स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित (1894)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित1 पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
ग्रीष्म काल,
१८९४
प्रिय शशि,
तुम्हारे पत्रों से सब समाचार विदित हुए। बलराम बाबू की स्त्री का शोकसंवाद पढ़कर मुझे बड़ा दुःख हुआ। प्रभु की इच्छा! यह कार्यक्षेत्र है, भोगभूमि नहीं, काम हो जाने पर सभी घर जाएँगे – कोई आगे, कोई पीछे। फकीर चला गया है, प्रभु की इच्छा! श्रीरामकृष्ण महोत्सव बड़ी धूमधाम से समाप्त हुआ, यह अच्छी बात है। उनके नाम का जितना ही प्रचार हो, उतना ही अच्छा। परन्तु एक बात याद रखो : महापुरुष शिक्षा देने के लिए आते हैं, नाम के लिए नहीं; परन्तु उनके चेले उनके उपदेशों को पानी में बहाकर नाम के लिए विवाद करने लग जाते हैं – बस, यही संसार का इतिहास है। लोग उनका नाम लें या न लें, इसकी मुझे जरा भी परवा नहीं, लेकिन उनके उपदेश, उनका जीवन और शिक्षाएँ जिस उपाय से भी संसार में प्रचारित हों, उसके लिए प्राणों का बलिदान तक करने के लिए मैं प्रस्तुत रहूँगा। मुझे अधिक भय पूजागृह का है। पूजागृह की बात बुरी नहीं, परन्तु उसी को यथासर्वस्व समझकर पुराने ढर्रे के अनुसार काम कर डालने की जो एक वृत्ति है, उसी से मैं डरता हूँ। मैं जानता हूँ, वे क्यों पुरानी जीर्ण अनुष्ठान-पद्धतियों को लेकर इतना व्यस्त हो रहे हैं। उनकी अन्तरात्मा उत्कटता से काम चाहती है, किन्तु बाहर जाने का कोई दूसरा रास्ता न होने से वे अपनी सारी शक्ति घण्टी हिलाने जैसे कामों में गँवा रहे हैं।
तुम्हें एक नयी युक्ति बताऊँ। अगर इसे कार्यान्वित कर सको, तो समझूँगा कि तुम सब ‘आदमी’ हो और काम के योग्य हो।…सब मिलकर एक संगठित योजना बनाओ। कुछ कैमरे, कुछ नक्शे, ग्लोब, कुछ रासायनिक पदार्थ आदि की आवश्यकता है। फिर तुम्हें एक बड़े मकान की जरूरत है। इसके बाद कुछ गरीबों को इकठ्ठा कर लेना है। इसके बाद उन्हें ज्योतिष, भूगोल आदि के चित्र दिखलाओ और उन्हें श्रीरामकृष्ण परमहंस के उपदेश सुनाओ। किस देश में क्या-क्या घटित हुआ, और क्या-क्या हो रहा है, यह दुनिया क्या है आदि बातों पर, जिससे उनकी आँखे खुलें, ऐसी चेष्टा करो। वहाँ जितने गरीब अनपढ़ रहते हों, सुबह-शाम या किसी समय भी उनके घर जाकर उन्हें इसकी जानकारी दो। पोथी-पत्रों का काम नहीं – जबानी शिक्षा दो। फिर धीर-धीरे अपने केन्द्र बढ़ाते जाओ – क्या यह कर सकते हो? – या सिर्फ घण्टी हिलाना ही आता है?
तारक दादा की बातें मद्रास से सब मालूम हो गयीं। वहाँ के लोग उनसे बहुत प्रसन्न हैं। तारक दादा, तुम अगर कुछ दिन मद्रास में जाकर रहो, तो बड़ा काम हो। परन्तु वहाँ जाने के पूर्व इस कार्य का श्रीगणेश कर जाओ। स्त्री-भक्त जितनी हैं, क्या विधवाओं को शिष्या नहीं बना सकतीं? और क्या तुम लोग उनके मस्तिष्क में कुछ विद्या नहीं भर सकते? इसके बाद क्या उन्हें घर-घर में श्रीरामकृष्ण का उपदेश देने और साथ ही पढ़ाने-लिखाने के लिए नहीं भेज सकते?…
आओ! तन-मन से काम में लग जाओ। गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने का जमाना गया मेरे बच्चे, समझे? अब काम करना होगा। जरा देखूँ भी, बंगाली के धर्म की दौड़ कहाँ तक होती है। निरंजन ने लाटू के लिए गर्म कपड़े माँगे हैं। यहाँ वाले गर्म कपड़े यूरोप और भारत से मँगाते हैं। जो कपड़े यहाँ खरीदूँगा, वहीं कलकत्ते में चौथाई कीमत में मिलेंगे।… नहीं मालूम कि कब यूरोप जाऊँगा। मेरा सब कुछ अनिश्चित है – यहाँ किसी तरह चल रहा है, बस, इतना ही जानना काफी है।
यह बड़ा मजेदार देश है। गर्मी पड़ रही है, आज सुबह बंगाल के वैशाख जैसी गर्मी थी, तो अभी इलाहाबाद के माघ जैसा जाड़ा। चार ही घण्टे में इतना परिवर्तन! यहाँ के होटलों की बात क्या लिखूँ? न्यूयार्क में एक होटल है, जहाँ ५,००० रुपये तक रोजाना एक कमरे का किराया है, खाने का खर्च अलग! भोग-विलास के मामले में ऐसा देश यूरोप में भी नहीं है। यह देश निस्सन्देह संसार में सबसे धनी है – रुपये पानी की तरह खर्च होते हैं। मैं शायद ही कभी किसी होटल में ठहरता हूँ, प्रायः मैं यहाँ के बड़े-बड़े लोगों के अतिथि के रूप में ही ठहरता हूँ। उनके लिए मैं एक बहुपरिचित व्यक्ति हूँ। प्रायः अब देश भर के आदमी मुझे जानते हैं। अतः जहाँ कहीं जाता हूँ, लोग मुझे खुले हृदय से अपने घर में अतिथि बना लेते हैं। शिकागो में भी हेल का घर मेरा केन्द्र है, उनकी पत्नी को मैं माँ कहता हूँ, उनकी कन्याएँ मुझे दादा कहती हैं, ऐसा महापवित्र और दयालु परिवार मैंने दूसरा नहीं देखा। अरे भाई, अगर ऐसा न होता, तो इन पर भगवान् की ऐसी कृपा कैसे होती? कितनी दया है इन लोगों में! अगर खबर मिली कि एक गरीब फलाँ फलाँ जगह कष्ट में पड़ा हुआ है, तो बस, ये स्त्री-पुरुष चल पड़ेंगे, उसे भोजन और वस्त्र देने के लिए, किसी काम में लगा देने के लिए! और हम लोग क्या करते हैं!
ये लोग गर्मियों में घर छोड़कर विदेश अथवा समुद्र के किनारे चले जाते हैं। मैं भी किसी जगह जाऊँगा, परन्तु अभी स्थान तय नहीं किया है। बाकी सब बातें जिस तरह अंग्रेजों में दीख पड़ती हैं, वैसी ही यहाँ भी हैं। पुस्तकें आदि हैं सही, पर कीमत बहुत ज्यादा है। उसी कीमत पर कलकत्ते में इसकी पाँच गुनी चीजें मिलती हैं अर्थात् यहाँ वाले विदेशी माल यहाँ आने नहीं देना चाहते। ये अधिक महसूल लगा देते हैं, इसीलिए सब चीजें बहुत महँगी बिकती हैं। और यहाँ वाले वस्त्रादि का उत्पादन नहीं करते – ये कल-औजार आदि बनाते हैं और गेहूँ, रुई आदि पैदा करते हैं, यही बस यहाँ सस्ते समझो।
वैसे यह बता दूँ कि आजकल यहाँ हिल्सा मछली खूब मिल रही है। चाहे जितना भी खाओ, सब हजम हो जाता है। यहाँ फल कई प्रकार के मिलते हैं – केले, सन्तरे, अमरूद, सेब, बादाम, किशमिश, अंगूर खूब मिलते हैं। इसके अलावा बहुत से फल कैलिफोर्निया से आते हैं। अनन्नास भी बहुत हैं, परन्तु आम, लीची आदि नहीं मिलते।
एक तरह का साग है, उसे ‘स्पिनाक’ (Spinach) कहते हैं, जिसे पकाने पर हमारे देश के चौंराई के साग की तरह स्वाद आता है, और एक-दूसरे प्रकार का साग, जिसे ये लोग ‘एस्पेरेगस’ (Asparagus) कहते हैं, वहाँ हमारे यहाँ के ठीक मुलायम ‘डेंगो’ (मर्सा) के डंठल की तरह लगता है, परन्तु उससे हमारे यहाँ की चच्चड़ी यहाँ नहीं बनायी जा सकती। उड़द की या दूसरी कोई दाल यहाँ नहीं मिलती, यहाँ वाले उसे जानते तक नहीं। खाने में यहाँ भात, पावरोटी और मछली और गोश्त की विभिन्न किस्में मिलती हैं। यहाँ वालों का खाना फ्रांसीसियों का सा है। यहाँ दूध मिलेगा, दही कभी-कभी मिलेगा, पर मट्ठा आवश्यकता से अधिक मिलेगा, क्रीम सदा हर तरह के खाने में इस्तेमाल की जाती है। चाय में, कॉफी में सब तरह के खाने में वही क्रीम – मलाई नहीं – कच्चे दूध की बनती है। और मक्खन भी है, और बर्फ का पानी – जाड़ा हो, चाहे गर्मी, दिन हो या रात, जुकाम हो, चाहे बुखार आये – यहाँ बर्फ का पानी खूब मिलता है। ये विज्ञानवेत्ता मनुष्य ठहरे, बर्फ का पानी पीने से जुकाम बढ़ता है, सुनकर हँसते हैं। इनका कहना है कि इसे जितना ही पियो, उतना ही अच्छा है। और आइसक्रीम की बात मत पूछो, तरह-तरह के आकार की बेशुमार। नियाग्रा ईश्वर की इच्छा से सात-आठ दफे तो देख चुका। निस्सन्देह बड़ा सुन्दर है, परन्तु जितना तुमने सुना हैं उतना नहीं। एक दिन जाड़े में ‘अरोरा बोरियालिस’ (Aurora borealis)2 का भी दर्शन हुआ था।
… सब बच्चों जैसी बातें हैं। मेरे पास इस जीवन में कम-से-कम ऐसी बातों के लिए समय नहीं है। दूसरे जन्म में देखा जाएगा कि मैं कुछ कर सकता हूँ या नहीं। योगेन शायद अब तक पूरी तरह से अच्छा हो गया होगा। मालूम होता है, सारदा का बेकार घूमने का रोग अभी तक दूर नहीं हुआ। आवश्यकता है संघटन करने की शक्ति की, मेरी बात समझे? क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि हैं? यदि हैं, तो तुम कर सकते हो। तारक दादा, शरत् और हरि भी यह कार्य कर सकेंगे। – में मौलिकता बहुत कम है, परन्तु है बड़े काम का और अध्यवसायशील, जिसकी बड़ी जरूरत है। सचमुच वह बड़ा कारगुजार आदमी है।… हमें कुछ चेले भी चाहिए – वीर युवक – समझे? दिमाग के तेज और हिम्मत के पूरे, यम का सामना करने वाले, तैरकर समुद्र पार करने को तैयार – समझे? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिए – स्त्री और पुरुष, दोनों। जी-जान से इसी के लिए प्रयत्न करो। जिस किसी तरह से भी चेले बनाओ और हमारे पवित्र करने वाले साँचे में डाल दो।
… परमहंस देव नरेन्द्र को ऐसा कहते थे, वैसा कहते थे और इसी तरह की अन्य बकवासभरी बातें ‘इंडियन मिरर’ से कहने क्यों गए? परमहंस देव को जैसे और कुछ काम ही नहीं था, क्यों? केवल दूसरे के मन की बात भाँपना और व्यर्थ की करामाती बातें फैलाना।… सान्याल आया-जाया करता है, यह अच्छी बात है। गुप्त को तुम लोग पत्र लिखना, तो मेरा प्यार कहना और उसकी खातिरदारी करना। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। मुझे अधिक पत्र लिखने का विशेष अवकाश नहीं मिलता। यहाँ तक व्याख्यान आदि का प्रश्न है, उन्हें लिखकर नहीं देता। केवल एक बार व्याख्यान लिखकर पढ़ा था, जो तुमने छपाया है। बाकी सब, खड़ा हुआ और कह चला – गुरुदेव मुझे पीछे से प्रेरित करते रहते हैं। कागज-कलम का कोई काम नहीं। एक बार डिट्रॉएट में तीन घंटे लगातार व्याख्यान दिया। कभी-कभी मुझे स्वयं ही आश्चर्य होता है कि ‘बेटा, तेरे पेट में भी इतनी विद्या थी’!! यहाँ के लोग बस कहते हैं, पुस्तक लिखो; जान पड़ता है, अब कुछ लिखना ही पड़ेगा। परन्तु यही तो मुश्किल है, कागज-कलम लेने की कौन परेशानी मोल ले।
हमें समाज में – संसार में, चेतना का संचार करना होगा। बैठे-बैठे गप्पें लड़ाने और घंटा हिलाने से काम न चलेगा। घन्टी हिलाना गृहस्थों का काम है। तुम लोगों का काम है, विचार-तरंगों का प्रसार करना। यदि यह कर सकते हो, तब ठीक है… ।
चरित्र-संगठन हो जाए, फिर मैं तुम लोगों के बीच आऊँगा, समझे? हमें दो हजार बल्कि दस हजार, बीस हजार संन्यासी चाहिए, स्त्री-पुरुष, दोनों। हमारी माताएँ क्या कर रही हैं? हमें, जिस तरह भी हो, चेले चाहिए। उनसे जाकर कह दो और तुम लोग भी अपनी जान की बाजी लगाकर कोशिश करो। गृहस्थ चेलों का काम नहीं, हमें त्यागी चाहिए, समझे? तुममें से प्रत्येक सौ-सौ चेले बनाओ – शिक्षित युवक चेले, मूर्ख नहीं; तब तुम बहादुर हो। हमें उथल-पुथल मचा देनी होगी। सुस्ती छोड़ो और कमर कसकर खड़े हो जाओ। मद्रास और कलकत्ते के बीच में बिजली की तरह चक्कर लगाते रहो। जगह-जगह केन्द्र खोलो और चेले बनाते जाओ। स्त्री-पुरुष, जिसकी भी इच्छा हो, उसे संन्यास-धर्म में दीक्षित कर लो, फिर मैं तुम लोगों के बीच आऊँगा। आध्यात्मिकता की बड़ी भारी बाढ़ आ रही है – साधारण व्यक्ति महान् बन जाएँगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पंडितों के आचार्य बन जाएँगे – उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। – ‘उठो, जागो और जब तक न पहुँच जाओ, न रुको।’ सदा विस्तार करना ही जीवन है और संकोच मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब है, आलसी है, उसके लिए नरक में भी जगह नहीं है। जीवों के लिए जिसमें इतनी करुणा है कि वह खुद उनके लिए नरक में भी जाने को तैयार रहता है – उनके लिए कुछ कसर उठा नहीं रखता, वही श्रीरामकृष्ण का पुत्र है, – इतरे कृपणाः – दूसरे तो हीन बुद्धिवाले हैं। जो इस आध्यात्मिक जागृति के संधिस्थल पर कमर कसकर खड़ा हो जाएगा, गाँव-गाँव, घर घर उनका संवाद देता फिरेगा, वही मेरा भाई है – वही ‘उनका’ पुत्र है। यही कसौटी है – जो रामकृष्ण के पुत्र हैं, वे अपना भला नहीं चाहते, वे प्राण निकल जाने पर भी दूसरों की भलाई चाहते हैं – प्राणात्ययेऽपि परकल्याणचिकीर्षवः। जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपनी जिद के सामने सबका सिर झुका हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे कोई नहीं। समय रहते वे हमसे पहले ही अलग हो जाएँ, तो अच्छा। श्री रामकृष्ण के चरित्र, उनकी शिक्षा एवं उनके धर्म को इस समय चारों ओर फैलाते जाओ – यही साधन है, यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है। उठो, उठो बड़े जोरों की तरंग आ रही है, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो स्त्री, पुरुष, चांडाल तक सब उनके निकट पवित्र हैं। आगे बढ़ो, आगे बढ़ो। नाम के लिए समय नहीं है, न यश के लिए, न मुक्ति के लिए, न भक्ति के लिए समय है; इनके बारे में फिर कभी देखा जाएगा। अभी इस जन्म में उनके महान् चरित्र का, महान् जीवन का, महान् आत्मा का अनन्त प्रचार करना होगा। काम केवल इतना ही है, इसको छोड़ और कुछ नहीं। जहाँ उनका नाम जाएगा, कीट-पतंग तक देवता हो जाएँगे, हो भी रहे हैं; तुम्हारे आँखें हैं, क्या इसे नहीं देखते? यह बच्चों का खेल नहीं, न यह बुजुर्गी छाँटना है, यह मजाक भी नहीं – उत्तिष्ठत जाग्रत – ‘उठो, जागो’ – प्रभु, प्रभु। वे हमारे पीछे हैं। मैं और लिख नहीं सकता – आगे बढ़ो। केवल इतना ही कहता हूँ कि जो कोई भी मेरा यह पत्र पढ़ेगा उन सबमें मेरा भाव भर जाएगा। विश्वास रखो। आगे बढ़ो। हे भगवान्! मुझे ऐसा लग रहा है, मानो कोई मेरा हाथ पकड़कर लिखा रहा है। आगे बढ़ो – प्रभु! सब वह जाएँगे – होशियार – वे आ रहे हैं। जो-जो उनकी सेवा के लिए – नहीं, उनकी सेवा नहीं, वरन् उनके पुत्र – दीन-दरिद्रों, पापियों-तापियों, कीट-पतंगों तक की सेवा के लिए तैयार रहेंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा। उनके मुख पर सरस्वती बैठेंगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति आकर विराजित होंगी। जो नास्तिक हैं अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, दिखाऊ हैं, वे क्यों अपने को उनके शिष्य कहते हैं? वे चले जाएँ।
मैं और नहीं लिख सकता।
सस्नेह
विवेकानन्द
- यह पत्र मठ के सब गुरुभाइयों के लिये लिखा गया था।
- Aurora borealis – पृथ्वी के उत्तरी भाग में रात के समय (वहाँ लगातार छः महीने तक रात होती है) कभी-कभी आकाश-मंडल में एक तरह का कम्पमान विद्युत-आलोक दीख पड़ता है। कितने ही आकार और कितने ही रंगों का होता है। इसीको ‘अरोरा बोरियालिस’ कहते हैं। स.