धर्मस्वामी विवेकानंद

निर्विकल्प समाधि पर स्वामी विवेकानंद का व्याख्यान

स्थान – बेलुड़ – किराये का मठ

वर्ष – १८९८ ईसवी

विषय – निर्विकल्प समाधि पर स्वामीजी का व्याख्यान – इस समाधि से कौन लोग फिर संसार में लौटकर आ सकते हैं – अवतारी पुरुषों की अद्भुतशक्ति पर व्याख्यान और उस विषय पर युक्ति व प्रमाण – शिष्य द्वारा स्वामीजी की पूजा।

आज दो दिन से शिष्य बेलुड़ में नीलाम्बर बाबू के भवन में स्वामीजी के पास है। कलकत्ते से अनेक युवकों का इस समय स्वामीजी के पास आना जाना रहने के कारण आजकल मानो मठ में बड़ा उत्सव हो रहा है। कितनी धर्म-चर्चा, कितना साधन भजन का उद्यम तथा दीनदुःखियों का कष्ट दूर करने के कितने ही उपायों की आलोचना हो रही है! कितने ही उत्साही संन्यासी महादेवजी के गणों के समान स्वामीजी की आज्ञा का पालन करने को उत्सुकता के साथ खड़े हैं। स्वामी प्रेमानन्दजी ने श्रीरामकृष्ण की सेवा का भार ग्रहण किया है। मठ में पूजा और प्रसाद के लिए बड़ा आयोजन है। समागत सज्जनों के लिए प्रसाद सर्वदा तैयार है।

आज स्वामीजी ने शिष्य को अपने कमरे में रात को रहने की आज्ञा दी है। स्वामीजी की सेवा करने का अधिकार पाकर शिष्य का हृदय आज आनन्द से परिपूर्ण है। प्रसाद पाकर वह स्वामीजी की चरणसेवा कर रहा है। इतने में स्वामीजी बोले, “ऐसे स्थान को छोड़कर तुम कलकत्ता जाना जाहते हो? यहाँ कैसा पवित्र भाव, कैसी गंगाजी की वायु, कैसा सब साधुओं का समागम है! ऐसा स्थान क्या और कहीं ढूँढ़ने से मिलेगा?”

शिष्य – महाराज, बहुत जन्मों की तपस्या से आपका सत्संग मुझे मिला है। अब कृपया ऐसा उपाय कीजिये जिससे मैं फिर मायामोह में न पँसू। अब प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए मन कभी कभी बड़ा व्याकुल हो उठता है।

स्वामीजी – मेरी भी अवस्था ऐसी हुई थी। काशीपुर के उद्यान में एक दिन श्रीगुरुदेव से बड़ी व्याकुलता से अपनी प्रार्थना प्रकट की थी। उस दिन सन्ध्या के समय ध्यान करते करते अपने शरीर को खोजा, तो नहीं पाया। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर बिलकुल है ही नहीं। चन्द्र, सूर्य, देश, काल, आकाश सब मानो एकाकार होकर कहीं लय हो गये हैं। देहादि बुद्धि का प्रायः अभाव हो गया था और ‘मैं’ भी बस लय-सा ही हो रहा था! परन्तु कुछ ‘अहं’ था, इसीलिए उस समाधि-अवस्था से लौट आया था। इस प्रकार समाधिकाल में ही ‘मैं’ और ‘ब्रह्म’ में भेद नहीं रहता, सब एक हो जाता है; मानो महासमुद्र – जल ही जल और कुछ नहीं है; भाव और भाषा का अन्त हो जाता है। ‘अवाङ्मनसोगोचरम्’ जो शास्त्र-वाक्य है, उसकी उपलब्धि इसी समय होती है। नहीं तो जब साधक ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा विचार करता है या कहता है तब भी ‘मैं’ और ‘ब्रह्म’ ये दो पदार्थ पृथक् रहते हैं अर्थात् द्वैतबोध रहता है। उसी अवस्था को फिर प्राप्त करने की मैने बारम्बार चेष्टा की, परन्तु पा न सका। श्रीगुरुदेव से कहने पर वे बोले, ‘उस अवस्था में दिनरात रहने से माता भगवती का कार्य तुमसे नहीं होगा। इसलिए उस अवस्था को फिर प्राप्त न कर सकोगे, कार्य का अन्त होने पर वह अवस्था फिर आ जायगी।’

शिष्य – तो क्या निःशेष समाधि या ठीक ठीक निर्विकल्प समाधि होने पर, कोई फिर अहंज्ञान का आश्रय लेकर द्वैतभाव के राज्य में – इस संसार में – नहीं लौट सकता?

स्वामीजी – श्रीरामकृष्णजी कहा करते थे कि एकमात्र अवतारी पुरुष ही जीव की मंगल कामना कर ऐसी समाधि से लौट सकते हैं। साधारण जीवों का फिर व्युत्थान नहीं होता; केवल इक्कीस दिन तक जीवित अवस्था में रहने के बाद उनके शरीर सूखे पत्ते के समान संसाररूपी वृक्ष से झड़कर गिर पड़ते हैं।

शिष्य – मन के विलुप्त होने पर जब समाधि होती है, मन की जब कोई लहर नहीं रह जाती, तब फिर विक्षेप अर्थात् अहंज्ञान का आश्रय लेकर संसार में लौटने की क्या सम्भावना है? जब मन ही नहीं रहा तब कौन या किसलिए समाधि अवस्था को छोड़कर द्वैतराज्य में उतरकर आयेगा?

स्वामीजी – वेदान्तशास्त्रों का अभिप्राय यह है कि निःशेष निरोधसमाधि से पुनरावृत्ति नहीं होती; यथा – ‘अनावृत्तिः शब्दात्।’ परन्तु अवतारी लोग जीवों के मंगल के निमित्त एकआध सामान्य वासना रख लेते हैं। उसी आश्रय से ज्ञानातीत अद्वैतभूमि (superconscious state) से ‘मैं-तुम’ की ज्ञानमूलक द्वैतभूमि (conscious state) में आते हैं।

शिष्य – किन्तु महाराज, यदि एकआध वासना भी रह जाय, तो उसे निःशेष निरोध समाधि अवस्था कैसे कह सकते हैं? क्योंकि शास्त्र में कहा है कि निःशेष निर्विकल्प समाधि में मन की सब वृत्तियाँ, सब वासनाएँ निरुद्ध या ध्वंस हो जाती हैं।

स्वामीजी – महाप्रलय के पश्चात् तो फिर सृष्टि ही कैसे होती है? महाप्रलय में भी तो सब कुछ ब्रह्म में लय हो जाता है। परन्तु लय होने पर भी शास्त्र में सृष्टिप्रसंग सुनने में आता है – सृष्टि और लय प्रवाहाकार से पुनः चलते रहते हैं। महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि और लय के पुनरावर्तन के समान अवतारी पुरुषों का निरोध और व्युत्थान भी अप्रासंगिक क्यों होगा?

शिष्य – क्या यह नहीं हो सकता है कि लयकाल में पुनः सृष्टि का बीज ब्रह्म में लीनप्राय रहता है और वह महाप्रलय या निरोध समाधि नहीं है, वरन् वह केवल सृष्टि का बीज तथा शक्ति का (आप जैसा कहते हैं) एक अव्यक्त्त (potential) आकार मात्र धारण करना है।

स्वामीजी – इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि जिस ब्रह्म में किसी गुण का अस्तित्व नहीं है, जो निर्लेप और निर्गुण है, उसके द्वारा इस सृष्टि का बहिर्गत (projected) होना कैसे सम्भव है। शिष्य – यह बहिर्गमन (projection) तो यथार्थ नहीं। आपके वचन के उत्तर में शास्त्र ने कहा है कि ब्रह्म से सृष्टि का विकास मरुस्थल में मृगजल के समान दिखायी देता है, परन्तु वास्तव में सृष्टि आदि कुछ भी नहीं है। भाव-वस्तु ब्रह्म में अभाव-मिथ्या-रूप माया के कारण ऐसा भ्रम दिखायी देता है।

स्वामीजी – यदि सृष्टि ही मिथ्या है, तो तुम जीव की निर्विकल्प समाधि और समाधि से व्युत्थान को भी मिथ्या कहकर मान सकते हो। जीव स्वतः ही ब्रह्मस्वरूप है। उसके फिर बन्धन की अनुभूति कैसी? ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसा जो तुम अनुभव करना चाहते हो, वह भी तो भ्रम ही हुआ, क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि तुम तो पहले से ही ब्रह्म हो। अतएव ‘अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि’ – समाधिलाभ करना जो तुम चाहते हो, वही तुम्हारा बन्धन है।

शिष्य – यह तो बड़ी कठिन बात हैं। यदि मैं ब्रह्म ही हूँ, तो सर्वदा इस विषय की अनुभूति क्यो नहीं होती?

स्वामीजी – यदि ‘मैं-तुम’ के राज्य द्वैत-भूमि (conscious plane) में इस बात का अनुभव करना हो, तो एक करण या जिससे अनुभव हो सके, ऐसे एक पदार्थ (some instrumentality) की आवश्यकता है। मन ही हमारा वह करण है, परन्तु मन पदार्थ तो जड़ है। उसके पीछे जो आत्मा है उसकी प्रभा से मन चैतन्यवत् केवल प्रतीत होता है। इसलिए पंचदशीकार ने कहा है, ‘चिच्छायावेशतः शक्तिश्चेतनेव विभाति सा’ अर्थात् चित्स्वरूप आत्मा की परछाई या प्रतिबिम्ब के आदेश से शक्ति को चैतन्यमयी कहकर अनुमान करते हैं और इसीलिए मन को भी चेतन पदार्थ कहकर मानते हैं। अतएव यह निश्चित है कि मन के द्वारा शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को नहीं जान सकते। मन के परे पहुँचना है। मन के परे तो कोई करण नहीं है – एक आत्मा ही है। अतएव जिसको जानना चाहते हो, वही फिर करणस्थानीय हो जाता है। कर्ता, कर्म, करण सब एक हो जाता है। इसीलिए श्रुति कहती है, ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’। इसका निचोड़ यह है कि द्वैतभूमि (conscious plane) के ऊपर ऐसी एक अवस्था है जहाँ कर्ता, कर्म, करणादि में कोई द्वैतभाव नहीं है। मन के निरोध होने से वह प्रत्यक्ष होती है। और कोई उचित भाषा न होने के कारण इस अवस्था को ‘प्रत्यक्ष करना’ कह रहा हूँ; नहीं तो इस अनुभव को प्रकाशित करने के लिए कोई भाषा नहीं है। श्रीशंकराचार्य इसको ‘अपरोक्षानुभूति’ कह गये हैं। ऐसी प्रत्यक्षनुभूति या अपरोक्षानुभूति होने पर भी अवतारी लोग नीचे द्वैतभूमि पर उतरकर उसकी कुछ कुछ झलक दिखा देते हैं। इसीलिए कहते हैं कि आप्तपुरुषों के अनुभव से ही वेदादि शास्त्रों की उत्पत्ति हुई है। साधारण जीवों की अवस्था उस नमक के पुतले के समान है, जो समुद्र को नापने गया था और स्वयं ही उसमें घुल गया, समझे न? तात्पर्य यह है कि तुम्हें इतना ही जानना होगा कि तुम वही नित्य ब्रह्म हो। तुम तो पहले से ही वह हो, केवल एक जड़ मन (जिसको शास्त्र ने माया कहा है) बीच में पड़कर तुम्हें इसको समझने नहीं देता। सूक्ष्म जड़रूप उपादानों द्वारा निर्मित मन नामक पदार्थ के प्रशमित होने पर आत्मा अपनी प्रभा से आप ही उद्भासित होती है। यह माया और मन मिथ्या है, इसका एक प्रमाण यह है कि मन स्वयं जड़ और अन्धकारस्वरूप है जो इसके पीछे विद्यमान आत्मा की प्रभा से चैतन्यवत् प्रतीत होता है। जब इसको समझ जाओगे तो एक अखण्ड चैतन्य में मन लय हो जायगा; तभी ‘अयमात्मा ब्रह्म’ की अनुभूति होगी।

यहाँ पर स्वामीजी बोले, “क्या तुझे नींद आ रही है? तो जा सो जा।” शिष्य स्वामीजी के पास के ही बिछौने पर सो गया। रात में स्वामीजी नींद अच्छी न आने के कारण बीच बीच में उठकर बैठने लगे। शिष्य भी उठकर उनकी आवश्यक सेवा करने लगा। इस प्रकार रात बीत गयी, पर रात्रि के अन्तिम प्रहर में एक अद्भुत-सा स्वप्न देखकर निद्रा भंग होने पर वह बड़े आनन्द से उठा। प्रातःकाल गंगास्नान करके जब शिष्य आया, तो देखा कि स्वामीजी मठ के निचले मंजिल में एक बेंच पर पूर्व की ओर मुँह किये बैठे हैं। रात्रि के स्वप्न को स्मरण कर स्वामीजी के चरणकमलों के पूजन के लिए उसका मन व्याकुल हुआ और उसने अपना अभिप्राय प्रकट कर उनकी अनुमति के लिए प्रार्थना की। उसकी व्याकुलता को देख स्वामीजी सम्मत हो गये; फिर शिष्य ने कुछ धतूरे के फूल संग्रह किये और स्वामीजी के शरीर में महाशिव के अधिष्ठान ध्यान करके विधिपूर्वक उनकी पूजा की।

पूजा के अन्त में स्वामीजी शिष्य से बोले, “तूने तो पूजा कर ली, परन्तु बाबूराम (स्वामी प्रेमानन्दजी) आकर तुझे खा जायेगा! तूने कैसे श्रीरामकृष्ण के पूजापात्र में मेरे पाँव को रखकर पूजा की?” ये बातें हो ही रही थीं कि स्वामी प्रेमानन्दजी वहाँ आ पहुँचे और स्वामीजी उनसे बोले, “देखो, आज इसने कैसा एक काण्ड रचा है! श्रीरामकृष्ण के पूजापात्र में फूलचन्दन लेकर इसने मेरी पूजा की।” स्वामी प्रेमानन्दजी हँसने लगे और बोले, “बहुत अच्छा किया, तुम और श्रीरामकृष्ण क्या अलग अलग हो?” यह बात सुनकर शिष्य निर्भय हो गया।

शिष्य एक कट्टर हिन्दू था। अखाद्य का तो कहना ही क्या, किसी का छुआ हुआ द्रव्य तक भी ग्रहण नहीं करता था, इसलिए स्वामीजी उसको कभी कभी ‘पण्डितजी’ कहकर पुकारते थे। प्रातःकालीन जलपान के समय विलायती बिस्कुट इत्यादि खाते खाते स्वामीजी स्वामी सदानन्द से बोले, “जाओ, ‘पण्डितजी’ को तो पकड़ लाओ।” आदेश पाकर शिष्य के वहाँ पहुँचते ही स्वामीजी ने शिष्य को इन द्रव्यों में से थोड़ा थोड़ा प्रसादरूप से खाने को दिया। बिना दुविधा में पड़े शिष्य को वह सब ग्रहण करते देखकर स्वामीजी हँसते हुए बोले, “आज तुमने क्या खाया जानते हो? ये सब मुर्गी के अण्डे से बनी हुई हैं।” इसके उत्तर में उसने कहा, “जो भी हो मुझे जानने की कोई आवश्यकता नहीं, आपके प्रसादरूप अमृत को खाकर मैं तो अमर हो गया।” यह सुनकर स्वामीजी बोले, “मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आज से तुम्हारी जाति, वर्ण, आभिजात्य, पाप, पुण्यादि अभिमान सदा के लिए दूर हो जायँ।”

स्वामीजी की उस दिन की अयाचित अपार दया को स्मरण कर शिष्य समझता है कि उसका मानवजन्म सार्थक हो गया।

तीसरे पहर अकाउन्टन्ट जनरल बाबू मन्मथनाथ भट्टाचार्य स्वामीजी के पास आये। अमरीका जाने से पहले स्वामीजी मद्रास में इन्हीं के भवन में अतिथि होकर बहुत दिन रहे थे और तभी से वे स्वामीजी के प्रति बहुत श्रद्धा-भक्ति रखते थे। भट्टाचार्य महाशय पाश्चात्य देश और भारतवर्ष के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न करने लगे। स्वामीजी ने उन सब प्रश्नों के उत्तर देकर और अनेक प्रकार से सत्कार करके कहा, “एक दिन तो यहाँ ठहर ही जाइये।” मन्मथ बाबू यह कहकर कि “और किसी दिन आकर ठहरूँगा” बिदा हुए और सीढ़ियों से नीचे उतरते समय किसी एक मित्र से कहने लगे, “हम यह मद्रास में पहले ही जान गये थे कि वे पृथ्वी पर एक महान् कार्य किये बिना न रहेंगे। ऐसी सर्वतोमुखी प्रतिभा मनुष्य में तो पायी नहीं जाती।”

स्वामीजी ने मन्मथ बाबू के साथ गंगा के किनारे तक जाकर उनको अभिवादन करके बिदा किया और कुछ देर तक मैदान में टहलकर अपने कमरे में विश्राम करने के लिए चले गये।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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