स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी शुद्धानन्द को लिखित (11 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी शुद्धानन्द को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
११ जुलाई, १८९७
प्रिय शुद्धानन्द,
तुमने हाल में मठ का जो कार्य-विवरण भेजा है, उसे पाकर मुझे अत्यन्त खुशी हुई। तुम्हारी ‘रिपोर्ट’ के बारे में मुझे कोई विशेष समालोचना नहीं करनी है। मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि तुम्हें थोड़ा और स्पष्ट रूप से लिखने का अभ्यास करना चाहिए।
जितना कार्य हुआ है उससे मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ, किन्तु उसे और भी आगे बढ़ाना चाहिए। पहले मैंने भौतिक तथा रसायन शास्त्र के कुछ यंत्रों को एकत्र करने तथा प्राथमिक एवं प्रायोगिक रसायन तथा भौतिक शास्त्र – विशेषतः शरीर विज्ञान की कक्षाएँ शुरू करने का सुझाव दिया था, उसके विषय में मुझे अभी तक कुछ सुनने को नहीं मिला।
और बंगला में अनूदित सभी वैज्ञानिक ग्रंथों को खरीदने के मेरे सुझाव का क्या हुआ?
अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मठ में एक साथ तीन महन्तों का निर्वाचन करना आवश्यक है – एक व्यावहारिक कार्यों का संचालन करेंगे, दूसरे आध्यात्मिकता की ओर ध्यान देंगे एवं तीसरे ज्ञानार्जन की व्यवस्था करेंगे।
कठिनाई तो शिक्षा-विभाग के उपयुक्त निर्देशक के प्राप्त होने में है। ब्रह्मानन्द तथा तुरीयानन्द आसानी से शेष दोनों विभागों का कार्य सँभाल सकते हैं। मुझे दुःख है कि मठ-दर्शनार्थ केवल कलकत्ते के बाबू लोग आ रहे हैं। उनसे कुछ काम नहीं होगा। हमें साहसी युवकों की आवश्यकता है जो काम कर सकते हों, मूर्खों की नहीं।
ब्रह्मानन्द से कहना कि वह अभेदानन्द तथा सारदानन्द को अपने साप्ताहिक कार्य-विवरण मठ में भेजने के लिए लिखे – उसके भेजने में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होनी चाहिए, और भविष्य में बंगला में निकलने वाली पत्रिका के लिए लेख तथा नोट्स आदि भेजें। गिरीश बाबू उस पत्रिका के लिए क्या कुछ आवश्यक व्यवस्था कर रहे हैं? अदम्य इच्छा-शक्ति के साथ कार्य करते चलो तथा सदा प्रस्तुत रहो।
अखण्डानन्द महुला में अद्भुत कार्य कर रहा है, किन्तु उसकी कार्य-प्रणाली ठीक प्रतीत नहीं होती। ऐसा मालूम हो रहा है कि वे लोग एक छोटे से गाँव में ही अपनी शक्ति क्षय कर रहे हैं, और वह भी एकमात्र चावल-वितरण के कार्य में। इसके साथ ही साथ किसी प्रकार का प्रचार-कार्य भी हो रहा है – यह बात मेरे सुनने में नहीं आ रही है। लोगों को यदि आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा न दी जाये तो सारे संसार की दौलत से भी भारत के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती है। शिक्षा प्रदान करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए – नैतिक तथा बौद्धिक दोनों ही प्रकार की। मुझे इस बारे में तो कुछ भी समाचार नहीं मिल रहा है, केवल इतना ही सुन रहा हूँ कि इतने भिखमंगों को सहायता दी गयी है! ब्रह्मानन्द से कहो कि विभिन्न जिलों में वह केन्द्र स्थापित करे, जिससे हम थोड़ी पूँजी से ही यथासम्भव अधिक स्थलों में कार्य कर सकें। ऐसा लगता है कि अब तक उन कार्यों से वास्तव में कुछ भी नहीं हुआ है; क्योंकि अभी तक स्थानीय लोगों में किसी प्रकार की आकांक्षा जाग्रत करने में सफलता नहीं मिली है, जिससे वे लोक-शिक्षा के लिए किसी प्रकार की सभा-समिति स्थापित कर सकें और उस शिक्षा के फलस्वरूप आत्मनिर्भर तथा मितव्ययी बन सकें; विवाह की ओर उनका अस्वाभाविक झुकाव दूर हो और इसी प्रकार भविष्य में दुर्भिक्ष के कराल गाल में जाने से वे अपने को बचा सकें। दया से लोगों के हृदय-द्वार खुल जाते हैं, किन्तु उस द्वार से उनके सामूहिक हित साधन के लिए हमें प्रयास करना होगा।
सबसे सहज उपाय यह है कि हम छोटी सी झोपड़ी लेकर गुरु महाराज का मन्दिर स्थापित करें। गरीब लोग जो वहाँ एकत्र हों, उनकी सहायता की जाय और वे लोग वहाँ पर पूजार्चन भी करें। प्रतिदिन सुबह-शाम वहाँ पुराण-कथा हो। उस कथा के सहारे से ही तुम अपनी इच्छानुसार जनता में शिक्षा प्रसार कर सकते हो। क्रमशः उन लोगों में स्वतः ही इस विषय में विश्वास तथा आग्रह बढ़ेगा। तब वे स्वयं ही उस मन्दिर के संचालन का भार अपने ऊपर लेंगे, और हो सकता है कि कुछ ही वर्षों में यह छोटा-सा मन्दिर एक विराट् आश्रम में परिणत हो जाय। जो लोग दुर्भिक्ष-निवारण कार्य के लिए जा रहे हैं, वे सर्वप्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यवर्ती स्थल का निर्वाचन करें तथा वहाँ पर इसी प्रकार की एक झोपड़ी लेकर मन्दिर स्थापित करें, जहाँ से अपने सभी कार्य थोड़े-बहुत प्रारम्भ किए जा सकें।
मन की प्रवृत्ति के अनुसार काम मिलने पर अत्यन्त मूर्ख व्यक्ति भी उसे कर सकता है लेकिन सब कामों को जो अपने मन के अनुकूल बना लेता है, वही बुद्धिमान है। कोई भी काम छोटा नहीं है, संसार में सब कुछ वट-बीज की तरह है, सरसों जैसा क्षुद्र दिखायी देने पर भी अति विशाल वट-वृक्ष उसके अन्दर विद्यमान है। बुद्धिमान वही है जो ऐसा देख पाता है और सब कामों को महान् बनाने में समर्थ है।
जो लोग दुर्भिक्ष-निवारण कार्य कर रहे हैं, उन्हें इस ओर भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं गरीबों के प्राप्य को धोखेबाज न झपट लें। भारत ऐसे आलसी धोखेबाजों से भरा पड़ा है और तुम्हें यह देखकर आश्चर्य होगा कि वे लोग कभी भूखों नहीं मरते हैं – उन्हें कुछ न कुछ खाने को मिल ही जाता है। दुर्भिक्ष-पीड़ित स्थलों में कार्य करने वालों को इस ओर ध्यान दिलाने के लिए ब्रह्मानन्द से पत्र लिखने को कहना, जिससे वे व्यर्थ में धन-व्यय न कर सकें। जहाँ तक हो सके, कम से कम खर्चे में अधिक से अधिक स्थायी सत्कार्य की प्रतिष्ठा करना ही हमारा ध्येय है।
अब तुम समझ ही गए होंगे कि तुम लोगों को स्वयं ही मौलिक ढंग से सोचना चाहिए, नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जायगा। उदाहरण के लिए तुम सब लोग मिलकर इस विषय में विचार करने के लिए एक सभा का आयोजन कर सकते हो कि अपने कम से कम साधनों द्वारा हम किस प्रकार श्रेष्ठतम स्थायी फल प्राप्त कर सकते हैं। सभा की निर्धारित तिथि से कुछ दिन पूर्व सबको उसकी सूचना दी जाय, तब कोई अपने सुझाव दें, इन सुझावों पर विचार-विमर्श तथा आलोचना हो और तब इसकी रिपोर्ट मेरे पास भेजो।
अन्त में यह कहना चाहता हूँ, तुम लोग यह स्मरण रखो कि मैं अपने गुरु-भाइयों की अपेक्षा अपनी सन्तानों से अधिक आशा रखता हूँ – मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्नत बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान् शक्तिशाली बनना होगा – मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना – इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।
प्रेम एवं आशीर्वाद सहित,
विवेकानन्द