स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती फ़्रांसिस लेगेट को लिखित (3 सितम्बर, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती फ़्रांसिस लेगेट को लिखा गया पत्र)
६, प्लेस द एतात युनि,
पेरिस,
३ सितम्बर, १९००
प्रिय माँ,
यहाँ इस भवन में हमारी सनकियों की एक सभा हुई।
भिन्न भिन्न देशों से प्रतिनिधि आये, दक्षिण में भारत से लेकर उत्तर में स्कॉटलैण्ड तक से, इंग्लैण्ड और अमेरिका ने दोनों पक्षों को आधार प्रदान किया।
हमें अध्यक्ष चुनने में बड़ी कठिनाई हुई, क्योंकि यद्यपि डा. जेम्स (प्रो. विलियम जेम्स) थे, वे विश्व की समस्याओं के हल की अपेक्षा श्रीमती मेल्टन (शायद एक चुम्बकीय चिकित्सक (magnetic healer) द्वारा उठाये अपने शरीर के फफोलों को अधिक मन में बसाये हुए थे।
मैंने ‘जो’ (जोसेफिन मैक्लिऑड) के लिए प्रस्ताव किया, किन्तु उसने इसलिए अस्वीकार कर दिया कि उसका नया गाउन नहीं आया था – और वह एक कोने से, विजय की पृष्ठभूमि से, सारे दृश्य को देखने के लिए चली गयी।
श्रीमती (ओलि) बुल तैयार थीं, किन्तु मार्गट (भगिनी निवेदिता) ने इस सभा के एक तुलनात्मक दर्शन कक्षा का रूप धारण करने पर आपत्ति की।
जब हम लोग इस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ थे, तभी एक छोटा, गठीला और गोल-मटोल व्यक्ति एक कोने से उठा और बिना किसी औपचारिकता के उसने घोषणा की, यदि हम सूर्यदेव और चन्द्रदेव की उपासना करें, तो सभी कठिनाईयाँ अपने आप दूर हो जायँगी, न केवल अध्यक्ष चुनने की समस्या, वरन् स्वयं जीवन की समस्या हल हो जायगी। उसने अपना भाषण पाँच मिनट में समाप्त कर लिया, किन्तु उसके शिष्य को, जो उपस्थित था, उसका अनुवाद करने में पूरा पौन घंटा लगा। इसी बीच उसके गुरू उठे और अपने कमरे के बिछौने इस उद्देश्य से लपेटने लगे, जैसा कि उन्होंने कहा, कि वे हमें तत्काल ‘अग्निदेवता’ की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रदर्शन देंगे।
इस समय ‘जो’ ने आपत्ति की और अपने कमरे में ‘अग्नि-यज्ञ’ नहीं चाहती, इस बात पर उसने जोर दिया। इस पर भारतीय साधु ने ‘जो’ की ओर उसके व्यवहार पर घोर अप्रसन्न होकर बड़ी क्रुद्ध दृष्टि से देखा – उसको विश्वास था कि वह अग्नि-उपासना में पूर्णरूप से दीक्षित हो गयी है।
तब डा. जेम्स ने अपने फफोलों की सेवा करने से एक मिनट निकालकर घोषणा की कि यदि वे मेल्टन के फफोलों के विकास में पूर्णतया व्यस्त न होते, तो वे ‘अग्निदेव’ तथा उनके भाइयों के ऊपर बड़ी रोचक बातें कहते। इसके अतिरिक्त चूँकि उनके महान् गुरू हर्बट स्पेन्सर ने इस विषय की गवेषणा उनके पूर्व नहीं की, अतः वे मौन ही रहेंगे।
द्वार के पास से एक आवाज आयी, वह वस्तु ‘चटनी’ है। हम सबने मुड़कर देखा कि वह मार्गट है। उसने कहा, “ ‘चटनी’ ही है। ‘चटनी’ और काली जीवन की सभी कठिनाइयों को दूर कर देंगी और हम लोगों को सारी बुराई पी जाने तथा अच्छाई को समझने के योग्य बना देंगी।” लेकिन वह अचानक रूक गयी और दृढ़तापूर्वक बोली कि वह आगे कुछ न कहेगी, क्योंकि श्रोताओं में से एक नर प्राणी के द्वारा उसे बोलने में बाधा पहुँचायी गयी है। उसे निश्चय था कि श्रोताओं में से एक व्यक्ति ने खिड़की की ओर सिर मोड़ लिया था और एक महिला के प्रति उचित ध्यान नहीं दे रहा था। यद्यपि वह स्वयं स्त्री-पुरूष की समानता में विश्वास करती थी, तथापि उसने उस घृणास्पद व्यक्ति की स्त्रियों के प्रति आदर की भावना के अभाव के कारण को जानना चाहा। तब सभी लोगों ने घोषणा की कि वे उसके प्रति पूर्ण ध्यान दे रहे हैं, और सबसे ऊपर समान अधिकार दे रहे हैं, परन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। मार्गट को उस भीषण समूह से कोई सरोकार नहीं था और वह बैठ गयी।
तब बोस्टन की श्रीमती बुल खड़ी हुई और यह समझाने लगीं कि किस प्रकार दुनिया की सारी कठिनाईयाँ स्त्री-पुरूष के सच्चे सम्बन्ध को न समझने के कारण हैं। ‘उचित व्यक्तियों को ठीक प्रकार समझना ही इसका एकमात्र इलाज है और तब प्रेम में मुक्ति पाना और मुक्ति, मातृत्व, भ्रातृत्व, पितृत्व, तथा ईश्वरत्व में स्वातंत्र्य, प्रेम में स्वातंत्र्य और स्वातंत्र्य में प्रेम तथा स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध में सच्चे आदर्श की उचित प्रतिष्ठा करना।’
इस पर स्कॉटलैण्ड के प्रतिनिधि ने दृढ़तापूर्वक आपत्ति की और कहा, क्योंकि शिकारी ने चरवाहे का पीछा किया, चरवाहे ने गड़रिये का, गड़रिये ने किसान का और किसान ने मछुए को समुद्र में खदेड़ भगाया, अब हमने गहरे समुद्र से मछुए को पकड़ना चाहा और उसे किसान पर आक्रमण करने दिया इत्यादि; और इस प्रकार जीवन का जाला पूर्ण हो जायगा और हम सब लोग प्रसन्न होंगे – पर उसे यह खदेड़ने का कार्य बहुत काल तक नहीं करने दिया गया। एक क्षण में प्रत्येक व्यक्ति खड़ा हो गया और हमने केवल शब्दों का एक होहल्ला सुना – ‘सूर्य देव और चन्द्र देव’, ‘चटनी और काली’, ‘ठीक समझ रखने की स्वतंत्रता, स्त्री-पुरूष सम्बन्ध; मातृत्व,’ ‘कभी नहीं, मछुए को अवश्य ही समुद्रतट वापस जाना होगा’ इत्यादि। इस पर ‘जो’ ने घोषणा की कि इस समय वह शिकारी का पार्ट अदा करने के लिए इच्छुक है, और यदि वे अपनी मूर्खता का परित्याग नहीं करते, तो वह उन्हें अपने घर से खदेड़ भगायेगी।
तब शान्ति हुई और सुस्थिरता आयी और मैं यह पत्र लिखने में लग गया हूँ।
आपका सस्नेह,
विवेकानन्द