स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (1895)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९५
अभिन्नहृदय,
अभी अभी तुम्हारे पत्र से सब समाचार विदित हुए। भारत में अधिक कार्य हो या न हो, इस देश में कार्य की विशेष आवश्यकता है। इस समय किसीको आने की जरूरत नहीं है। मैं भारत पहुँचकर कुछ लोगों को यहाँ पर कार्य करने के लिए उपयुक्त शिक्षा प्रदान करूँगा, तब फिर पाश्चात्य देशों में आने के लिए किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा। गुणनिधि के बारे में ही मैंने लिखा था। हरि सिंह आदि को मेरा हार्दिक प्रेमाशीर्वाद देना। किसी प्रकार के विवाद-कलह में न फँसना। खेतड़ी के राजा साहब को दबाने का सामर्थ्य इस पृथ्वी पर किसको है? माँ जगदम्बा उनकी सहायक हैं। काली का पत्र मिला है। काश्मीर में यदि कोई केन्द्र स्थापित कर सको, तो बहुत ही अच्छा कार्य होगा। जहाँ भी हो सके, एक केन्द्र स्थापित करो।… अब यहाँ पर तथा इंग्लैण्ड में मैं अपनी दृढ़ भित्ति स्थापित कर चुका हूँ, किस की ताकत है कि उसे हिला सके! न्यूयार्क तो इस बार उन्मत्त हो उठा है! अगली गर्मी में लन्दन को आलोड़ित करना है। बड़े बड़े दिग्गज बह जायँगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है, मेरे बच्चो। अपने देश में क्या ‘मनुष्य’ हैं? वह तो श्मशानसदृश है। यदि निम्न श्रेणी के लोगों को शिक्षा दे सको, तो कार्य हो सकता है। ज्ञानबल से बढ़कर और क्या बल है! क्या उन्हें शिक्षित बना सकते हो? बड़े आदमियों ने कब किस देश में किसका उपकार किया है? सभी देशों में मध्यमवर्गीय लोगों ने ही महान् कार्य किये है। रुपये मिलने में क्या देर लगती है? मनुष्य मिलते कहाँ है? अपने देश में ऐसे ‘मनुष्य’ कहाँ है? अपने देश के रहनेवाले बालक जैसे हैं, उनके साथ बालक की तरह व्यवहार करना होगा। उनकी बुद्धि दस वर्ष की लड़की के साथ विवाह करके एकदम ख़त्म हो चुकी है।
किसीके साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो – यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं – इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे।
भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ। किमधिकमिति – सस्नेह तुम्हारा, विवेकनन्द
पुनश्च – सारदा एक बंगाली पत्रिका प्रकाशित करने की बात कर रहा है। अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ इसमें मदद देना। यह कोई बुरा विचार नहीं है। किसीको उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं, तब तक उनके कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई गलती नजर आये, तो नम्रतापूर्वक गलती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड़ है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है।…