स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखित (14 अप्रैल, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखा गया पत्र)
न्यूयार्क,
१४ अप्रैल, १८९६
कल्याणीय,
तुम्हारे पत्र से समाचार अवगत हुए। शरत् सकुशल पहुँच गया है, यह संवाद प्राप्त हुआ। तुम्हारा भेजा हुआ ‘इण्डियन मिरर’ पत्र भी मिला। लेख उत्तम है, बराबर लिखते रहो। दोष देखना सहज है, गुणों का अवलोकन करना ही महापुरुषों का धर्म है, इस बात को न भूलना। ‘मूँग की दाल तैयार नहीं हुई है’ – इसका तात्पर्य क्या है? भुनी हूई मूँग की दाल भेजने के लिए मैंने पहले ही मना कर दिया था; चने की दाल तथा कच्ची मूँग की दाल भेजने के लिए मैंने लिखा था। भूनी हुई मूँग की दाल यहाँ तक आने में ख़राब हो जाती है तथा उसका स्वाद भी नष्ट हो जाता है एवँ पकती भी नहीं है। यदि अब की बार भी भूनी हुई मूँग की दाल भेजी गयी हो, तो उसे टेम्स नदी में बहाना पड़ेगा एवं तुम्हारा परिश्रम भी व्यर्थ होगा। मेरे पत्र को अच्छी तरह पढ़े बिना तुम मनमानी क्यों करते हो? पत्र खो जाने का कारण क्या है? पत्र के जवाब लिखते समय पत्र को (जिसका जवाब लिखना हो) सामने रखकर लिखना चाहिए। तुम लोगों में कुछ business (व्यावहारिक) बुद्धि की आवश्यकता है। जिन विषयों को मैं जानना चाहता हूँ, प्रायः उनका ही उत्तर नहीं मिलता है – केवल इधर उधर की बातों का ही अधिक उल्लेख रहता है।… पत्र कैसे खो जाते हैं? उन्हें ‘फाइल’ क्यों नहीं किया जाता है? सब कामों में ही बचपना। मेरा पत्र क्या सबके समक्ष पढ़ा जाता है? क्या जो कोई आते हैं, ‘फाइल’ से पत्र निकाल कर भी पढ़ते हैं?…तुम लोगों में कुछ व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता है। अब तुम्हें संगठित होना चाहिए। तदर्थ पूर्णतया आज्ञा-पालन तथा श्रम-पालन तथा श्रम-विभाजन आवश्यक हैं। मैं सब कुछ इंग्लैण्ड पहुँचकर लिख भेजूँगा। कल मैं वहाँ के लिए रवाना हो रहा हूँ। मैं तुम लोगों को जैसा होना चाहिए, उस प्रकार बनाकर तुम लोगों द्वारा संगठित रूप से कार्य सम्पादन अवश्य कराऊँगा।
…Friend (बन्धु) शब्द का प्रयोग सबके प्रति किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषा में उस प्रकार की cringing politeness(चापलूस भद्रता) नहीं है, और ऐसे बंगला शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद करना हास्यास्पद होता है। रामकृष्ण परमहंस ईश्वर हैं, भगवान् हैं – क्या इस प्रकार की बातें यहाँ चल सकती हैं?
सबके हृदय में बलपूर्वक उस प्रकार की भावना को बद्धमूल कर देने का झुकाव ‘म’ में विद्यमान है। किन्तु इससे हम लोग एक क्षुद्र सम्प्रदाय के रूप में परिणत हो जायँगे। तुम लोग इस प्रकार के प्रयत्न से सदा दूर रहना। यदि लोग भगवद्बुद्धि से उनकी पूजा करें, तो कोई हानि नहीं है। उनको न तो प्रोत्साहित करना और न निरुत्साहित। साधारण लोग तो सर्वदा ‘व्यक्ति’ ही चाहेंगे, उच्च श्रेणी के लोग ‘सिद्धान्तों’ को ग्रहण करेंगे। हमें दोनों ही चाहिए, किन्तु सिद्धान्त ही सार्वभौम हैं, व्यक्ति नहीं। इसलिए उनके द्वारा प्रचारित सिद्धान्तों को ही दृढ़ता के साथ पकड़े रहो; लोगों को उनके व्यक्तित्व के बारे में अपनी अपनी धारणा के अनुसार सोचने दो।… सब तरह के विवाद, विद्वेष तथा पक्षपात की निवृत्ति हो; इनके रहने से सब कुछ नष्ट हो जायगा। ‘जो सबसे प्रथम है, उसका स्थान अन्त में और जो अन्त में है, वह प्रथम होगा।’
मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः(मेरे भक्तों के जो भक्त हैं, वे ही मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं) इति।
विवेकानन्द