स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित (11 अप्रैल, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
११ अप्रैल, १८९५
प्रिय शशि,
…तुम लिखते हो कि अपने रोग से तुम अब मुक्त हो गए हो, परन्तु अब सावधान होकर रहना। देर में भोजन, या अपथ्य भोजन, या गन्दे स्थान में रहने से रोग पूर्वावस्था में पलटकर आ सकता है, और फिर मलेरिया से पीछा छुड़ाना कठिन हो जाएगा। पहले तुम्हें किसी उद्यान में एक छोटा-सा मकान किराये पर लेना चाहिए। ३० रु. या ४० रु. में शायद तुम्हें मिल जाय। दूसरे, देखो कि पीने और पकाने का पानी छना हो। बाँस का एक बड़ा फिल्टर तुम्हें पर्याप्त होगा। पानी सभी प्रकार के रोगों का कारण होता है। जल की शुद्धता या अशुद्धता से नहीं, बल्कि उसमें रोग के कीटाणु भरे होने से बीमारियाँ होती हैं। पानी को उबालकर छनवाओ। अपने स्वास्थ्य पर पहले ध्यान देना आवश्यक है। एक भोजन बनाने वाला, एक नौकर, साफ बिछौना, और समय से खाना-पीना यह परमावश्यक है। जैसा मैंने लिखा है, ठीक उसी प्रकार चलने की पूर्ण व्यवस्था करो। रुपये-पैसे खर्च करने का समस्त उत्तरदायत्वि राखाल सँभल ले, किसी को इसमें असहमत नहीं होना चाहिए। निरंजन घर-द्वार, बिछौना, फिल्टर आदि ठीक-ठीक साफ-सुथरा रखने का भार ले। अगर ‘हुटको’ गोपाल को कोई नौकरी नहीं मिली, तो उसे बाजार-हाट करने में नियुक्त करना। उसे मासिक १५ रुपये दिये जाएँगे। अर्थात् उनको ५-७ महीने का वेतन एक साथ दिया जाएगा, क्योंकि इतनी दूर से माहवार १५ रु. भेजना बचकानापन होगा।… तुम लोगों को परस्पर प्रेमभाव ही तुम्हारे उद्योगों की सफलता का कारण होगा। जब तक द्वेष, ईर्ष्या और अहंकार रहेगा, तब तक किसी भी प्रकार का कल्याण नहीं हो सकता… काली ने छोटी पुस्तक बहुत अच्छी लिखी है, और उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। पीठ पीछे किसी की निन्दा करना पाप है। इससे पूरी तरह बचकर रहना चाहिए। मन में कई बातें आती हैं, परन्तु उन्हें प्रकट करने से राई का पहाड़ बन जाता है। यदि क्षमा कर दो और भूल जाओ, तब उन बातों का अन्त हो जाता है। श्रीरामकृष्ण का उत्सव धूमधाम से मनाया गया, यह प्रिय समाचार मुझे मिला। आगमी वर्ष एक लाख मनुष्यों को जमा करने का प्रयत्न करना। एक पत्रिका निकालने के लिए अपनी शक्ति को काम में लाओ। लज्जा से काम नहीं चलेगा।… जिसके पास अनन्त धैर्य और अनन्त उद्योग है, केवल वही सफलता प्राप्त कर सकता है। अध्ययन की ओर विशेष ध्यान दो। शशि, समझ रहे हो न? बहुत से मूर्खों को इकट्ठा न करो। यदि तुम थोड़े से सच्चे इन्सान एकत्र करो, तो मुझे हर्ष होगा। क्यों, मैं तो किसी एक के भी मुँह खोल सकने की बात नहीं सुन पा रहा हूँ? तुमने उत्सव के दिन मिठाई बाँटी और कुछ मण्डलियों ने, जो अधिकांश आलसी थे, कुछ गीत गाये। सचमुच; परन्तु तुमने क्या आध्यात्मिक खाद्य (Spiritual Food) दिया, यह मैंने नहीं सुना? जब तक तुम्हारा वह पुराना भाव – यह भाव कि कोई कुछ नहीं जानता (Nil admirari) – नहीं जाएगा, तब तक तुम कुछ न कर सकोगे, तुम्हें साहस भी न होगा। झगड़ालू हमेशा कायर होते हैं।
हर एक से सहानुभूति रखो, चाहे वह श्रीरामकृष्ण में विश्वास रखता हो या नहीं। यदि तुम्हारे पास कोई व्यर्थ वाद-विवाद के लिए आये, तो नम्रतापूर्वक पीछे हट जाओ।… तुम्हें सब सम्प्रदाय के लोगों से अपनी सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए। जब इन मुख्य गुणों का तुममें विकास होगा तब केवल तुम्हीं महान् शक्ति से काम करने में समर्थ होंगे। अन्यथा केवल गुरु का नाम लेने से काम नहीं चलेगा। फिर भी
इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस वर्ष के उत्सव ने बहुत सफलता प्राप्त की, और इसके लिए तुम विशेष रूप से धन्यवाद के पात्र हो। परन्तु तुम्हें आगे बढ़ना है, समझे? शरद् क्या कर रहा है? यदि तुम अज्ञान की शरण लोगे, तो कभी तुम्हें कुछ भी न आयेगा।… हमें ऊँचे भाव से कुछ करना चाहिए, जो विद्वानों की बुद्धि को प्रिय लगे। केवल संगीत-मण्डली को बुलाने से काम नहीं चलेगा। यह महोत्सव केवल उनका स्मारक ही न होगा, परन्तु उनके सिद्धान्तों के तीव्र प्रचार का मुख्य केन्द्र होगा। तुम्हें क्या कहूँ? तुम सब अभी बालक हो! समय आने पर सब कुछ होगा। परन्तु बँधे हुए शिकारी कुत्ते की तरह मैं कभी-कभी अधीर हो जाता हूँ। आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, यही मेरा पुराना आदर्श-वाक्य है। मैं अच्छा हूँ। जल्दी भारत लौटने की कोई जरूरत नहीं। अपनी समस्त शक्तियों का संचय करो और मन और प्राण से काम में लग जाओ।
शाबाश बहादुर! इति।
नरेन्द्र