स्वामी विवेकानंद के पत्र – किडी या सिंगारावेलु मुदलियार को लिखित (3 मार्च, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का किडी या सिंगारावेलु मुदलियार को लिखा गया पत्र)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
३ मार्च, १८९४
प्रिय किडी,
मुझे तुम्हारा पत्र मिला था, परन्तु मैं निश्चय न कर सका कि इसका क्या जवाब दूँ। तुम्हारे पिछले पत्र से कुछ आश्वासन मिला।… मैं तुमसे यहाँ तक सहमत हूँ कि विश्वास से एक अद्भुत अन्तर्दृष्टि मिलती है और केवल विश्वास से ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है; पर उससे धर्मान्धता उत्पन्न होकर उन्नति में बाधा पड़ने की आशंका रहती है।
ज्ञानमार्ग अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क तर्क में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम बड़ी ही उच्च वस्तु है, पर निरर्थक भावुकता में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता है।
हमें इन सभी का समन्वय ही अभीष्ट है। श्रीरामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत ही कम आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते हैं। यदि हममें से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सके, तो भी हम उसे सामूहिक रूप में परस्पर एक दूसरे के परिमार्जन, सन्तुलन, आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों के द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।
किसी धर्म को कारगर बनाने के लिए उत्साह आवश्यक है। साथ ही नये-नये सम्प्रदायों की संख्या में वृद्धि के खतरे से सावधान रहना चाहिए।
एक असाम्प्रदायिक सम्प्रदाय बनकर हम इस भय से अपनी रक्षा कर सकते हैं। इसमें एक सम्प्रदाय के सभी गुणावलि होते हुए एक सार्वजनिक धर्म की व्याप्ति भी होती है।
यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, तो भी उसको हम केवल मनुष्य चरित्र में और उसके द्वारा ही जान सकते हैं। श्रीरामकृष्ण के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ और इसलिए हमें उन्हींको केन्द्र बनाकर संगठित होना पड़ेगा। हाँ, हर एक आदमी उनको अपनी-अपनी भावना के अनुसार ग्रहण करे, इसमें कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, चाहे परित्राता या आचार्य, या आदर्श पुरुष अथवा महापुरुष – जो जैसा चाहे। हम न तो सामाजिक समता का प्रचार करते हैं, न विषमता का। पर इतना कहते हैं कि सबको समान अधिकार है, और हम इस पर जोर देते हैं कि हर व्यक्ति को, क्या उसके विचारों में, क्या कार्य में, पूरी स्वतन्त्रता रहे।
हम किसी भी मतावलम्बी को – चाहे वह ईश्वरवादी हो, चाहे सर्वेश्वरवादी, चाहे अद्वैतवादी हो, चाहे बहुईश्वरवादी, चाहे अज्ञेयवादी हो, चाहे अनीश्वरवादी – त्यागना नहीं चाहते। पर यदि वह शिष्य होना चाहे, तो उसे केवल इतना ही करना होगा कि वह अपना चरित्र ऐसा बनाये, कि वह जैसा उदार हो, वैसा ही गम्भीर भी। चरित्र-गठन के बारे में भी हम किसी नैतिक मत को ही ग्रहण करने के लिए नहीं कहते और न खान-पान के सम्बन्ध में ही सभी को एक निर्दिष्ट नियम पर चलने को कहते हैं। हाँ, हम उन कामों को करने से लोगों को मना करते हैं, जिनसे औरों को हानि पहुँचे।
धर्माधर्म का इतना ही लक्षण बताकर आगे हम लोगों को अपने ही विचारों पर निर्भर रहने का उपदेश देते हैं। पाप या अधर्म वही है, जो उन्नति में बाधा डालता हो, या पतन में सहायता करता हो; और धर्म वही है, जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि में सहारा मिले।
इसके बाद कौन सा मार्ग उपयोगी है, जिससे अपना लाभ होगा, यह प्रत्येक व्यक्ति स्वयं सोचे और चुन ले और उसी मार्ग से चले – इस विषय में हम सभी को स्वाधीनता देते हैं। एक के लिए शायद मांस खाना अनुकूल हो, और दूसरे के लिए फल-मूल पथ्य हो। जो जिसका भाव हो, वह उसी राह पर चले। किन्तु जिन आचरणों का पालन उसके अपने लिए हानिकारक है उन आचरणों के अुनयायियों को अपने मार्ग पर लाने का हठ करना तो दूर रहा, उन आचरणों की निन्दा करने का भी उसे कोई अधिकार नहीं। हो सकता है कि कुछ मनुष्यों के लिए विवाह उनके इस उन्नति के मार्ग में सहायक हो, परन्तु वही दूसरों के लिए विशेष हानिकारक हो सकता है। किन्तु इस कारण अविवाहित व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं कि वह विवाहित शिष्य से कहे कि वह गलत राह पर है, फिर उस भाई को अपने नैतिक आदर्श पर जबरदस्ती लाने की बात तो अलग रही।
हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुए सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य की के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला।
हमें विश्वास है कि यही सब धर्मों की नींव है, चाहे कोई उसे जाने या न जाने। और मनुष्य की भौतिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति के सारे इतिहास की व्याख्या यही है कि एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्तरों में से होकर अपने को अभिव्यक्त करती है।
हमें विश्वास है कि यही वेदों का सार है।
हमें विश्वास है कि हर एक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात् ईश्वर समझकर, सोचे और उससे उसी तरह अर्थात् ईश्वर-दृष्टि से बर्ताव करे; उसे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा भी न करे। यह केवल संन्यासी का ही नहीं; वरन् सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।
आत्मा में लिंग या जाति-भेद नहीं है, न उसमें अपूर्णता ही है।
हमें विश्वास है कि सम्पूर्ण वेद, दर्शन, पुराण और तन्त्र में कहीं भी यह बात नहीं है कि आत्मा में लिंग, वर्ण या जाति-भेद है। इसलिए हम उन लोगों से सहमत हैं, जो कहते हैं कि धर्म से समाज-सुधार का क्या सरोकार है? फिर उन्हें भी हमारी इस बात को मानना होगा कि उसी कारण धर्म को भी किसी प्रकार का सामाजिक विधान देने या सब जीवों के बीच वैषम्य के प्रचार करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि इस कल्पित और भयानक विषमता को बिल्कुल मिटा देना ही धर्म का लक्ष्य है।
अगर कोई कहे कि इस विषमता में से गुजरकर ही हम अन्त में समत्व और एकत्व को प्राप्त कर लेंगे, तो हमारा उत्तर यह है जिस धर्म की दुहाई देकर ये बातें कही जाती है, वही बारम्बार कहता है कि कीचड़ से कीचड़ नहीं धुल सकता। मानों अनैतिकता से कोई नैतिक या सच्चरित्र बन सकता है!
सामाजिक विधानों की रचना समाज की अर्थनैतिक अवस्थाओं द्वारा धर्म का अनुमोदन लेकर हुई। धर्म ने यह भारी भूल की कि उसने सामाजिक विषयों में हस्तक्षेप किया। किन्तु उसका अपनी ही बातों का खण्डन करता हुआ यह कथन कितना पाखण्डपूर्ण है कि ‘समाज-सुधार से धर्म का क्या मतलब?’ हाँ, अब हमें इस बात की आवश्यकता हो रही है कि धर्म समाज-सुधारक न बने, और इसीलिए हम यह भी कह देते हैं कि धर्म समाज का व्यवस्थापक न बने। हस्तक्षेप मत करो! अपनी सीमा के भीतर रहो और सब ठीक हो जायगा।
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसा मैं सर्वदा कहा करता हूँ – हस्तक्षेप बन्द करो! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात् हमारा कर्तव्य है, रास्ता साफ कर देना – शेष सब भगवान् ही करते हैं।
इसलिए तुम्हें ये बातें विशेषकर याद रखनी चाहिए कि धर्म का केवल आत्मा से ही काम है, सामाजिक विषयों में उसके हस्तक्षेप का प्रयोजन नहीं। तुम्हें यह भी याद रखना चाहिए कि जो अनिष्ट पहले ही हो चुका है, उस पर भी यही बात पूर्ण रूप से लागू होती है। अब धर्म को समाज से अलग करने की चेष्टा ऐसी ही है जैसे एक आदमी जबरदस्ती किसी दूसरे आदमी की जमीन छीन लेता है और उसके उसकी अपनी जमीन वापस लेने की कोशिश करने पर रोने-धोने लगता है, और मानवीय अधिकार के सिद्धान्तों की पवित्रता की बातें करने लगता है!
पुरोहितों को समाज की प्रत्येक छोटी-छोटी बात में दस्तन्दाजी करने (जो लाखों मनुष्यों के लिए दुःखदायी हो) की क्या आवश्यकता थी?
तुमने मांसभोजी क्षत्रियों की बात उठायी है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खायें या न खायें, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं, जिनको तुम महत् और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किन्होंने लिखी थी? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा, उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्याससूत्र पढ़ो, या किसी से सुन लो। गीता में भक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी के प्रवाह में बाधा खड़ी हो जायेगी? अगर वह ऐसा ही है, तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं!
मुझसे कुछ आशा मत करना, किन्तु जैसा कि मैं तुमको पहले ही लिख चुका हूँ और कह भी चुका हूँ कि मुझे दृढ़ विश्वास है कि मद्रासियों के द्वारा ही भारत की उन्नति होगी। इसीलिए कहता हूँ कि हे मद्रास के युवक वृन्द, सोचो क्या तुममें से कुछ लोग भी इस नूतन भगवान रामकृष्ण को केन्द्र बनाकर इस नये आदर्श के कट्टर अनुयायी बन सकते हो? सामग्री इकट्ठी कर श्रीरामकृष्ण की एक छोटी-सी जीवनी लिखो। सचेत रहना कि उसमें अलौकिक घटनाओं का समावेश न होने पाये, अर्थात् वह जीवनी इस ढंग से लिखी जाय कि वह उनके उपदेशों का एक दृष्टान्त बन जाय। केवल उनकी ही बातें उसमें रहें। खबरदार, मुझे या किसी और जीवित व्यक्ति को उसमें मत लाना। तुम्हारा मुख्य उद्देश्य होगा उनकी शिक्षाओं को जगत् में फैलाना, और वह जीवनी उन्हीं का एक दृष्टान्त होगा। यद्यपि मैं खुद अयोग्य हूँ, तथापि मेरे जिम्मे एक यह विशेष काम था कि जो रत्न की पेटी मुझे सौंपी गयी थी, मैं उसे मद्रास में ले आकर तुम्हारे हाथों में दे दूँ। और तुम्हें ही क्यों? क्योंकि जो लोग पाखण्डी, द्वेषपूर्ण, गुलाम-स्वभाववाले और का-पुरुष हैं। और जिन्हें केवल जड़ वस्तुओं पर विश्वास है, वे कभी कुछ नहीं कर सकते। दाससुलभ ईर्ष्या ही हमारे जातीय चरित्र का धब्बा है। इस ईर्ष्या के कारण स्वयं सर्वशक्तिमान् प्रभु भी कुछ करने में असमर्थ हैं। मेरे बारे में यह समझो कि मुझे जो कुछ करना था, वह सब मैं कर चुका – समझो कि अब मैं मर गया; यही समझो कि सब कामों का भार तुम्हीं पर है। मद्रास के युवकों, समझो कि तुम्हीं इस काम के लिए विधाता द्वारा भेजे हुए हो। काम में लग जाओ, प्रभु तुम्हारा भला करें। मुझे छोड़ दो, मुझे भूल जाओ। केवल इस नये आदर्श, नये सिद्धान्त और नये जीवन का प्रचार करो। किसी के या किसी रीति-रिवाज के विरुद्ध कुछ मत कहना। जाति-भेद के पक्ष या विपक्ष में कुछ मत कहना, और न किसी सामाजिक कुरीति के विरुद्ध ही कुछ कहने की आवश्यकता है। केवल लोगों से यही कहो कि ‘हस्तक्षेप मत करो’ – बस, सब ठीक हो जायेगा।
मेरे वीर, दृढ़ और प्रेमिक आत्मीय जनों! तुम्हें आशीर्वाद।
तुम्हारा,
विवेकानन्द