वक्रतुण्ड – Vakratunda (गणेश जी का प्रथम रूप)
वक्रतुण्ड अवतार भगवान गणेश के अष्टविनायक (Ashtavinayak Ganpati) रूपों में गणेश जी का प्रथम अवतार है। इस अवतार में भगवान गणेश की सूंड बायीं ओर को मुड़ी हुई है। यह अवतार मत्सरासुर के दमन के लिए हुआ था। यह अवतार यह दर्शाता है कि भगवान गणेश सभी प्रकार के पापों और अत्याचारों का नाश करने के लिए सक्षम हैं।
वक्रतुण्डावतारश्च देहानां ब्रह्मधारकः।
मत्सरासुरहन्ता स सिंहवाहनगः स्मृतः॥
भगवान् श्रीगणेश का ‘वक्रतुण्डावतार’ (Vakratunda Avatar) ब्रह्मरूप से सम्पूर्ण शरीरों को धारण करने वाला, मत्सरासुर का वध करने वाला तथा सिंहवाहन पर चलने वाला है।
मुद्गल पुराण के अनुसार भगवान् गणेश के अनेकों अवतार हैं, जिनमें आठ अवतार प्रमुख हैं। पहला अवतार भगवान् वक्रतुंड का है। ऐसी कथा है कि देवराज इन्द्र के प्रमाद से मत्सरासुर का जन्म हुआ। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से भगवान् शिव के पञ्चाक्षरी मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) की दीक्षा प्राप्त कर भगवान् शंकर की कठोर तपस्या की। शंकर जी ने प्रसन्न होकर उसे अभय होने का वरदान दिया।
वरदान प्राप्त कर जब मत्सरासुर घर लौटा तब शुकाचार्य ने उसे दैत्यों का राजा बना दिया। दैत्य मन्त्रियों ने शक्तिशाली मत्सर को विश्व-विजय की सलाह दी। शक्ति और पद के मद से चूर मत्सरासुर ने अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वी के राजाओं पर आक्रमण कर दिया। कोई भी राजा महान् असुर के सामने टिक नहीं सका। कुछ पराजित हो गये और कुछ प्राण बचाकर कन्दराओं में छिप गये। इस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी पर मत्सरासुर का शासन हो गया।
पृथ्वी को अपने अधीन कर उस महापराक्रमी दैत्य ने क्रमशः पाताल और स्वर्ग पर भी चढ़ाई कर दी। शेष ने विनयपूर्वक उसके अधीन रहकर उसे कर देना स्वीकार कर लिया। वरुण, कुबेर, यम आदि समस्त देवता उससे पराजित होकर भाग गये। इन्द्र भी उसके सम्मुख नहीं टिक सके। मत्सरासुर स्वर्ग का भी सम्राट हो गया।
असुरों से दुःखी देवता ब्रह्मा और भगवान विष्णु को साथ लेकर कैलास पहुँचे। उन्होंने भगवान शंकर को दैत्यों के अत्याचार का सारा समाचार सुनाया। भगवान् शंकर ने मत्सरासुर के इस दुष्कर्म की घोर निन्दा की। यह समाचार सुनकर मत्सरासुर ने कैलास पर भी आक्रमण कर दिया। भगवान शिव से उसका घोर युद्ध हुआ। परन्तु, त्रिपुरारि भगवान शिव भी उसके समक्ष नहीं ठहर सके। उसने उन्हें भी कठोर पाश में बाँध लिया और कैलास का स्वामी बनकर वहीं रहने लगा। चारों तरफ़ दैत्यों का अत्याचार होने लगा।
दुःखी देवताओं के सामने मत्सरासुर के विनाश का कोई मार्ग नहीं बचा। वे अत्यन्त चिन्तित और दुर्बल हो रहे थे। उसी समय वहाँ भगवान दत्तात्रेय आ पहुँचे। उन्होंने देवताओं को वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मन्त्र (गं) का उपदेश दिया। समस्त देवता भगवान वक्रतुंड के ध्यान के साथ एकाक्षरी मन्त्र का जप करने लगे।
उनकी आराधना से सन्तुष्ट होकर तत्काल फलदाता वक्रतुण्ड प्रकट हुए। उन्होंने देवताओं से कहा – “आप लोग निश्चिन्त हो जाएँ। मैं मत्सरासुर के गर्व को चूर-चूर कर दूँगा।”
भगवान् वक्रतुंड ने अपने असंख्य गणों के साथ मत्सरासुर के नगर को चारों तरफ़ से घेर लिया। भयंकर युद्ध छिड़ गया। पाँच दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। मत्सरासुर के सुन्दरप्रिय एवं विषयप्रिय नामक दो पुत्र थे। वक्रतुण्ड के दो गणों ने उन्हें मार डाला। पुत्र-वध से व्याकुल मत्सरासुर रणभूमि में उपस्थित हुआ। वहाँ उसने भगवान वक्रतुंड को तमाम अपशब्द कहे। भगवान वक्रतुण्ड ने प्रभावशाली स्वर में कहा, ‘यदि तुझे प्राण प्रिय हैं तो शस्त्र रखकर मेरी शरण में आ जा। नहीं तो निश्चित मारा जाएगा’।
वक्रतुण्ड के भयानक रूप को देखकर मत्सरासुर अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसकी सारी शक्ति क्षीण हो गयी। भय के मारे वह काँपने लगा तथा विनयपूर्वक वक्रतुंड की स्तुति करने लगा। उसकी प्रार्थना से सन्तुष्ट होकर दयामय वक्रतुण्ड ने उसे अभय प्रदान करते हुए अपनी भक्ति का वरदान दिया तथा शान्त जीवन बिताने के लिये पाताल जाने का आदेश दिया। मत्सरासुर से निश्चिन्त होकर देवगण वक्रतुंड की स्तुति करने लगे। देवताओं को स्वतन्त्र कर प्रभु वक्रतुण्ड ने उन्हें भी अपनी भक्ति प्रदान की ।