धर्मस्वामी विवेकानंद

काश्मीर में अमरनाथजी का दर्शन

स्थान – बेलुड़ किराये का मठ

वर्ष – १८९८ ईसवी (नवम्बर)

विषय – काश्मीर में अमरनाथजी का दर्शन – क्षीरभवानी के मन्दिर मेंदेवीजी की वाणी का श्रवण और मन से सकल संकल्प का त्याग – प्रेतयोनिका अस्तित्व – भूत-प्रेत देखने की इच्छा मन में रखना अनुचित – स्वामीजी का प्रेतदर्शन और श्राद्ध व संकल्प से उसका उद्धार।

आज दो-तीन दिन हुए कि स्वामीजी लौटकर काश्मीर से आये हैं। शरीर कुछ स्वस्थ नहीं है। शिष्य के मठ में आते ही स्वामी ब्रह्मानन्दजी महाराज बोले, “जब से काश्मीर से लौटे हैं, स्वामीजी किसी से कुछ वार्तालाप नहीं करते, मौन होकर स्तब्ध बैठे रहते हैं, तुम स्वामीजी से कुछ वार्तालाप करके उनके मन को नीचे (अर्थात् जगत् के कार्यों पर) लाने का प्रयत्न करो।”

शिष्य ने ऊपर स्वामीजी के कमरे में जाकर देखा कि स्वामीजी मुक्तपद्मासन होकर पूर्व की ओर मुँह फेरे बैठे हैं, मानो गम्भीर ध्यान में मग्न हैं। मुँह पर हँसी नहीं, उज्ज्वल नेत्रों की दृष्टि बाहर की ओर नहीं, मानो अपने भीतर कुछ देख रहे हैं। शिष्य को देखते ही बोले, “बच्चा, आ गये; बैठो।” बस, इतनी ही बात की। स्वामीजी के बायें नेत्र को रक्त्तवर्ण देखकर शिष्य ने पूछा, “आपकी यह आँख लाल कैसे हो रही है?” “कुछ नहीं” कहकर स्वामीजी फिर स्तब्ध हो गये। बहुत समय तक बैठे रहने पर भी जब स्वामीजी ने कुछ भी वार्तालाप नहीं किया तब शिष्य व्याकुल होकर स्वामीजी के चरणकमलों को स्पर्श कर बोला, “श्रीअमरनाथजी में आपने जो कुछ प्रत्यक्ष किया है क्या वह सब मुझे नहीं बतलाइयेगा?” पादस्पर्श से स्वामीजी कुछ चौंक से उठे, दृष्टि भी बाहर की ओर खुली और बोले, “जब से अमरनाथजी का दर्शन किया है, चौबीसों घण्टे मानो श्रीशिवजी मेरे मस्तक में बैठे रहते हैं; किसी प्रकार भी नहीं हटते।” शिष्य इन बातों को सुनकर अवाक् हो गया।

स्वामीजी – अमरनाथ पर और फिर क्षीरभवानीजी के मन्दिर में मैंने बहुत तपस्या की थी।

स्वामीजी फिर कहने लगे, “अमरनाथ को जाते समय पहाड़ की एक खड़ी चढ़ाई से होकर गया था। उस पगडण्डी से पहाड़ी लोग ही चढ़ाई-उतराई करते हैं, कोई यात्री उधर से नहीं जाता; परन्तु इसी मार्ग से होकर जाने की मुझे जिद-सी हो गयी थी; उसी परिश्रम से शरीर कुछ थका हुआ है। वहाँ ऐसा कड़ा जाड़ा पड़ता है कि शरीर में सुई-सी चुभती है।”

शिष्य – मैंने सुना है कि लोग नग्न होकर अमरनाथजी का दर्शन करते हैं। क्या यह सत्य है?

स्वामीजी – मैंने भी कौपीन मात्र धारण कर और भस्म लगाकर गुफा में प्रवेश किया था; तब ठण्डक या गरमी कुछ नहीं मालूम होती थी, परन्तु मन्दिर से निकलते ही ठण्ड से अकड़ गया।

शिष्य – क्या वहाँ कभी कबूतर भी देखने में आया था? सुना है कि ठण्ड के मारे वहाँ कोई जीवन-जन्तु नहीं बसता है, केवल सफेद कबूतरों की एक टुकड़ी कहीं से कभी कभी आ जाती है।

स्वामीजी – हाँ, तीन-चार सफेद कबूतरों को देखा था। वे उसी गुफा में या आसपास के किसी पहाड़ में रहते हैं, ठीक अनुमान नहीं कर सका।

शिष्य – महाराज, लोगों से सुना है कि यदि कोई गुफा से बाहर निकलकर सफेद कबूतरों को देखे तो समझते हैं कि यथार्थ शिव के दर्शन हुए।

स्वामीजी बोले, “सुना है कि कबूतर देखने से जिसके मन मैं जैसी कामना रहती है, वही सिद्ध होती है।”

अब स्वामीजी फिर कहने लगे कि लौटते समय जिस मार्ग से सब यात्री आते हैं, उसी मार्ग से वे भी श्रीनगर को आये थे। श्रीनगर पहुँचने के कुछ दिन बाद क्षीरभवानीजी के दर्शन को गये और सात दिन वहाँ ठहरकर देवी को क्षीर चढ़ायी और पूजा तथा हवन किया था। प्रतिदन वहाँ एक मन दूध की क्षीर का भोग चढ़ाते थे और हवन करते थे। एक दिन पूजा करते समय मन में यह विचार उदित हुआ, “माता भवानीजी यहाँ सचमुच कितने समय से प्रकाशित हैं? प्राचीन काल में यवनों ने यहाँ आकर उनके मन्दिर को विध्वंस कर दिया था और यहाँ के लोग कुछ कर नहीं सके। हाय! यदि मैं उस समय होता, तो चुपचाप यह कभी नहीं देखता।” इस विचार से जब उनका मन दुःख और क्षोभ से अत्यन्त व्याकुल हो गया था, तब उनके सुनने में यह स्पष्ट आया था कि माताजी कह रही हैं – “मेरी इच्छा से ही यवनों ने मन्दिर का विध्वंस किया है, जीर्ण मन्दिर में रहने की मेरी इच्छा है। क्या मेरी इच्छा से अभी यहाँ सातमंजिला सोने का मन्दिर नहीं बन सकता है? तू क्या कर सकता है, मैं तेरी रक्षा करूँगी या तू मेरी रक्षा करेगा?” स्वामीजी बोले, “उस देववाणी को सुनने के समय से मेरे मन में और कोई संकल्प नहीं है। मठ-वठ बनाने का संकल्प छोड़ दिया है। माताजी की जो इच्छा है वही होगा।” शिष्य अवाक् होकर सोचने लगा कि इन्होंने ही तो एक दिन कहा था, “जो कुछ देखता है या सुनता है वह केवल तेरे भीतर अवस्थित आत्मा की प्रतिध्वनि मात्र है! बाहर कुछ भी नहीं है।” अब स्वामीजी से उसने स्पष्ट पूछा, “महाराज, आपने तो कहा था कि यह सब देववाणी हमारे भीतर के भावों की बाह्य प्रतिध्वनि मात्र है।” स्वामीजी ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया, “भीतर हो या बाहर, इससे क्या? यदि तुम अपने कानों से मेरे समान ऐसी अशरीरी वाणी को सुनो, तो क्या उसे मिथ्या कह सकते हो? देववाणी सचमुच सुनायी देती है, हम लोग जैसे वार्तालाप कर रहे हैं, ठीक इसी प्रकार से।”

शिष्य ने बिना कोई द्विरुक्त्ति किये स्वामीजी के वाक्यों को शिरोधार्य कर लिया, क्योंकि स्वामीजी की बातों में एक ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि उन्हें बिना माने नहीं रहा जाता था – युक्ति तर्क सब धरे रह जाते थे।

शिष्य ने अब प्रेतात्माओं की बात छेड़ी। “महाराज, जो सब भूत-प्रेतादि योनियों की बात सुनी जाती है, शास्त्रों ने भी जिसका बार बार समर्थन किया है, क्या वह सब सत्य है?”

स्वामीजी – अवश्य सत्य है। क्या जिसको तुम नहीं देखते, वह सत्य नहीं हो सकता? तेरी दृष्टि से बाहर दूर दूर पर कितने ही सहस्रों ब्रह्माण्ड घूम रहे हैंं, तुझे नहीं दीख पड़ते तो क्या उनका अस्तित्व भी नहीं है? भूत-प्रेत हैं तो होने दे, परन्तु इनके झगड़े में अपना मन न लगा। इस शरीर में जो आत्मा है, उसको प्रत्यक्ष करना ही तेरा कार्य है। उसको प्रत्यक्ष करने से भूत-प्रेत सब तेरे दासों के दास हो जायेंगे।

शिष्य – परन्तु महाराज, ऐसा अनुमान होता है कि उनको देखने से पुनर्जन्म पर विश्वास बहुत दृढ़ होता है और परलोक पर कुछ अविश्वास नहीं रहता।

स्वामीजी – तुम सब तो महावीर हो, क्या तुम्हें भी परलोक पर विश्वास करने के लिए भूत-प्रेतों का दर्शन आवश्यक है? कितने शास्त्र पढ़े कितने विज्ञान पढ़े, इस विराट विश्व के कितने गूढ़ तत्त्व जाने, इतने पर भी आत्मज्ञान लाभ करने के लिए क्या भूत-प्रेतों का दर्शन करना ही पड़ेगा? छिः! छिः!!

शिष्य – अच्छा, महाराज, आपने स्वयं कभी भूत-प्रेतों को देखा है?

स्वामीजी – स्वजनों में से कोई व्यक्ति प्रेत होकर कभी कभी मुझको दर्शन देता था। कभी दूर दूर के समाचार भी लाता था। परन्तु परीक्षा करके देखा कि उसकी सब बातें सदा ठीक नहीं होती थीं। पर किसी एक विशेष तीर्थ पर जाकर ‘वह मुक्त हो जाय’ ऐसी प्रार्थना करने पर उसका दर्शन फिर मुझे नहीं हुआ।

‘श्राद्धादिकों से प्रेतात्माओं की तृप्ति होती है या नहीं?’ – अब शिष्य के इस प्रश्न को पूछने पर स्वामीजी बोले, “यह कुछ असम्भव नहीं है।” शिष्य के इस विषय की युक्ति या प्रमाण माँगने पर स्वामीजी ने कहा, “और किसी दिन इस प्रसंग को भलीभाँति समझा दूँगा। श्राद्धादि से प्रेतात्माओं की तृप्ति होती है, इस विषय की अखण्डनीय युक्तियाँ हैं। आज मेरा शरीर कुछ अस्वस्थ है, फिर किसी और दिन इसको समझाऊँगा।” परन्तु फिर शिष्य को स्वामीजी से यह प्रश्न करने का अवसर उसके जीवन भर में नहीं मिला।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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