स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखित (17 जनवरी, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखा गया पत्र)
२२८ डब्ल्यू. ३९, न्यूयार्क,
१७ जनवरी, १८९६
प्रिय सारदा,
तुम्हारे दोनों पत्र मिले, साथ ही रामदयाल बाबू के भी दोनों पत्र मिले। बिल्टी मेरे पास आ गयी है, किन्तु माल मिलने में अभी बहुत विलम्ब है। जब तक कोई सामान के जल्दी पहुँचने का बन्दोबस्त न करे, साधारणतया उसके आने में छः महीने लग जाते हैं। चार महीने हो गए, जब हरमोहन ने लिखा है कि रुद्राक्ष की मालाएँ तथा कुशासन भेजे जा चुके हैं, परन्तु अभी तक उसका कोई पता-ठिकाना नहीं है। बात यह है कि माल इंग्लैण्ड पहुँच जाता है, तब कम्पनी का एक एजेण्ट मुझे यहाँ सूचना भेजता है, और उसके प्रायः महीना भर बाद माल यहाँ आकर लगता है। तुम्हारी बिल्टी प्रायः तीन सप्ताह हुए मुझे मिली है, किन्तु सूचना का अभी कोई चिह्न नहीं। एकमात्र खेतड़ी के महाराजा की भेजी हुई चीजें मुझे जल्दी मिल जाती हैं। सम्भवतः इसके लिए वे विशेष व्यय करते हों। खैर, दुनिया के इस दूसरे छोर यानी पातालपुरी में भेजी हुई वस्तुएँ निश्चित रूप से आ पहुँचती हैं, यही परम सौभाग्य की बात है। माल के मिलते ही तुम लोगों को सूचित करूँगा। अब कम-से-कम तीन महीने तक चुपचाप बैठे रहो।…
अब तुम लोगों के लिए पत्रिका चलाने का समय आ गया है। रामदयाल बाबू से कहना कि उन्होंने जिस व्यक्ति के बारे में लिखा है, यद्यपि वे योग्य हैं, फिर भी इस समय अमेरिका में किसी को बुलाने का मेरा सामर्थ्य नहीं है। L’argent, mon ami, l’argent– रुपया, अजी, रुपया कहाँ है?
… तुम्हारे तिब्बत विषयक लेख का क्या हुआ? ‘मिरर’ में प्रकाशित होने पर उसकी एक प्रति मुझे भेज देना। जल्दबाजी में क्या कोई काम हो सकता है? सुनो, तुम लोगों के लिए एक काम है, उस पत्रिका को शुरू करो। इसे लोगों के सिर पर पटक दो और उन्हें ग्राहक बनाओ। डरो मत। छोटे दिलवालों से तुम किस काम की आशा रखते हो – उनसे संसार में कुछ नहीं होगा। समुद्र पार करने के लिए लोहे का दिल चाहिए। तुम्हे वज्र के गोले जैसा बनना होगा, जिससे पर्वत भेद सको। अगले जाड़े में मैं आ रहा हूँ। हम दुनिया में आग लगा देंगे, जो साथ आना चाहे, आये, उसका भाग्य अच्छा है; जो न आयेगा, वह सदा-सदा के लिए पड़ा ही रह जाएगा, उसे पड़ा ही रहने दो।…कुछ परवाह न करो, तुम लोगों के मुँह तथा हाथों पर वाग्देवी का अधिष्ठान होगा, हृदय में अनन्तवीर्य श्री भगवान् अधिष्ठित होगा, तुम लोग ऐसे कार्य करोगे, जिन्हें देखकर दुनिया आश्चर्यचकित रह जाएगी। अरे भाई, अपने नाम को तो जरा काट-छाँटकर छोटा बनाओ, बाप-रे-बाप, कितना लम्बा नाम है! ऐसा नाम कि जिसके द्वारा एक पुस्तक ही बन सकती है। यह जो कहा जाता है कि हरिनाम से डरकर यमराज भागने लगते हैं, ‘हरि’ इतने मात्र नाम से नहीं, वरन् उन बड़े-बड़े गंभीर नामों से जैसे कि ‘अघभगनरकविनाशन’, ‘त्रिपुरमदभंजन’, ‘अशेषनिःशेषकल्याणकर’, से ही डरकर यमराज के पूर्व पुरुष तक भागने लगते हैं। – नाम को थोड़ा-सा सरल बनाना क्या अच्छा नहीं रहेगा? शायद अब बदलना सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रचार हो चुका है, परन्तु कितना जबरदस्त नाम है कि यमराज तक डर जाएँ! किमधिकमिति।
विवेकानन्द
पुनश्च – बंगाल तथा समग्र भारत में तहलका मचा दो। जगह-जगह केन्द्र स्थापित करो।
‘भागवत’ मुझे मिल गया है। वास्तव में बहुत ही सुन्दर संस्करण है। किन्तु यहाँ के लोगों में संस्कृत के अध्ययन की बिल्कुल प्रवृत्ति नहीं है, इसलिए बिक्री की आशा बहुत ही कम है। इंग्लैण्ड में बिक्री हो सकती है, क्योंकि वहाँ संस्कृत के अध्ययन में रुचि रखने वाले कुछ लोग हैं। सम्पादक को मेरी ओर से विशेष धन्यवाद देना। आशा है कि उनका यह महान् प्रयास पूर्णतया सफल होगा। उनका ग्रन्थ यहाँ बिकवाने की मैं यथासाध्य चेष्टा करूँगा। ग्रन्थ का सूचीपत्र मैंने प्रायः सर्वत्र भेज दिया है। रामदयाल बाबू से कहना कि मूँग, अरहर आदि दालों का व्यापार इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में अच्छी तरह चल सकता है। यदि ठीक तरीके से कार्य प्रारम्भ किया जाए, तो दाल के ‘सूप’ की कद्र अच्छी होगी। यदि दाल की छोटी-छोटी पुड़िया बनाकर उन पर पकाने का तरीका छापकर घर-घर भेजी जाए तथा एक गोदाम स्थापित कर माल भेजा जाए, तो अच्छी तरह से यह काम चल सकता है। इसी प्रकार मँगोड़े भी चालू किये जा सकते हैं। हमें उद्यम की आवश्यकता है – घर बैठे रहने से कुछ भी नहीं हो सकता। यदि कोई व्यक्ति कम्पनी स्थापित कर भारतीय वस्तुओं को यहाँ तथा इंग्लैण्ड में लाने की व्यवस्था करे, तो एक बहुत ही सुन्दर धंधा चल सकता है। किन्तु हमारे यहाँ के आलसी भाग्यहीनों का दल केवल दस वर्ष की लड़की के साथ विवाह करना ही जानता है, इसके सिवाय वह और जानता ही क्या है?
विवेकानन्द