स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – हेल बहनों को लिखित (15 मार्च, 1894)

(स्वामी विवेकानंद का हेल बहनों को लिखा गया पत्र)

डिट्रॉएट,
१५ मार्च, १८९४

प्रिय बच्चियों,

मैं बूढ़े पामर के साथ सानन्द हूँ। वे बड़े प्रसन्नचित्त वृद्ध हैं। पिछले व्याख्यान से मुझे केवल १२७ डॉलर प्राप्त हुए। मैं सोमवार को फिर डिट्रॉएट में व्याख्यान देने वाला हूँ। तुम्हारी माता ने मुझसे लिन की एक महिला को पत्र लिखने के लिए कहा था। मैंने पहले कभी उन्हें नहीं देखा। बिना किसी परिचय के किसी को पत्र लिखना क्या शिष्टाचार है? कृपया इस महिला के बारे में मुझे और कुछ अधिक जानकारी भेजो। लिन है कहाँ? मेरे विषय में यहाँ के एक समाचार-पत्र ने सबसे अजीब बात यह लिखी है, वह “तूफानी हिन्दू” यहाँ आ धमका है और श्री पामर का अतिथि है। श्री पामर हिन्दू हो गये हैं और भारत जा रहे हैं; बस, उनका आग्रह यही है कि दो सुधार हो जाने चाहिए – प्रथम यह कि जगन्नाथजी के रथ में श्री पामर के लाग-हाउस फार्म में पले ‘पर्चरान’ नस्ल के घोड़े जोत दिये जायें, और द्वितीय यह कि हिन्दुओं के पवित्र गोवंश में जरसी नस्ल की गायों को भी सम्मिलित कर लिया जाय।” श्री पामर पर्चरान घोड़ों और जरसी गायों के दिली शौकीन हैं और उनके लाग-हाउस फार्म में दोनों का बाहुल्य है।

प्रथम व्याख्या के लिए समुचित व्यवस्था नहीं हुई थी। हॉल का किराया १५० डॉलर था। मैंने होल्डेन को विदा कर दिया। एक दूसरा व्यक्ति मिल गया है; देखना है, वह उसकी अपेक्षा अच्छी व्यवस्था करता है या नहीं। श्री पामर मुझे दिन भर हँसाते रहते हैं। कल एक और भोज होने जा रहा है। अभी तक सब कुछ ठीक है; परन्तु जब से यहाँ आया हूँ, पता नहीं क्यों, मन बड़ा शोकाकुल रहता है – कारण मुझे नहीं मालूम।

व्याख्यान देते देते और इस प्रकार के निरर्थक वाद से मैं थक गया हूँ। सैकड़ों प्रकार के मानवीय पशुओं से मिलते मिलते मेरा मन अशांत हो गया है। मैं तुम्हें मेरी अपनी रुचि की बात बतला रहा हूँ। मैं लिख नहीं सकता, मैं बोल नहीं सकता, परन्तु मैं गंभीर विचार कर सकता हूँ, और उत्तेजित होने पर अग्न्युद्गार कर सकता हूँ। परन्तु ऐसा कुछ चुने हुए, बहुत ही थोड़े से चुने हुए लोगों के सामने ही होना उचित है। वे यदि चाहें, तो मेरे विचारों का चारों और प्रचार करें। मुझसे कुछ नहीं होता। श्रम का यही उचित विभाजन है; एक ही व्यक्ति सोचने में और साथ ही अपने उन विचारों के प्रसार करने में कभी भी सफल नहीं हुआ। ऐसे विचार मूल्यहीन होते हैं। मनुष्य को विचार करने की स्वाधीनता होनी चाहिए, विशेषतः जबकि वे विचार आध्यात्मिक हों।

स्वाधीनता का यह दावा ही, ‘मनुष्य मशीन नहीं है’ इस बात की प्रतिष्ठा ही चूँकि सारे आध्यात्मिक विचारों का सार है, इसी कारण ऐसे विषयों पर एक यन्त्र की तरह नियमित रूप से विचार करना असम्भव है। हर चीज को यन्त्र के स्तर पर लाने की यह प्रवणता ही पाश्चात्यों की अद्भुत समृद्धि का कारण है और इसी ने धर्म को उनके द्वार से हटा दिया है। जो थोड़ा सा बचा है, उसे भी पाश्चात्यों ने एक सुव्यवस्थित व्यायाम भर में पर्यवसित कर दिया है।

मैं वास्तव में ‘तूफानी’ 2ई नहीं हूँ, प्रत्युत इसका उल्टा हूँ। जिस वस्तु को मैं चाहता हूँ, वह यहाँ नहीं है, और मैं इस ‘तूफानी’ वातावरण को और अधिक काल तक सहन करने में असमर्थ हूँ। पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना, तथा कुछ थोड़े से स्री-पुरुषों को पूर्णता प्राप्त कराना। लोककल्याण के सम्पर्क में मेरी अपनी धरणा के अनुसार मैं चाहता हूँ कि कुछ असाधारण योग्यता के मनुष्यों का विकास करूँ, न कि ‘भैंस के आगे बीन बजाकर समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय करूँ।’

अभी अभी फ्लैग का एक पत्र मिला। मेरे व्याख्यान के कार्य में वह मदद नहीं कर सकता। वह कहता है, ‘पहले बोस्टन जाइए।’ पर जान लो, अब और व्याख्यान देने की मुझे परवाह नहीं। किसी व्यक्ति अथवा श्रोतृमण्डली की सनक के अनुसार मुझे परिचालित कराने का यह प्रयास बड़ा ही नैराश्यजनक है। फिर भी इस देश से बाहर जाने के पहले मैं कम से कम दो-एक रोज के लिए शिकागो वापस जाऊँगा। प्रभु, तुम सबका कल्याण करें।

चिर कृतज्ञ तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!