स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित (17 मार्च, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखा गया पत्र)
डिट्रॉएट,
१७ मार्च, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारा पैकेट मुझे कल मिला। तुमने मोजे नाहक भेजे, मै यहाँ स्वयं ही दो चार जुटा लेता। पर हर्ष की यह बात है कि यह तुम्हारे स्नेह का द्योतक है। मेरा थैला ठसाठस भर गया है। समझ में नहीं आता कि अब मैं कैसे उसे लिए फिरता रहूँ।
आज मैं श्रीमती बैग्ली के यहाँ लौट आया। श्री पामर के यहाँ अधिक दिन रुकने की वजह से वह नाराज थीं। पामर के घर पर दिन बड़े ही आराम से कटे। वे बहुत ही मौजी और सादादिल आदमी हैं, और उन्हें अपने सुखभोगों में और अपने ‘कडुवे स्काच्’ में अत्यधिक रुचि है। लेकिन हैं वे एकदम अकलंक और बच्चों जैसे सरल।
मेरे चले आने से वे बहुत दुःखी थे, लेकिन मैं विवश था। यहाँ एक सुन्दरी तरुणी से मैं दो बार मिला। नाम मैं उसका भूल रहा हूँ। लेकिन इतनी तेज, सुन्दर, आध्यात्मिक एवं असांसारिक! प्रभु उस पर कृपा रखें। आज सबेरे वह श्रीमती मैक्ड्यूवेल के साथ आयी और इतनी सुन्दरता और आध्यात्मिक गभीरता से उसने बातें की कि मैं तो चकित रह गया। वह योगियों के बारे में सब कुछ जानती है और साधना में काफी आगे बढ़ चुकी है!
‘तेरा पथ खोज से परे है ।’ प्रभु उस सीधी-सादी, पवित्र और निर्मल लड़की पर कृपा करें! यह मेरे कठोर और कष्टप्रद जीवन का श्रेष्ठ पुरस्कार है कि समय समय पर तुम जैसी पवित्र और आनन्दित लोगों के दर्शन मुझे हो जाया करते हैं। बौद्धों की एक उदार प्रार्थना है – ‘पृथ्वी के सभी पवित्र मनुष्यों के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ।’ जब भी मैं किसी ऐसी आकृति को देखता हूँ, जिस पर प्रभु अपनी अँगुली से ‘मेरा’ – यह शब्द स्पष्ट रूप से अंकित कर दिये होते हैं तब ही मुझे इस प्रार्थना के सही अर्थ का बोध होने लगता है। तुम अभी जिस प्रकार सुखी हो, कृपाधन्य हो, सत्स्वभाव हो, पवित्र हो, उसी प्रकार सदा बने रहो। इस भयानक संसार के कर्दम व धूलि से तुम्हारे पैरों का कभी स्पर्श न हो। फूलों के से तुम्हारे जन्म की ही भाँति तुम्हारा जीवन और तुम्हारा प्रयाण भी फूलों के से ही हों। निरन्तर तुम्हारे अग्रज की यही प्रार्थना है।
विवेकानन्द