वैदिक उपदेश : तात्त्विक और व्यावहारिक – स्वामी विवेकानंद
जब स्वामी विवेकानंद के अल्मोड़े में ठहरने की अवधि समाप्त हो रही थी, उस समय उनके वहाँ के मित्रों ने उनसे प्रार्थना की कि आप कृपया एक भाषण हिन्दी में दें। स्वामीजी ने उनकी प्रार्थना पर विचार कर उन्हें अपनी स्वीकृति दे दी। हिन्दी भाषा में व्याख्यान देने का उनका वह पहला ही अवसर था।
स्वामी जी ने पहले धीरे-धीरे बोलना शुरू किया, परन्तु शीघ्र ही वे अपने विषय पर आ गये और थोड़ी देर में उन्होंने यह अनुभव किया कि जैसे जैसे वे बोलते जाते थे, उनके मुँह से उपयुक्त शब्द तथा वाक्य निकलते जाते थे। वहाँ पर कुछ उपस्थित लोग, जो शायद यह अनुमान करते थे कि हिन्दी भाषा में व्याख्यान देने में शब्दों की बड़ी कठिनाई पड़ती है, कहने लगे कि इस व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द की पूर्ण विजय रही और सम्भवतः वह अपने ढंग का अद्वितीय था। उनके व्याख्यान में हिन्दी के अधिकृत प्रयोग से यह भी सिद्ध हो गया कि वत्तृत्वकला की दिशा में इस भाषा में स्वप्नातीत सम्भावनाएँ हैं।
स्वामीजी ने और एक भाषण इंग्लिश क्लब में अँग्रेजी में भी दिया था। उस सभा के अध्यक्ष थे गुरखा रेजिमेन्ट के कर्नल पुली। उस भाषण का विषय था, ‘वैदिक उपदेश : तात्त्विक और व्यावहारिक’, जिसका सारांश इस प्रकार है :
पहले स्वामीजी ने इस बात का ऐतिहासिक वर्णन किया कि किसी जंगली जाति में उसके ईश्वर की उपासना किस प्रकार बढ़ती है तथा वह जाति ज्यों ज्यों अन्य जातियों को जीतती जाती है, उस ईश्वर की उपासना भी फैलती जाती है। इसके बाद उन्होंने वेदों के स्वरूप एवं उनकी विशेषताओं तथा शिक्षाओं का संक्षेप में वर्णन किया और फिर आत्मा के विषय पर कुछ प्रकाश डाला। इस सिलसिले में पाश्चात्य प्रणाली से तुलना करते हुए उन्होंने बतलाया कि यह प्रणाली धार्मिक तथा मौलिक महत्त्व के रहस्यों का उत्तर बाह्य जगत् में ढूँढ़ने की चेष्टा करती है, जबकि प्राच्य प्रणाली इन सब बातों का समाधान बाह्य प्रकृति में न पाकर उसे अपनी अन्तरात्मा में ही ढूँढ़ निकालने की चेष्टा करती है। उन्होंने इस बात का ठीक ही दावा किया है कि हिन्दू जाति को ही इस बात का गौरव है कि केवल उसी ने अन्तर्निरीक्षण प्रणाली को खोज निकाला और यह उपाय उस जाति की अपनी चीज तथा विशेषता है। इसी जाति ने मानवसमाज को आध्यात्मिकता की अमूल्य निधि भी दी है जो उसी प्रणाली का फल है। स्वभावतः इस विषय के बाद, जो किसी भी हिन्दू को अत्यन्त प्रिय है, स्वामीजी आध्यात्मिक गुरू होने के नाते उस समय मानो आध्यात्मिकता के शिखर पर ही पहुँच गये, जब वे आत्मा तथा ईश्वर के सम्बन्ध की चर्चा करने लगे, जब यह दर्शाने लगे कि आत्मा ईश्वर से एकरूप हो जाने के लिए कितनी लालायित रहती है तथा अन्त में किस प्रकार ईश्वर के साथ एकरूप हो जाती है। और कुछ समय के लिए सचमुच ऐसा ही भास हुआ कि वक्त्ता, वे शब्द, श्रोतागण तथा सभी को अभिभूत करनेवाली भावना मानो सब एकरूप हो गये हों। ऐसा कुछ भान ही नहीं रह गया कि ‘मैं’ या ‘तू’ अथवा ‘मेरा’ या ‘तेरा’ कोई चीज है। छोटी छोटी टोलियाँ जो उस समय वहाँ एकत्र हुई थी, कुछ समय के लिए अपने अलग अलग अस्तित्व को भूल गयी तथा उस महान् आचार्य के श्रीमुख से निकले हुए शब्दों द्वारा प्रचण्ड आध्यात्मिक तेज में एकरूप हो गयीं, वे सब मानो मन्त्रमुग्ध से रह गये।
जिन लोगों को स्वामीजी के भाषण सुनने का बहुधा अवसर प्राप्त हुआ है, उन्हें इस प्रकार के अन्य कई अवसरों का भी स्मरण हो आएगा, जब वे वास्तव में जिज्ञासु तथा ध्यानमग्न श्रोताओं के सम्मुख भाषण देनेवाले स्वयं स्वामी विवेकानन्द नहीं रह जाते थे, श्रोताओं के सब प्रकार के भेदभाव तथा व्यक्तित्व विलुप्त हो जाते थे, नाम और रूप नष्ट हो जाते थे तथा केवल वह सर्वव्यापी आत्मतत्त्व रह जाता था, जिसमें श्रोता, वक्त्ता तथा उच्चारित शब्द बस एकरूप होकर रह जाते थे।