स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (13 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
देउलधार, अल्मोड़ा,
१३ जुलाई, १८९७
प्रेमास्पद,
यहाँ से अल्मोड़ा जाकर योगेन के लिए मैंने विशेष प्रयत्न किया। किन्तु कुछ आराम होते ही वह देश के लिए रवाना हो गया। सुभल घाटी से वह अपने सकुशल पहुँचने का संवाद देगा। चूँकि सवारी के लिए डाँडी आदि मिलना असम्भव है, इसलिए लाटू नहीं जा सका। अच्युत और मैं यहाँ पर पुनः लौट आए हैं। धूप में गर्दन तोड़ रफ्तार से घोड़ा दौड़ाकर आने के कारण आज मेरा शरीर कुछ खराब है। करीब दो सप्ताह शशि बाबू की दवा लेकर भी विशेष कोई लाभ नहीं प्रतीत हो रहा है।… लीवर का दर्द नहीं है और पर्याप्त कसरत करने से हाथ-पाँव विशेष मजबूत हो गए हैं; किन्तु पेट अत्यन्त फूल रहा है, उठने-बैठने में साँस की तकलीफ होती है। सम्भवतः यह दूध पीने का फल है; शशि से पूछना कि दूध छोड़ा जा सकता है या नहीं? पहले दो बार मुझे लू लग गयी थी। तब से धूप लगने पर आँखें लाल हो जाती हैं और दो-चार दिन तक लगातार शरीर अस्वस्थ रहता है।
मठ के सामाचार से अत्यन्त प्रसन्नता हुई तथा यह भी मालूम हुआ कि दुर्भिक्ष पीड़ितों में कार्य अच्छी तरह से चल रहा है। मुझे लिखो कि दुर्भिक्ष कार्य के लिए ‘ब्रह्मवादिन्’ ऑफिस से तुम्हें धन प्राप्त हुआ है या नहीं; यहाँ से भी धन शीघ्र भेजा जा रहा है। दुर्भिक्ष का प्रकोप अन्य स्थानों में भी है, इसलिए एक स्थान पर ही रुकने की आवश्यकता नहीं है। उनको अन्यत्र जाने के लिए कहना एवं प्रत्येक को विभिन्न स्थानों में जाने के लिए लिखना। इस प्रकार के कार्य ही सच्चे कार्य हैं। इस प्रकार खेत जुत जाने पर आध्यात्मिक ज्ञान का बीज बोया जा सकता है। यह हमेशा याद रखो कि इस प्रकार का कार्य ही उन कट्टरपन्थियों के लिए उचित उत्तर है, जो हमें गालियाँ दे रहे हैं। शशि एवं सारदा जैसा छपवाना चाहते हैं, उसमें मेरी कोई आपत्ति नहीं है।
मठ का नाम क्या होना चाहिए, यह तुम लोग ही निर्णय करना।… रुपया सात सप्ताह के अन्दर ही पहुँच जायगा, लेकिन जमीन के बारे में मुझे कोई भी समाचार नहीं मिला है। इस सम्बन्ध में मैं समझता हूँ कि काशीपुर के कृष्णगोपाल के बगीचे को खरीद लेना ही उचित होगा। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है? बड़े-बड़े काम पीछे होते रहेंगे। यदि इसमें तुम्हारी सहमति हो तो इस विषय की किसी से – मठ अथवा बाहर के व्यक्तियों से – चर्चा न कर गुप्त रूप से पता लगाना। योजना गुप्त न रखने से काम प्रायः ठीक-ठीक नहीं हो पाता। यदि १५-१६ हजार में कार्य बनता हो तो अविलम्ब खरीद लेना (यदि ऐसा तुम्हें उचित लगे तो)। यदि उससे कुछ अधिक मूल्य हो तो बयाना देकर सात सप्ताह तक प्रतीक्षा करना। मेरी राय में इस समय उसे खरीद लेना ही अच्छा है। बाकी काम धीरे-धीरे होते रहेंगे। हमारी सारी स्मृतियाँ उस बगीचे से जुड़ी हुई हैं। वास्तव में वही हमारा प्रथम मठ है। अत्यन्त गोपनीय रूप से यह कार्य होना चाहिए – फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कारा प्राक्तना इव – (फल को देखकर ही किसी कार्य का विचार किया जा सकता है, जैसे कि किसी के वर्तमान व्यवहार को देखकर उसके पूर्व संस्कारों का अनुमान लगाया जा सकता है)।…
इसमें सन्देह नहीं कि काशीपुर के बगीचे की जमीन का मूल्य अधिक बढ़ गया है, किन्तु दूसरी ओर हमारे पास धन भी कम पड़ गया है। जैसे भी हो, इसकी व्यवस्था करना, और शीघ्र करना। काहिली से सब काम नष्ट हो जाता है। यह बगीचा तो खरीदना ही होगा, चाहे आज या दो दिन बाद – और चाहे गंगा तट पर कितने ही विशाल मठ की स्थापना क्यों न करनी हो। अन्य व्यक्तियों के द्वारा यदि इसकी व्यवस्था हो सके तो और भी अच्छा है। यदि उनको पता चल गया कि हम लोग खरीद रहे हैं तो वे लोग अधिक दाम माँगेगे। इसलिए बहुत ही सँभलकर काम करो। अभीः श्रीरामकृष्ण सहाय हैं, डर किस बात का? सबसे मेरा प्यार कहना।
सस्नेह,
विवेकानन्द
पुनश्च (लिफाफे पर लिखित) काशीपुर के लिए विशेष प्रयास करना… बेलूड़ की जमीन छोड़ दो।
जबकि तुम ऊँचे लोग श्रेय मिलने के विवाद में पड़े हुए हो तो क्या तब तक गरीब बेचारे भूखे मरेंगे? यदि ‘महाबोधि संस्था’ पूरा श्रेय लेना चाहती है तो लेने दो। गरीबों का उपकार होने दो। कार्य अच्छी तरह से चल रहा है, यह बहुत ही अच्छी बात है और भी ताकत से जुट जाओ। मैं लेख भेजने की व्यवस्था कर रहा हूँ। सैकरिन तथा नीबू पहुँच गए हैं।
विवेकानन्द