स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी तुरीयानन्द को लिखित (1 सितम्बर, 1900)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी तुरीयानन्द को लिखा गया पत्र)

पोस्ट आफिस दे फारेस्ट
सॉन्ताक्लॉरा को,
६, प्लेस द एतात युनि, पेरिस,
१ सितम्बर, १९००

प्रेमास्पद,

तुम्हारे पत्र से सब समाचार विदित हुए। कुछ दिन पहले ही सैन फ़्रांसिस्को से पूर्ण वेदान्ती तथा सत्याश्रम (Home of Truth) के बीच कुछ मतभेद होने का आभास मुझे मिला था। एक व्यक्ति ने ऐसा लिखा था। इस प्रकार होना स्वाभाविक है, बुद्धिपूर्वक सबको सन्तुष्ट करते हुए कार्य को चालू रखना ही विज्ञता है।

मैं अब कुछ दिन के लिए अज्ञातवास कर रहा हूँ। फ़्रांसीसियों के साथ इसलिए रहना है कि मुझे उनकी भाषा सीखनी है। मैं एक प्रकार से निश्चिन्त हो चुका हूँ अर्थात् न्यास-संलेख (ट्रस्ट डीड) पर हस्ताक्षर करके मैंने उसे कलकत्ता भेज दिया है; मैंने उसमें अपना कोई निजी स्वत्व या अधिकार नहीं रखा है। तुम लोग अब सभी विषयों के मालिक हो, मुझे विश्वास है कि प्रभुकृपा से तुम लोग समस्त कार्यो का संचालन कर सकोगे।

व्यर्थ का चक्कर काटकर मेरी अपने को मारने की अब अधिक इच्छा नहीं है; कहीं पर बैठकर पुस्तकादि के आधार पर कालक्षेप करना अब मेरा ध्येय है। फ़्रेंच भाषा पर कुछ अंशों तक मेरा अधिकार हो चुका है, दो-एक महीने उनके साथ रहने से ही मैं उस भाषा में अच्छी तरह वार्तालाप कर सकूँगा।

फ़्रेंच तथा जर्मन – इन दोनों भाषाओं में दक्षता प्राप्त होने पर यूरोपीय विद्या में बहुत कुछ प्रवेश हो सकता है। फ़्रेंच लोग केवल माथापच्ची करनेवाले होते हैं, इन लोगों की आकांक्षाएँ इस लोक पर ही केन्द्रित हैं; इन लोगों की यह दृढ़ धारणा है कि ईश्वर या जीव कुसंस्कार मात्र हैं, उस बारे में वे बातें ही नहीं करना चाहते!!! यह असली चार्वाक का देश है। देखना है कि प्रभु क्या करते हैं। किन्तु यह देश पाश्चात्य सभ्यता का शीर्षस्थानीय है। पेरिस नगरी पाश्चात्य सभ्यता की राजधानी है।

भाई, प्रचार सम्बन्धी समस्त कार्यों से तुम लोग मुझे मुक्त कर दो। मैं अब उससे दूर हूँ, तुम लोग स्वयं सँभालो। मेरी यह दृढ़ धारणा है कि ‘माँ’ मेरी अपेक्षा सौ गुना कार्य तुम लोगों के द्वारा सम्पादित करेंगी।

काली का एक पत्र बहुत दिन पहले मुझे मिला था। वह अब तक सम्भवतः न्यूयार्क आ गया होगा। कुमारी वाल्डो बीच बीच में समाचार लेती रहती है।

मेरा शरीर कभी ठीक रहता है और कभी अस्वस्थ। कुछ दिनों से पुनः श्रीमती वाल्डन की वही मर्दन-चिकित्सा जारी है। उसका कहना है कि मैं इस बीच ठीक हो चुका हूँ! मैं तो सिर्फ़ यह देख रहा हूँ कि चाहे अब मेरे पेट में वायु की शिकायत कितनी भी क्यों न हो, चलने-फिरने अथवा पहाड़ पर चढ़ने में मुझे कोई कष्ट नहीं होता है। प्रातःकाल मैं ख़ूब डण्ड-बैठक लगाता हूँ। फिर ठण्डे पानी में गोता लगाता हूँ!!

जिसके साथ मुझे यहाँ रहना है, कल मैं उसका मकान देख आया हूँ। वह ग़रीब है, किन्तु विद्वान् है; उसके रहने की जगह पुस्तकों से भरी हुई है, वह छठी मंजिल पर रहता है। यहाँ अमेरिका की तरह ‘लिफ़्ट’ की व्यवस्था नहीं है – चढ़ना-उतरना पड़ता है। किन्तु अब मुझे इस कारण कोई कष्ट नहीं होता।

उसके मकान के चारों ओर एक सुन्दर सार्वजनिक पार्क है। वह अंग्रेजी नहीं बोल सकता है, ख़ासकर इसीलिए मैं वहाँ जा रहा हूँ। बाध्य होकर मुझे भी फ्रेंच भाषा का प्रयोग करना होगा। आगे ‘माँ’ की इच्छा है। सब कुछ उसका ही कार्य है, वे ही जानती हैं। साफ साफ तो वे कुछ भी नहीं बतलातीं, ‘गुम होकर रहती हैं’, किन्तु मैं यह देख रहा हूँ, कि इस बीच मेरा ध्यान-जप भी अच्छी तरह से चालू है।

कुमारी बुक, कुमारी वेल, श्रीमती ऐम्पीनल, कुमारी वेक्हम, श्री जार्ज, डा० लॉगन आदि मेरे सभी मित्रों से मेरी प्रीति कहना तथा तुम स्वयं जानना।

लॉस एंजिलिस में सभी से मेरी प्रीति कहना।

विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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