स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (20 अगस्त, 1893)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
ब्रीजी मेडोज,
मैसाचुसेट्स,
मेटकाफ
२० अगस्त, १८९३
प्रिय आलासिंगा,
कल तुम्हारा पत्र मिला। शायद तुम्हें इस बीच मेरा जापान से लिखा हुआ पत्र मिला होगा। जापान से मैं बैंकुवर पहुँचा। मुझे प्रशान्त महासागर के उत्तरी हिस्से से होकर जाना पड़ा। ठण्ड बहुत थी। गरम कपड़ों के अभाव से बड़ी तकलीफ हुई। अस्तु, किसी तरह बैंकुवर पहुँचकर वहाँ से कनाडा होकर शिकागो पहुँचा। वहाँ लगभग बारह दिन रहा। वहाँ प्रायः हर रोज मेला देखने जाता था। वह तो एक विराट् आयोजन है! पूरी तौर से देखने के लिए कम से कम दस दिन जरूरी है। वरदा राव ने जिस महिला से मेरा परिचय करा दिया था, वे और उनके पति शिकागो समाज के बड़े गणमान्य व्यक्ति हैं। उन्होंने मुझसे बहुत अच्छा बर्ताव किया। परन्तु यहाँ के लोग जो विदेशियों का सत्कार करते हैं, वह केवल औरों को दिखाने के ही लिए है; धन की सहायता करते समय प्रायः सभी मुँह मोड़ लेते हैं। इस साल यहाँ भारी अकाल पड़ा है – व्यापार में सभी को नुकसान हो रहा है, इसलिए मैं शिकागो बहुत दिन नहीं ठहरा। शिकागो से मैं बोस्टन आया। लल्लूभाई वहाँ तक मेरे साथ थे। उन्होंने भी मुझसे बड़ा अच्छा बर्ताव किया।…
यहाँ मेरे लिए जो अपरिहार्य व्यय है, वह अत्यधिक है। तुम्हें याद होगा कि तुमने मुझे १७० पौण्ड के नोट और ९ पौण्ड नकद दिये थे। अब १३० पौण्ड ही रह गये हैं! मेरा औसत एक पौण्ड हर रोज खर्च होता है। यहाँ एक चुरट का ही दाम हमारे यहाँ के आठ आने हैं। अमेरिका वाले इतने धनी हैं कि वे पानी की तरह रुपया बहाते हैं, और उन्होंने कानून बनाकर सब चीजों का दाम इतना अधिक रखा है कि दुनिया का और कोई राष्ट्र किसी तरह उस स्तर तक नहीं पहुँच सकता। साधारण कुली भी हर रोज ९-१० रुपये कमाता और इतना ही खर्च करता है। यहाँ आने के पूर्व मैं जो सुनहले स्वप्न देखा करता था, वे अब टूट गये हें। अब मुझे असम्भव अवस्थाओं से संघर्ष करना पड़ता है। सैकड़ों बार इच्छा हुई कि इस देश से चल दूँ और भारत लौट जाऊँ। लेकिन मैं तो दृढ़संकल्प हूँ, और मुझे भगवान् का आदेश मिला है। मेरी दृष्टि में रास्ता नहीं दिखायी देता तो न सही, परन्तु उनकी आँखें तो सब कुछ देख रही हैं। चाहे मरूँ या जिऊँ, उद्देश्य पर अटल रहना ही है।
मैं इस समय बोस्टन के समीप एक गाँव में एक वृद्ध महिला का अतिथि हूँ। मेरी इनसे एकाएक रेलगाड़ी पर पहुचान हुई। इन्होंने मुझे अपने यहाँ आने और रहने का निमन्त्रण दिया। यहाँ पर रहने से मुझे यह सुविधा होती है कि मेरा हर रोज एक पौण्ड के हिसाब से जो खर्च हो रहा था, वह बच जाता है; और उनको यह लाभ होता है कि वे अपने मित्रों को बुलाकर भारत से आया हुआ एक अजीब जानवर दिखा रही हैं! इन सबको सहना ही पड़ेगा। अब मुझे अनाहार, जाड़ा और अपने अनोखे पहनावे के कारण रास्ते के मुसाफिरों की खिल्लियाँ – इन सभी को झेलना ही है। किन्तु, प्रिय वत्स, यह निश्चित जानना कि कोई भी बड़ा काम कठिन परिश्रम बिना नहीं हुआ।…
याद रखो, यह ईसाइयों का देश है और यहाँ किसी और धर्म या मत का कुछ भी प्रभाव मानो है ही नहीं। मुझे संसार के किसी भी मतवादी की शत्रुता का लेशमात्र भय नहीं। मैं तो यहाँ ‘मेरी’-सुत ईसा की सन्तानों के बीच वास करता हूँ। प्रभु ईसा मुझे सहारा देंगे। ये लोग हिन्दू धर्म के उदार मत, और नाजरथ के पैगम्बर पर मेरा प्रेम देखकर बहुत ही आकृष्ट हो रहे हैं। मैं उनसे कहा करता हूँ कि गैलिली के रहनेवाले उस महापुरुष के विरुद्ध मैं कुछ नहीं कहता; सिर्फ जैसे आप लोग ईसा को मानते हैं, वैसे ही साथ-साथ भारतीय महापुरुषों को मानना चाहिए। यह बात वे आदरपूर्वक सुन रहे हैं। अब तक मेरा काम इतना ही बना है कि लोग मेरे बारे में कुछ जान गये हैं एवं चर्चा करते हैं। यहाँ इसी तरह काम शुरू करना होगा। इसमें काफी समय लगेगा, साथ ही धन की भी आवश्यकता है।
जाड़े का मौसम आ रहा है। मुझे सब प्रकार के गरम कपड़े की आवश्यकता होगी, और यहाँ वालों की अपेक्षा हमें अधिक कपड़े की जरूरत है… वत्स, साहस अवलम्बन करो। भगवान् की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न होंगे। विश्वास करो, हमीं बड़े-बड़े काम करेंगे। हम गरीब लोग – जिनसे लोग घृणा करते हैं, पर जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से बड़े-बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है।
अभी हाल में शिकागो में एक बड़ा तमाशा हुआ। कपूरथला के राजा यहाँ पधारे थे, और शिकागो समाज के कुछ लोग उन्हें आसमान पर चढ़ा रहे थे। मेले में राजा के साथ मेरी मुलाकात हुई थी, पर वह तो अमीर आदमी ठहरे – मुझ फकीर के साथ बातचीत क्यों करते! उधर एक सनकी सा, धोती पहने हुए महाराष्ट्र ब्राह्मण मेले में कागज पर नाखून के सहारे बनी हुई तस्वीरें बेच रहा था। उसने अखबारों के संवाददाताओं से उस राजा के विरुद्ध तरह-तरह की बातें कह दी थीं। उसने कहा था कि यह आदमी बड़ी नीच जाति का है, और ये राजा गुलाम के अलावा और कुछ नहीं है और ये बहुधा दुराचारी होते हैं, इत्यादि। और यहाँ के सत्यवादी (?) सम्पादकों ने – जिनके लिए अमेरिका मशहूर है – इस आदमी की बातों को कुछ गुरुत्व देने के लिए अगले दिन के अखबारों में स्तम्भ के स्तम्भ रँग डाले, जिनमें उन्होंने भारत से आये हुए एक ज्ञानी पुरुष का – उनका मतलब मुझसे था – वर्णन किया और मेरी प्रशंसा के पुल बाँधकर मेरे मुँह से ऐसी ऐसी कल्पित बातें निकलवा डालीं कि जिनको मैंने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था; उस महाराष्ट्र ब्राह्मण ने कपूरथला के राजा के सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, उन सबको उन्होंने मेरे ही मुख से निकला हुआ रच दिया। अखबारों ने ऐसी खासी मरम्मत की कि शिकागो समाज ने तुरन्त राजा को त्याग दिया। इन सत्यवादी सम्पादकों ने मेरे नाम पर मेरे देशवासी को धक्का लगाया। इससे यह भी प्रकट होता है कि इस देश में धन या खिताबों की चमक-दमक की अपेक्षा बुद्धि की कदर अधिक है।
कल स्त्री-कारागार की सुपरिन्टेडेंट श्रीमती जान्सन यहाँ पधारी थीं। यहाँ ‘कारागार’ नहीं कहते, वरन् ‘सुधार-शाला’ कहते हैं। मैंने अमेरिका में जो-जो बातें देखी हैं, उनमें से यह एक बड़ी आश्चर्यजनक वस्तु है। कैदियों से कैसा सहृदय बर्ताव किया जाता है, कैसे उनका चरित्र सुधर जाता है और वे लौटकर फिर कैसे समाज के उपयोगी अंग बनते हैं, ये सब बातें इतनी अद्भुत और सुन्दर हैं कि बिना देखे तुम्हें विश्वास न होगा! यह सब देखकर जब मैंने अपने देश की दशा सोची, तो मेरे प्राण बेचैन हो गये। भारतवर्ष में हम लोग गरीबों और पतितों को क्या समझा सकते हैं! उनके लिए न कोई अवसर है, न बचने की राह और न उन्नति के लिए कोई मार्ग ही। भारत के दरिद्रों, पतितों और पापियों का कोई साथी नहीं, कोई सहायता देनेवाला नहीं – वे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, उनकी उन्नति का कोई उपाय नहीं। वे दिन पर दिन डूबते जा रहे हैं। क्रूर समाज उन पर जो लगातार चोटें कर रहा है, उसका अनुभव तो वे खूब कर रहे हैं, पर वे जानते नहीं कि वे चोटें कहाँ से आ रही हैं। वे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। इसका फल है गुलामी। चिन्तनशील लोग पिछले कुछ वर्षों से समाज की यह दुर्दशा समझ रहे हैं, परन्तु दर्भाग्यवश, वे हिन्दू धर्म के मत्थे इसका दोष मढ़ रहे हैं। वे सोचते हैं कि जगत् के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य मालूम हो गया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार भर के सभी प्राणी तुम्हारी आत्मा के विविध रूप हैं। समाज की इस हीनावस्था का कारण है, इस तत्त्व को व्यावहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूति का अभाव – हृदय का अभाव। भगवान् एक बार फिर तुम्हारे बीच बुद्धरूप में आये और तुम्हें गरीबों, दुःखियों और पापियों के लिए आँसू बहाना और उनसे सहानुभूति करना सिखाया, परन्तु तुमने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारे पुरोहितों ने यह भयानक किस्सा गढ़ा कि भगवान् भ्रान्त मत का प्रचार कर असुरों को मोहित करने आये थे। सच है; पर असुर हैं हमीं लोग, न कि वे, जिन्होंने विश्वास किया। और जिस तरह यहूदी लोग प्रभु ईसा का निषेध कर आज सारी दुनिया में सबके द्वारा सताये और दुत्कारे जाकर भीख माँगते हुए फिर रहे हैं, उसी तरह तुम लोग भी, जो भी जाति तुम पर राज्य करना चाहती है, उसीके गुलाम बन रहे हो। हाय अत्याचारियों! तुम जानते नहीं कि अत्चाचार और गुलामी मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गुलाम और अत्याचारी पर्यायवाची हैं।
बालाजी और जी. जी. को उस शाम की बात याद होगी, जब पांडिचेरी में एक पण्डित से समुद्र-यात्रा के विषय पर हमारा वाद-विवाद हुआ था। उसके चेहरे की विकट मुद्रा और उसकी ‘कदापिन’ (हरगिज नहीं), यह बात मुझे सदैव याद रहेगी! वे नहीं जानते कि भारतवर्ष जगत् का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा है, और सारी दुनिया इन तीस करोड़ मनुष्यों को, जो केंचुओं की तरह भारत की पवित्र धरती पर रेंग रहे हैं और एक दूसरे पर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं, घृणा की दृष्टि से देख रही है। समाज की यह दशा दूर करनी होगी – परन्तु धर्म का नाश करके नहीं, वरन् हिन्दू धर्म के महान् उपदेशों का अनुसरण कर और उसके साथ हिन्दू धर्म स्वाभाविक विकसितरूप बौद्ध धर्म की अपूर्व सहृदयता को युक्त कर।
लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान् के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश, सेवा के सन्देश, सामाजिक उत्थान के संदेश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे।
पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और
पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो। प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन् दोष उनका है, जो ढोंगी और दम्भी हैं, जो ‘पारमार्थिक’ और ‘व्यावहारिक’ सिद्धान्तों के रूप में अनेक प्रकार के अत्याचार के अस्त्रों का निर्माण करते हैं।
हताश न होना। याद रखना कि भगवान् गीता में कह रहे हैं, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन – ‘तुम्हारा अधिकार कर्म में है, फल में नहीं।’ कमर कस लो, वत्स, प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। जीवन भर मैं अनेक यन्त्रणाएँ और कष्ट उठाता आया हूँ। मैंने प्राणप्रिय आत्मीयों को एक प्रकार से भुखमरी का शिकार होते हुए देखा है। लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया है और अविश्वास किया है, और ये सब वे ही लोग हैं, जिनसे सहानुभूति करने पर मुझे विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं। वत्स, यह संसार दुःख का आगार तो है, पर यही महापुरुषों के लिए शिक्षालयस्वरूप है। इस दुःख से ही सहानुभूति, धैर्य और सर्वोपरि उस अदम्य दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास होता है, जिसके बल से मनुष्य सारे जगत् के चूर चूर हो जाने पर भी रत्ती भर नहीं हिलता। मुझे उन लोगों पर तरस आता है। वे दोषी नहीं हैं। वे बालक हैं, निरे बच्चे हैं – भले ही समाज में वे बड़े गण्यमान्य समझे जाये। उनकी आँखें कुछ गज के अपने छोटे क्षितिज के परे कुछ नहीं देखतीं और यह क्षितिज है – उनका नित्यप्रति का कार्य, खान-पान, अर्थोपार्जन और वंशवृद्धि। ये सब कार्य घड़ी के काँटे पर सधे होते हैं। इसके सिवा उन्हें और कुछ नहीं सूझता। अहा, कैसे सुखी हैं ये बेचारे! उनकी नींद किसी तरह टूटती ही नहीं! सदियों के अत्याचार के फलस्वरूप जो पीड़ा, दुःख, हीनता, दारिद्र्य की आह भारत-गगन में गूँज रही है, उनसे उनके सुखकर जीवन को कोई जबरदस्त आघात नहीं लगता। युगों के जिस मानसिक, नैतिक और शारीरिक अत्याचार ने ईश्वर के प्रतिमारूपी मनुष्य को भारवाही पशु, भगवती की प्रतिमारूपिणी रमणी को सन्तान पैदा करनेवाली दासी, और जीवन को अभिशाप बना दिया है, उसकी वे कल्पना भी नहीं कर पाते। परन्तु ऐसे भी अनेक मनुष्य हैं, जो देखते हैं, अनुभव करते हैं, और दिलों में खून के आँसू बहाते हैं – जो सोचते हैं कि इनका इलाज है, और किसी भी कीमत पर, यहाँ तक कि अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी इन्हें हटाने को तैयार हैं। और ‘ये ही हैं वे लोग, जिनसे स्वर्ग-राज्य बना है।’ अतएव मित्रों, क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि उच्च स्थान में अवस्थित इन महापुरुषों को उन जघन्य कीड़ों की बकवास सुनने की फुरसत नहीं, जो प्रतिक्षण अपना क्षुद्र विष उगलने के लिए तैयार रहते हैं?
तथोक्त धनिकों पर भरोसा न करो, वे जीवित की अपेक्षा मृत ही अधिक हैं। आशा तुम लोगों से है – जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपरायण हैं। ईश्वर के प्रति आस्था रखो। किसी चालबाजी की आवश्यकता नहीं; उससे कुछ नहीं होता। दुःखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो – वह अवश्य मिलेगी। मैं बारह वर्ष तक हृदय पर यह बोझ लादे और सर में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर-दर घूमा। हृदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया। परन्तु भगवान् अनन्त शक्तिमान है – मैं जानता हूँ, वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु युवकों! मैं गरीबों, मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (भगवान् कृष्ण) के मन्दिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्धावतार-काल में अमीरों का निमन्त्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का निमन्त्रण स्वीकार किया और उसे उबारा; जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महा बलि दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो – उन दीनहीनों और उत्पीड़ितों के लिए, जिनके लिए भगवान् युग युग में अवतार लिया करते हैं, और उन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।
यह एक दिन का काम नहीं, और रास्ता भी अत्यन्त भयंकर कंटकों से आकीर्ण है। परन्तु पार्थसारथी हमारे भी सारथी होने के लिए तैयार हैं – हम यह जानते हैं। उनका नाम लेकर और उन पर अनन्त विश्वास रखकर भारत के युगों से संचित पर्वतकाय अनन्त दुःखराशि में आग लगा दो – वह जलकर राख हो ही जायेगी। तो आओ भाइयों, साहसपूर्वक इसका सामना करो। कार्य गुरुतर है और हम लोग साधनहीन हैं। तो भी हम अमृतपुत्र और ईश्वर की सन्तान हैं। प्रभु की जय हो, हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे, पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। सम्भव है कि मैं यहाँ विफल होकर मर जाऊँ, पर कोई और यह काम जारी रखेगा। तुम लोगों ने रोग जान लिया और दवा भी, अब बस, विश्वास रखो। तथाकथित धनी या अमीर लोगों का रुख मत जोहो – हृदयहीन, कोरे बुद्धिवादी लेखकों और समाचारपत्रों में प्रकाशित उनके निस्तेज लेखों की भी परवाह मत करो। विश्वास, सहानुभूति – दृढ़ विश्वास और ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए! जीवन तुच्छ है, मरण भी तुच्छ है, भूख तुच्छ है और जाड़ा भी तुच्छ है। जय हो प्रभु की! आगे कूच करो – प्रभू ही हमारे सेनानायक हैं। पीछे मत देखो। कौन गिरा, पीछे मत देखो – आगे बढ़ो, बढ़ते चलो! भाइयो, इसी तरह हम आगे बढ़ते जायेंगे, – एक गिरेगा, तो दूसरा वहाँ डट जायेगा।
इस गाँव से मैं कल बोस्टन जा रहा हूँ। वहाँ एक बड़े महिला-क्लब में मुझे व्याख्यान देना है। यह क्लब रमाबाई (ईसाई) को मदद दे रहा है। बोस्टन में जाकर मुझे पहले कुछ कपड़े खरीदने हैं। अगर यहाँ मुझे अधिक दिन रहना है, तो मेरी इस अनोखी पोशाक से काम नहीं चलेगा। रास्ते में मुझे देखने के लिए खासी भीड़ लग जाती है। इसलिए मैं काले रंग का एक लम्बा कोट पहनना चाहता हूँ, सिर्फ व्याख्यान देने के समय के लिए एक गेरुआ पहनावा और पगड़ी रखना चाहता हूँ। क्या करूँ? यहाँ की महिलाएँ यही उपदेश देती हैं। यहाँ इन्हीं की प्रभुता है, बिना इनकी सहानुभूति के काम नहीं चलेगा। यह पत्र तुम्हारे पास पहुँचने से पूर्व ही मेरे पास सिर्फ ६०-७० पौण्ड बच रहेंगे। इसलिए कुछ रुपया भेजने की भरसक कोशिश करना। अगर यहाँ कुछ प्रभाव डालना है, तो यहाँ कुछ दिन ठहरना आवश्यक है। मैं भट्टाचार्य महाशय के लिए फोनोग्राफ न देख सका, क्योंकि मुझे उनका पत्र यहाँ आने पर मिला। यदि फिर शिकागो जाऊँ, तो उसके लिए कोशिश करूँगा। फिर शिकागो जाऊँगा या नहीं, मुझे मालूम नहीं। मेरे वहाँ के मित्रों ने मुझे भारत का प्रतिनिधि बनने के लिए पत्र लिखा है, और वरदा राव ने जिस महाशय से मेरा परिचय करा दिया था, वे यहाँ के मेले के एक संचालक हैं। परन्तु इस समय मैंने इससे इन्कार कर दिया, क्योंकि शिकागो में महीने भर से अधिक रहने से मेरी थोड़ी-सी पूँजी खतम हो जाती।
कनाडा को छोड़ अमेरिका में कहीं रेलगाड़ियों में अलग-अलग दर्जे नहीं हैं, अतः मुझे पहले दर्जे में सैर करनी पड़ी, क्योंकि इसके सिवा दूसरा कोई दर्जा ही नहीं; परन्तु मैं ‘पुलमैन’ नामक अत्युत्तम गाड़ियों में चढ़ने का साहस नहीं करता। इनमें आराम खूब है – खान-पान, नींद यहाँ तक कि स्नान का भी प्रबन्ध रहता है – मानो तुम किसी होटल में हो, पर इनमें खर्च बेहद है।
यहाँ समाज के भीतर घुसकर लोगों को अपना विचार सुनाना बड़ा कठिन काम है। आजकल कोई भी शहर में नहीं है। सभी गर्मी के कारण ठण्डे स्थानों में चले गये हैं। जाड़े में फिर सब शहर में लौट आयेंगे। इसलिए मुझे यहाँ कुछ दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इतने प्रयत्न के बाद मैं इतनी जल्दी इस कार्य को छोड़ना नहीं चाहता। तुम लोग, जितना हो सके, मेरी मदद करो, और यदि तुम मदद न भी कर सको, तो मैं ही आखिर तक कोशिश कर देखूँगा। और यदि मैं यहाँ रोग, जाड़े अथवा भूख से मर भी जाऊँ, तो तुम लोग इस कार्य को अपने हाथों में ले लेना। पवित्रता, सच्चाई और विश्वास चाहिए। मैं जहाँ भी रहूँ, मेरे नाम पर जो कोई पत्र या रुपये आयें, उनको मेरे पास भेजने के लिए मैंने कुक कम्पनी से कह दिया है। ‘रोम एक ही दिन में तो बना नहीं।’ यदि तुम रुपये भेजकर मुझे कम से कम छः महीने यहाँ रख सको, तो आशा है कि सब ठीक हो जायेगा। इस बीच जिस किसी सहायता से मेरा जीवन-निर्वाह हो सके, उसे ढूँढ़ निकालने के लिए भरसक सचेष्ट हूँ। यदि मैं अपने निर्वाह के लिए कोई उपाय ढूँढ़ सका, तो तुम्हें तुरन्त तार दूँगा।
पहले मैं अमेरिका में प्रयत्न करूँगा; यहाँ विफल होने पर इंग्लैण्ड में। यदि वहाँ भी सफल न हुआ, तो भारत लौट आऊँगा तथा ईश्वर के दूसरे आदेश की प्रतीक्षा करूँगा।
रामदास के पिता इंग्लैण्ड गये हैं। वे घर लौटने के लिए आकुल हैं। वे दिल के बड़े अच्छे हैं – केवल बाहरी बर्ताव में बनिये का सा रूखापन है। चिट्ठी पहुँचने में बीस दिन से ज्यादा लगेंगे। न्यू इंग्लैण्ड में अभी से इतना शीत है कि हर रोज शाम-सबेरे आग जलानी पड़ती है। कनाडा में ठण्ड और भी अधिक पड़ती है। वहाँ पर ऐसे मामूली ऊँचे पहाड़ों पर भी मैंने बर्फ गिरते देखी, जैसी कि और कहीं मेरे देखने में नहीं आयी।
इस सोमवार को मैं फिर सालेम में एक बड़ी महिला-सभा में व्याख्यान देने जानेवाला हूँ। उससे और भी अनेक सभा-समितियों से मेरा परिचय हो जायेगा। इस तरह मैं धीरे-धीरे अपना मार्ग प्रशस्त कर सकूँगा। परन्तु ऐसा करने के लिए इस अत्यन्त महँगे देश में बहुत दिन ठहरना पड़ेगा। भारतीय सिक्के का विनिमय-मूल्य चढ़ जाने से यहाँ के लोगों के मन में बड़ी आशंका हो गयी है। बहुत से कारखाने भी बन्द हो गये हैं। इसलिए तत्काल यहाँ से सहायता पाने की आशा करना व्यर्थ है। मुझे और कुछ समय प्रतीक्षा करनी होगी।
अभी अभी मैं दर्जी के पास गया था। जाड़े के कपड़ों के लिए आर्डर दे आया! उसमें ३०० या इससे भी अधिक खर्च लगेगा। फिर भी ये बहुत अच्छे कपड़े न होंगे, कुछ भले लगेंगे, बस, यहाँ की महिलाएँ पुरुषों की पोशाक के बारे में बहुत ही बारीक नजर रखती हैं और इस देश में उनकी प्रभुता है। पादरी लोग इनसे खूब रुपया निकाल लेते हैं। हर वर्ष ये लोग रमाबाई की खूब सहायता करती हैं। यदि तुम लोग मुझे यहाँ रखने के लिए रुपया न भेज सको, तो इस देश से लौट आने के लिए ही कुछ रुपया भेज दो। यदि इस बीच मेरे अनुकूल शुभ खबर होगी, तो मैं लिखूँगा या तार से सूचित करूँगा। समुद्री तार भेजने में प्रति शब्द चार रुपये लगते हैं।
तुम्हारा,
विवेकानन्द