स्वामी विवेकानंद के पत्र – घोर गार्हस्थ्य शोक से पीड़ित एक मद्रासी मित्र श्री डी. आर. बालाजी राव को लिखित (23 मई, 1893)
(स्वामी विवेकानंद का घोर गार्हस्थ्य शोक से पीड़ित एक मद्रासी मित्र श्री डी. आर. बालाजी राव को लिखा गया पत्र)
बम्बई,
२३ मई, १८९३
प्रिय बालाजी,
जो दारुण से दारुण विपत्ति मनुष्य पर पड़ सकती है, उसे सहते हुए प्राचीन यहूदी महात्मा ने सत्य ही कहा था, “माता के गर्भ से मैं नग्न आया और नग्न ही लौट रहा हूँ; प्रभु ने दिया और प्रभु ही ले गये, धन्य है, प्रभु का नाम।” इन वचनों में जीवन का रहस्य छिपा है। ऊपरी सतह पर चाहे लहरें उमड़ आयें और आँधी के बवंडर चलें, परन्तु उसके अन्दर, गहराई में अपरिमित शान्ति, अपरिमित आनन्द और अपरिमित एकाग्रता का स्तर है। कहा गया है, ‘शोकातुर व्यक्ति धन्य हैं, क्योंकि वे शान्ति पायेंगे।’ और क्यों पायेंगे? क्योंकि जब कराल काल आता है और पिता की दीन पुकार और माता के विलाप की परवाह न कर हृदय को विदीर्ण कर देता है, जब शोक, ग्लानि और नैराश्य के असह्म बोझ से धरती का अवलम्ब भी विच्छिन्न सा जान पड़ता है, जब मानसिक क्षितिज में असीम विपदा और घोर निराशा का अभेद्य परदा सा पड़ा दिखायी देता है, तब अन्तश्चक्षु के पट खुल जाते हैं और अकस्मात् ज्योति कौंध उठती है, स्वप्न का तिरोभाव होता है और अतीन्द्रिय दृष्टि से ‘सत्’ का महान् रहस्य प्रत्यक्ष दिखलायी देने लगता है। यह सत्य है कि उस बोझ से बहुतेरी दुर्बल नौकाएँ डूब जाती हैं, परन्तु प्रतिभासम्पन्न मनुष्य, जो वीर हैं, जिसमें बल और साहस है, उस समय उस अनन्त, अक्षर, परम आनन्दमय सत्ता या ब्रह्म का स्वयं साक्षात्कार करता है, जो ब्रह्म भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा और पूजा जाता है। वे बेड़ियाँ, जो इस जीवात्मा को दुःखमय भवकूप में बाँधे हुए है, कुछ समय के लिए मानो टूट जाती है और वह निर्बन्ध आत्मा उन्नति-पथ पर आगे बढ़ती है और धीरे-धीरे परमात्मा के सिंहासन तक पहुँच जाती है ‘जहाँ दुष्ट लोग सताना छोड़ देते हैं और थके-मादे विश्राम पाते हैं।’ भाई! दिन-रात यह विनती करना न छोड़ो और दिन-रात यह रट लगाना न छोड़ो –
‘तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।’
‘हमारा धर्म प्रश्न करना नहीं, वरन् कर्म करना और मर जाना है।’ हे प्रभो, तुम्हारा नाम धन्य है! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। भगवन्, हम जानते हैं कि हमें तुम्हारी इच्छा स्वीकार करनी पड़ेगी; भगवन्, हम जानते हैं कि जगदम्बा के हाथों से ही हम दण्ड पा रहे हैं; और ‘मन उसे ग्रहण करने को तैयार है, पर निर्बल शरीर को यह दण्ड असहनीय है।’ हे प्रेममय पिता, जिस शान्तिमय समर्पण का तुम उपदेश देते हो, उसके विरुद्ध यह हृदय की वेदना सतत् संघर्ष करती रहती है। हे प्रभु! तुमने अपने सब परिवार को अपनी आँखों के सामने नष्ट होते देखा और उन्हें बचाने को हाथ न उठाया – ऐसे प्रभु, तुम हमें बल दो। आओ नाथ, तुम हमारे परम गुरु हो, जिसने यह शिक्षा दी है कि सिपाही का धर्म आज्ञा-पालन है, प्रश्न करना नहीं। आओ, हे पार्थसारथी, आओ मुझे भी एक बार वह उपदेश दे जाओ, जो अर्जुन को दिया था कि तुम्हारे प्रति जीवन अर्पित करना ही मनुष्य-जीवन का सार और परम धर्म है, जिसमें मैं भी पूर्व काल की महान् आत्माओं के साथ दृढ़ और शान्त भाव से कह सकूँ, ‘ॐ श्री कृष्णार्पणमस्तु।’
परमात्मा तुम्हें शान्ति प्रदान करे, यही मेरी सतत् प्रार्थना है।
विवेकानन्द