शिष्य का प्रथम परिचय – विवेकानंद जी के संग में
विषय – स्वामीजी के साथ शिष्य का प्रथम परिचय – ‘मिरर’ सम्पादकश्रीयुत नरेन्द्रनाथ सेन के साथ वार्तालाप – इंग्लैण्ड और अमरीका की तुलनापर विचार – पाश्चात्य जगत् में भारतवासियों के धर्मप्रचार का भविष्यफल -भारत का कल्याण धर्म में या राजनीतिक चर्चा में – गोरक्षा-प्रचारक के साथभेंट – मनुष्य की रक्षा करना पहला कर्तव्य।
स्थान – कलकत्ता, स्व. प्रियनाथ मुखर्जी का भवन, बागबाजार
वर्ष – १८९७ ईसवी।
तीन चार दिन हुए, स्वामीजी प्रथम बार विलायत से लौटकर कलकत्ता नगर में पधारे हैं। बहुत दिनों के बाद आपका पुण्यदर्शन होने से श्रीरामकृष्ण-भक्तगण बहुत प्रसन्न हो रहे हैं। उनमें से जिनकी अवस्था अच्छी है, वे स्वामीजी को सादर अपने घर पर आमन्त्रित करके आपके सत्संग से अपने को कृतार्थ समझते हैं। आज मध्याह्न को बागबाजार के अन्तर्गत राजवल्लभ मुहल्ले में श्रीरामकृष्ण भक्त श्रीयुत प्रियनाथजी के घर पर स्वामीजी को निमन्त्रण है। इस समाचार को पाते ही, बहुतसे भक्त उनके घर पर आ रहे हैं। शिष्य भी लोगों के मुँह से यह सुनकर प्रियनाथजी के घर पर कोई ढाई बजे उपस्थित हुआ। स्वामीजी के साथ शिष्य का अभी तक कुछ परिचय नहीं है। शिष्य को अपने जीवन में यह प्रथम बार स्वामीजी का दर्शनलाभ हुआ है।
वहाँ उपस्थित होने के साथ ही स्वामी तुरीयानन्दजी शिष्य को स्वामीजी के पास ले गये और उनसे उसका परिचय कराया। स्वामीजी जब मठ में पधारे थे, तभी शिष्यरचित एक श्रीरामकृष्णस्तोत्र पढ़कर उसके विषय में सब जान गये थे और यह भी मालूम कर लिया था कि शिष्य का श्रीरामकृष्ण के बड़े प्रेमी भक्त साधु नागमहाशय के पास आना-जाना रहता है।
शिष्य जब स्वामीजी को प्रणाम करके बैठ गया तो स्वामीजी ने संस्कृत भाषा में उससे सम्भाषण किया तथा नाग महाशय का कुशल-मंगल पूछा और नाग महाशय के आश्चर्यजनक त्याग, गम्भीर ईश्वरानुराग और नम्रता की प्रशंसा करते हुए बोले, “वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती”1और शिष्य को आज्ञा दी कि पत्र द्वारा इस सम्भाषण को उनके पास भेज दे। तदनन्तर बहुत भीड़ लग जाने के कारण वार्तालाप करने का सुभीता न देखकर स्वामीजी शिष्य और तुरीयानन्दजी को लेकर पश्चिम दिशा के एक छोटे कमरे में चले गये और शिष्य को लक्ष्य करके ‘विवेकचूड़ामणि’ का यह श्लोक कहने लगे –
मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः।
येनैव याता यतयोऽस्य पारं तमेव मार्गं तव निर्दिशामि॥
“हे विद्वन्! डरो मत, तुम्हारा नाश नहीं है, संसार-सागर के पार उतरने का उपाय है। जिस उपाय के आश्रय से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे है, उसी श्रेष्ठ मार्ग को मैं तुम्हें दिखाता हूँ!” ऐसा कहकर शिष्य को श्रीशंकराचार्यकृत “विवेकचूड़ामणि” ग्रन्थ पढ़ने का आदेश दिया।
शिष्य इन बातों को सुनकर चिन्ता करने लगा – क्या स्वामीजी मुझे मन्त्रदीक्षा लेने के लिए संकेत कर रहे हैं? उस समय शिष्य वेदान्तवादी और बाह्य आचारों को बहुत ही महत्त्व देनेवाला था। गुरु से मन्त्र लेने की जो प्रथा है उस पर उसका कुछ विश्वास नहीं था और वर्णाश्रम-धर्म का वह एकान्त अनुयायी तथा पक्षपाती था।
फिर नाना प्रकार का प्रसंग चल पड़ा। इतने में किसी ने आकर समाचार दिया कि ‘मिरर’ नामक दैनिक पत्र के सम्पादक श्रीयुत नरेन्द्रनाथ सेन स्वामीजी के दर्शन के लिए आये हैं। स्वामीजी ने संवादवाहक को आज्ञा दी ‘उन्हें यहाँ लिवा आओ।’ नरेन्द्र बाबू ने छोटे कमरे में आकर आसन ग्रहण किया और वे अमरीका-इंग्लैण्ड के विषय में स्वामीजी से नाना प्रकार के प्रश्न करने लगे। प्रश्नों के उत्तर में स्वामीजी ने कहा कि अमरीका के लोग जैसे सहृदय, उदारचित्त, अतिथिसेवा-तत्पर और नवीन भाव ग्रहण करने में उत्सुक हैं, वैसे जगत् में और कोई नहीं हैं। अमरीका में जो कुछ कार्य हुआ है, वह मेरी शक्ति से नहीं हुआ वरन् इतने सहृदय होने के कारण ही अमरीकानिवासी इस वेदान्तभाव को ग्रहण करने में समर्थ हुए हैं। इंग्लैण्ड के विषय में स्वामीजी ने कहा कि अंग्रेज जाति की तरह प्राचीन रीतिनीति की पक्षपाती (Conservative) और कोई जाति संसार में नहीं है। पहले तो ये लोग किसी नये भाव को सहज में ग्रहण करना नहीं चाहते, परन्तु यदि अध्यवसाय के साथ कोई भाव उनको एक बार समझा दिया जाय तो फिर उसे कभी भी नहीं छोड़ते। ऐसी दृढ़प्रतिज्ञता किसी दूसरी जाति में नहीं पायी जाती। इसी कारण अंग्रेज जाति ने सभ्यता और शक्ति के संचय में पृथ्वी पर सब से ऊँचा पद प्राप्त किया है।
फिर यह कहकर कि यदि कोई सुयोग्य प्रचारक मिले तो अमरीका की अपेक्षा इंग्लैण्ड में ही वेदान्तकार्य के विशेष स्थायी होने की अधिक सम्भावना है, और कहा, “मैं केवल कार्य की नींव डालकर आया हूँ। मेरे बाद के प्रचारक उसी मार्ग पर चलकर भविष्य में बहुत बड़ा काम कर सकेंगे।”
नरेन्द्र बाबू ने पूछा – “इस प्रकार धर्मप्रचार करने से भविष्य में हम लोगों को क्या लाभ है?”
स्वामीजी ने कहा – “हमारे देश में जो कुछ है सो वेदान्तधर्म ही है। पाश्चात्य सभ्यता के साथ तुलना करने से यह कहना ही पड़ता है कि हमारी सभ्यता उसके पासंग भर भी नहीं है, परन्तु धर्म के क्षेत्र में यह सार्वभौमिक वेदान्तवाद ही नाना प्रकार के मतावलम्बियों को समान अधिकार दे रहा है। इसके प्रचार से पाश्चात्य सभ्य संसार को विदित होगा कि किसी समय में भारतवर्ष में कैसे आश्चर्यजनक धर्म-भाव का स्फुरण हुआ था और वह अब तक वर्तमान है। पाश्चात्य जातियों में इस मत की चर्चा होने से उनकी हम पर श्रद्धा बढ़ेगी और हमारे प्रति सहानुभूति प्रकट होगी – बहुतसी अब तक हो भी चुकी है। इस प्रकार उनकी यथार्थ श्रद्धा और सहानुभूति प्राप्त करने पर हम अपने ऐहिक जीवन के लिए उनसे वैज्ञानिक शिक्षा ग्रहण करके जीवनसंग्राम में अधिक योग्यता प्राप्त करेंगे। दूसरी ओर वे हमसे वेदान्तमत ग्रहण करके पारमार्थिक कल्याण लाभ करने में समर्थ होंगे।”
नरेन्द्र बाबू ने पूछा – “इस प्रकार के आदान-प्रदान से हमारी राजनीतिक उन्नति की कोई आशा है या नहीं?” स्वामीजी बोले, “वे (पाश्चात्य जाति) महापराक्रमशाली विरोचन की सन्तान हैं। उनकी शक्ति से पंचभूत कठपुतली के समान उनकी सेवा कर रहे हैं। यदि आपको यह प्रतीत हो कि इसी स्थूल भौतिक शक्ति के प्रयोग से किसी न किसी दिन हम उनसे स्वतन्त्र हो जाएँगे तो आपका ऐसा अनुमान सर्वथा निर्मूल है। इस शक्ति-प्रयोगकुशलता में, उनमें और हममें ऐसा अन्तर है जैसा कि हिमालय और एक सामान्य शिलाखण्ड में। मेरे मत को आप सुनियेगा। हम लोग उक्त प्रकार से वेदान्तधर्म का गूढ रहस्य पाश्चात्य जगत् में प्रचार करके उन महाशक्ति धारण करनेवालों की श्रद्धा और सहानुभूति को आकर्षित करेंगे और आध्यात्मिक विषय में सर्वदा हम उनके गुरुस्थान पर आसीन रहेंगे। दूसरी ओर वे अन्यान्य ऐहिक विषयों में हमारे गुरु बने रहेंगे। जिस दिन भारतवासी अपने धर्मविषय से विमुख होकर पाश्चात्य जगत् से धर्म को जानने की चेष्टा करेंगे, उसी दिन इस अधःपतित जाति का जातित्व सदा के लिए नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। हमें यह दे दो, हमें वह दे दो ऐसे आन्दोलन से सफलता प्राप्त नहीं होगी। परन्तु उस आदानप्रदानरूप कार्य से जब दोनों पक्ष में श्रद्धा और सहानुभूति की एक प्रेमलता का जन्म होगा, तब अधिक चिल्लाने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी। वे स्वयं हमारे लिए सब कुछ कर देंगे। मेरा विश्वास है कि इसी प्रकार से वेदान्तधर्म की चर्चा और वेदान्त का सर्वत्र प्रचार होने से हमारे देश तथा पाश्चात्य देश दोनों को ही विशेष लाभ होगा। इसके सामने राजनीतिक चर्चा मेरी समझ में गौण उपाय दीखती है। अपने इस विश्वास को कार्य में परिणत करने में मैं अपने प्राण तक भी दे दूँगा। यदि आप समझते हैं कि किसी दूसरे उपाय से भारत का कल्याण होगा तो आप उसी उपाय का अवलम्बन कीजिये।”
नरेन्द्र बाबू स्वामीजी की बातों पर बिना वाद-विवाद किये सहमत हो कुछ समय के पश्चात् चले गये। स्वामीजी की पूर्वोक्त बातों को श्रवण कर शिष्य विस्मित हो गया और उनकी दिव्य मूर्ति की ओर टकटकी लगाये देखता रहा।
नरेन्द्र बाबू के चले जाने के पश्चात् गोरक्षण सभा के एक उद्योगी प्रचारक स्वामीजी के दर्शन के लिए साधु-संन्यासियों का सा वेष धारण किये हुए आये। उनके मस्तक पर गेरुए रंग की एक पगड़ी थी। देखते ही जान पड़ता था कि वे हिन्दुस्तानी हैं। इन प्रचारक के आगमन का समाचार पाते ही स्वामीजी कमरे से बाहर आये। प्रचारक ने स्वामीजी को अभिवादन किया और गोमाता का एक चित्र उनको दिया। स्वामीजी ने उसे ले लिया और पास बैठे हुए किसी व्यक्ति को वह देकर प्रचारक से निम्नलिखित वार्तालाप करने लगे।
स्वामीजी – आप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है?
प्रचारक – हम देश की गोमाताओं को कसाई के हाथों से बचाते हैं। स्थान स्थान पर गोशालाएँ स्थापित की गयी हैं जहाँ रोगग्रस्त, दुर्बल और कसाइयों से मोल ली हुई गोमाताओं का पालन किया जाता है।
स्वामीजी – बड़ी प्रशंसनीय बात है। सभा की आय कैसे होती है?
प्रचारक – आप जैसे धर्मात्मा जनों की कृपा से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से सभा का कार्य चलता है।
स्वामीजी – आपकी नगद पूँजी कितनी है?
प्रचारक – मारवाड़ी वैश्य-सम्प्रदाय इस कार्य में विशेष सहायता देता है। वे इस सत्कार्य में बहुतसा धन प्रदान करते हैं।
स्वामीजी – मध्य-भारत में इस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा है। भारत सरकार ने घोषित किया है कि नौ लाख लोग अन्नकष्ट से मर गये हैं। क्या आपकी सभा ने इस दुर्भिक्ष में कोई सहायता करने का आयोजन किया था?
प्रचारक – हम दुर्भिक्षादि में कुछ सहायता नहीं करते। केवल गोमाता की रक्षा करने के उद्देश से यह सभा स्थापित हुई है।
स्वामीजी – आपके देखते देखते इस दुर्भिक्षादि में आपके लाखों भाई कराल काल के चंगुल में फँस गये। आप लोगों के पास बहुत नकद रुपया जमा होते हुए भी क्या उनको एक मुट्ठी अन्न देकर इस भीषण दुर्दिन में उनकी सहायता करना उचित नहीं समझा गया?
प्रचारक – नहीं, मनुष्य के कर्मफल अर्थात पापों से वह दुर्भिक्ष पड़ा था। उन्होंने कर्मानुसार फलभोग किया। जैसे कर्म हैं वैसा ही फल हुआ है।
प्रचारक की बात सुनते ही स्वामीजी के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और ऐसा मालूम होने लगा कि उनके नयनप्रान्त से अग्निकण स्फुरित हो रहे हैं। परन्तु अपने को सम्भालकर वे बोले, “जो सभा-समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती, अपने भाईयों को बिना अन्न मरते देखकर भी उनकी रक्षा के निमित्त एक मुट्ठी अन्न से सहायता करने को उद्यत नहीं होती, तथा पशु-पक्षियों के निमित्त हजारों रुपये व्यय कर रही है, उस सभा-समिति से मैं लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं रखता। उससे मनुष्यसमाज का विशेष कुछ उपकार होना असम्भवसा जान पड़ता है। ‘अपने कर्मफल से मनुष्य मरते हैं!’ इस प्रकार सब बातों में कर्मफल का आश्रय लेने से किसी विषय में जगत् में कोई भी उद्योग करना व्यर्थ है। यदि यह प्रमाण स्वीकार कर लिया जाय तो पशु-रक्षा का काम भी इसी के अन्तर्गत आता है। तुम्हारे पक्ष में भी कहा जा सकता है कि गोमाताएँ अपने कर्मफल से कसाईयों के पास पहुँचती हैं और मारी जाती हैं – इससे उनकी रक्षा का उद्योग करने का कोई प्रयोजन नहीं है।”
प्रचारक कुछ लज्जित होकर बोले – “हाँ महाराज, आपने जो कहा वह सत्य है, परन्तु शास्त्र में लिखा है कि गौ हमारी माता है।”
स्वामीजी हँसकर बोले – “जी हाँ, गौ हमारी माता है यह मैं भी भलीभाँति समझता हूँ। यदि यह न होती तो ऐसी कृतकृत्य सन्तान और दूसरा कौन प्रसव करता?”
प्रचारक इस विषय पर और कुछ नहीं बोले। शायद स्वामीजी की हँसी प्रचारक की समझ में नहीं आयी। आगे स्वामीजी से उन्होंने कहा “इस समिति की ओर से आपके सम्मुख भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूँ।”
स्वामीजी – मैं साधु संन्यासी हूँ। रूपया मेरे पास कहाँ है कि मैं आपकी सहायता करूँ। परन्तु यह भी कहता हूँ कि यदि कभी मेरे पास धन आये तो मैं प्रथम उस धन को मनुष्यसेवा में व्यय करूँगा। सब से पहले मनुष्य की रक्षा आवश्यक है – अन्नदान, धर्मदान, विद्यादान करना पड़ेगा। इन कामों को करके यदि कुछ रुपया बचेगा तो आपकी समिति को कुछ दूँगा।
इन बातों को सुनकर प्रचारक स्वामीजी को अभिवादन करके चले गये। तब स्वामीजी हमसे कहने लगे, “देखो कैसे अचम्भे की बात उन्होंने बतलायी! कहा कि मनुष्य अपने कर्मफल से मरता है, उस पर दया करने से क्या होगा? हमारे देश के पतन का अनुमान इसी बात से किया जा सकता है। तुम्हारे हिन्दुधर्म का कर्मवाद कहाँ जाकर पहुँचा? जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नहीं दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है?” इन बातों को कहने के साथ ही स्वामीजी का शरीर क्षोभ और दुःख से सनसना उठा।
इसके पश्चात् शिष्य से बोले – फिर कभी हमसे भेंट करना।
शिष्य – आप कहाँ विराजियेगा? सम्भव है कि आप किसी बड़े आदमी के स्थान पर ठहरेंगे, वहाँ हमको कोई घुसने भी न देगा।
स्वामीजी – इस समय तो मैं कभी आलमबाजार के मठ में कभी काशीपुर में गोपाललाल शील की बगीचेवाली कोठी में रहूँगा, तुम वहाँ आ जाना।
शिष्य – महाराज, बड़ी इच्छा है कि एकान्त में आपसे वार्तालाप करूँ।
स्वामीजी – बहुत अच्छा, किसी दिन रात्रि में आ जाओ, वेदान्त की चर्चा होगी।
शिष्य – महाराज, मैंने सुना है कि आप के साथ कुछ अंग्रेज और अमरीकन आये हैं। वे मेरे वस्त्रादिक के पहरावे और बातचीत से अप्रसन्न तो नहीं होंगे?
स्वामीजी – वे भी तो मनुष्य हैं। विशेष करके वे वेदान्तधर्मनिष्ट हैं। वे तुम्हारे समागम और सम्भाषण से आनन्दित होंगे।
शिष्य – महाराज, वेदान्त के अधिकारियों के लिए जो सब लक्षण होने चाहिए, वे आपके पाश्चात्य शिष्यों में कैसे विद्यमान हैं? शास्त्र कहता हैं – ‘अधीतवेदवेदान्त, कृतप्रायश्चित्त, नित्यनैमित्तिक-कर्मानुष्ठानकारी’, ‘आहार-विहार में परम संयमी, विशेष करके चतुःसाधनसम्पन्न न होने से वेदान्त का अधिकारी नहीं बनता।’ आपके पाश्चात्य शिष्यगण प्रथम तो ब्राह्मण नहीं हैं, दूसरे भोजनादिक में अनाचारी हैं, वे वेदान्तवाद कैसे समझ गये?
स्वामीजी – वे वेदान्त को समझे या नहीं यह तुम उनसे मेलमिलाप करने से ही जान जाओगे।
मालूम पड़ता है कि स्वामीजी अब तक समझ गये थे कि शिष्य एक निष्ठावान् बाह्याचारप्रिय हिन्दू है।
इसके बाद स्वामीजी श्रीरामकृष्ण परमहंस के भक्तों के साथ श्रीयुत बलराम बसुजी के स्थान को गये। शिष्य भी बटतले मुहल्ले से विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ मोल लेकर दर्जीपाड़े में अपने घर की ओर चला गया।
- अभिज्ञानशाकुन्तलम्।