यह बताओ कि जब सच्चा कार्य वे प्रत्यक्ष देखते हैं, तो वे क्या सहानुभूति नहीं प्रकट करते? देशी कर्मचारी क्या इस प्रकार कर सकेंगे?
इन उग्र दुर्भिक्ष, बाढ़, रोग और महामारी के दिनों में कहो तुम्हारे काँग्रेस वाले कहाँ हैं? क्या यह कहना पर्याप्त होगा कि ‘राजशासन हमारे हाथ में दे दो?’ और उनको सुनेगा भी कौन? यदि मनुष्य काम करता है, तो क्या उसे अपना मुख खोलकर कुछ माँगना पड़ता है? यदि तुम्हारे जैसे दो हजार लोग कई जिलों में काम करते हों, तो राजकाज के विषय में अंग्रेज स्वयं बुलाकर तुमसे सलाह लेंगे!! स्वकार्यमृद्धरेत्प्राज्ञः – ‘बुद्धिमान मनुष्य को अपना कार्य स्वयं पूर्ण करना चाहिए’… अ – को केन्द्र खोलने की आज्ञा नहीं मिली, परन्तु इससे क्या? क्या किशनगढ़ ने नहीं मान लिया? उसे चुपचाप काम करने दो, किसी से कुछ कहने की या विवाद करने की आवश्यकता नहीं है। जो जगज्जननी के इस कार्य में सहायता करेगा उस पर उनकी कृपा होगी और जो उसका विरोध करेगा वह केवल – अकारणाविष्कृतवैरदारुणः – अकारण ही दारुण वैर का आविष्कार ही न करेगा, वरन् अपने भाग्य पर भी कुठाराघात करेगा।
शनैः पन्थाः इत्यादि, सब अपने समय पर होगा। बूँद बूँद से घड़ा भरता है। जब कोई बड़ा काम होता है, जब नींव पड़ती है या मार्ग बनता है, जब दैवी शक्ति की आवश्यकता होती है – तब एक या दो असाधारण मनुष्य विघ्न और कठिनाइयों के पहाड़ को पार करते हुए चुपचाप और शान्ति से काम करते हैं। जब सहस्रों मनुष्यों का लाभ होता है, तब बड़ा कोलाहल मचता है और पूरा देश प्रशंसा से गूँज उठाता है। परन्तु तब तक वह यन्त्र तीव्रता से चल चुका होता है और कोई बालक भी उसे चलाने का सामर्थ्य रखता है या कोई भी मूर्ख उसकी गति में वृद्धि कर सकता है। किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो गाँवों का जो उपकार हुआ है, वह अनाथालय जिसमें बीस-पचीस अनाथ ही है तथा वे ही दस-बीस कार्यकर्ता – नितान्त पर्याप्त हैं और यही वह केन्द्र बनाता है, जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहाँ से लाखों मनुष्यों को समय पर लाभ पहुँचेगा। अभी हमको आधे दर्जन सिंह चाहिए, उसके बाद सैकड़ों गीदड़ भी उत्तम काम कर सकेंगे।
यदि अनाथ बालिकाएँ तुम्हारे आश्रम में किसी प्रकार आ जायें, तो तुम उन्हें सबसे पहले ले लेना। नहीं तो ईसाई मिशनरी उन बेचारियों को ले जायेंगे। यदि तुम्हारे पास उनके लिए विशेष प्रबन्ध नहीं हैं, तो इसकी क्या चिन्ता? जगज्जननी की इच्छा से उनका प्रबन्ध हो जायेगा। घोड़ा मिलने पर चाबुक अपने आप आ जायेगा। अभी लड़कों और लड़कियों को एक साथ ही रखो। एक नौकरानी रख लो, वह लड़कियों की देखभाल करेगी; वह उन्हें अलग अपने पास सुलायेगी। अभी तुम्हें जो मिले, उसे ले लो, चुनाव छंटाव मत करना। बाद में सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। प्रत्येक उद्योग में विघ्नों का सामना करना पड़ता है परन्तु धीरे-धीरे मार्ग सुगम हो जाता है।
अंग्रेज कर्मचारी को मेरी ओर से बहुत बहुत धन्यवाद का संदेश देना। निर्भय होकर काम करो – कैसे वीर हो! शाबास! शाबास!! शाबास!!!
भागलपुर में केन्द्र खोलने के लिए जो तुमने लिखा है, वह विचार – विद्यार्थियों को शिक्षा देना इत्यादि – निःसन्देह बहुत अच्छा है, परन्तु हमारा संघ दीनहीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिए है और उनके लिए सब कुछ करने के बाद जब समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी आयेगी। प्रेम द्वारा तुम उन किसान और श्रमिक लोगों को जीत सकोगे। इसके पश्चात् वे स्वयं थोड़ा-सा धन संग्रह करके अपने गाँव में ऐसे ही संघ बनायेंगे, और धीरे-धीरे उन्हीं लोगों में शिक्षक पैदा हो जायेंगे।
कुछ ग्रामीण लड़के और लड़कियों को विद्या के आरम्भिक सिद्धान्त सिखा दो और अनेक विचार उनकी बुद्धि में बैठा दो। इसके बाद प्रत्येक ग्राम के किसान रुपया जमा करके अपने अपने ग्रामों में एक साथ संघ स्थापित करेंगे। उद्धरेदात्मनात्मानम् – ‘अपनी आत्मा का अपने उद्योग से उद्धार करो।’ यह सब परिस्थितियों में लागू होता है। हम उनकी सहायता इसीलिए करते हैं, जिससे वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें। वे तुम्हें प्रतिदिन का भोजन प्राप्त करा देते हैं, यही इस बात का द्योतक है कि कुछ यथार्थ कार्य हुआ हैं। जिस क्षण उन्हें अपनी अवस्था का ज्ञान हो जायेगा और वे सहायता तथा उन्नति की आवश्यकता को समझेंगे, तब जानना कि तुम्हारा प्रभाव पड़ रहा है, एवं तुम ठीक रास्ते पर हो। धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिए जो थोड़ी सी भलाई करते हैं, वह स्थायी नहीं होती और अन्त में दोनों पक्षों को हानि पहुँचाती है। किसान और श्रमिक समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसलिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह है कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने में सहायता दे और कुछ नहीं। फिर किसानों और मजदूरों को अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो। परन्तु तुम्हें सावधान रहना चाहिए कि गरीब किसान-मजदूर और धनवानों में परस्पर कहीं जाति-विरोध का बीज न पड़ जाय। यह ध्यान रखो कि धनिकों के प्रति दुर्वचन न कहो – स्वकार्यमुद्धरेत्प्राज्ञः – ‘ज्ञानी मनुष्य को अपना कार्य अपने उद्योग से करना चाहिए।’
गुरु की जय हो! जगज्जननी की जय हो! भय क्या है! अवसर, औषधि तथा इनका उपयोग स्वयं ही आ उपस्थित होंगे। मैं परिणाम की चिन्ता नहीं करता, चाहे अच्छा हो या बुरा। इतना काम यदि तुम करोगे, तो मुझे हर्ष होगा। वाद-प्रतिवाद,
मूल-पाठ, शास्त्र, साम्प्रदायिक मत-मतान्तर – इनसे मैं अपनी इस बढ़ती हुई उम्र में विष की तरह द्वेष करता हूँ। यह निश्चित रूप से जानो कि जो काम करेगा, वह मेरे सिर की मुकुट-मणि होगा। व्यर्थ शब्दों का विवाद और शोर मचाने में हमारा समय नष्ट हो रहा है और हमारी जीवन-शक्ति क्षीण हो रही है तथा मनुष्य जाति के कल्याण के लिए एक पग भी हम आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। माभैः – ‘डरो मत!’ शाबाश! निश्चय ही तुम वीर हो। श्री गुरु तुम्हारे हृदय-सिंहासन पर स्थित रहें और जगज्जननी तुम्हें मार्गप्रदर्शन करें! इति।
विवेकानन्द