स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – एक मद्रासी शिष्य को लिखित (28 जून, 1894)

(स्वामी विवेकानंद का एक मद्रासी शिष्य को लिखा गया पत्र)

५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२८ जून, १८९४

प्रिय – ,

उस दिन मैसूर के जी. जी. का एक पत्र मिला। मुझे दुःख है कि जी. जी. की दृष्टि में मैं सर्वज्ञ बन चुका हूँ, नहीं तो वह पत्र में अपने कन्नड़-पते को और भी स्पष्ट रूप से लिखता। इसके अलावा शिकागो के सिवाय और किसी पते पर मुझे पत्र लिखना बहुत भारी भूल है। हालांकि यह भूल पहले मुझसे ही हुई, क्योंकि मुझे हमारे मित्रों की बुद्धि की सूक्ष्मता के बारे में विचार कर लेना चाहिए था, जो मेरे पत्रों के ऊपर लिखे हुए जिस किसी भी पते को देखकर मुझे पत्र भेजा करते हैं। मेरे मद्रासी वृहस्पतियों (अर्थात् अक्लमन्दों) से कहना कि उनको यह तो अच्छी ही तरह से मालूम है कि उनके पत्रों के पहुँचने से पहले ही मैं वहाँ से हजारों मील की दूरी पर पहुँच जाता हूँ, क्योंकि मैं तो बराबर घूम ही रहा हूँ। शिकागो में मेरे एक मित्र हैं, उनका मकान ही मेरा प्रधान केन्द्र है।

जहाँ तक यहाँ मेरे कार्य के प्रसार का प्रश्न है, इसकी आशा अब नहीं के बराबर है। यद्यपि मेरा उद्देश्य सबसे अच्छा था, किन्तु निम्नलिखित कारणों से उसके कार्यान्वित होने की संभावना को नष्ट कर दिया गया है।

भारत के जो समाचार मुझे मिलते रहते हैं, वे मद्रास से प्राप्त पत्रों से ही मिलते हैं। तुम लोगों के पत्रों से मुझे यह समाचार बराबर मिल रहा है कि भारत में सभी लोग मेरी प्रशंसा कर रहे हैं। किन्तु यह तो हमारे और तुम्हारे सिवा किसी और को मालूम न होगा, क्योंकि आलासिंगा के भेजे हुए एक समाचार पत्र के तीन वर्ग इंच अंश को छोड़कर अन्य किसी भी भारतीय पत्र में मेरे बारे में कभी कुछ प्रकाशित हुआ है, ऐसा मुझे देखने को नहीं मिला। दूसरी ओर मिशनरी लोग भारत में ईसाइयों के वक्तव्यों को यत्नपूर्वक संगृहीत कर नियमित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं, तथा घर-घर जाकर यह प्रयास कर रहे हैं, कि मेरे मित्र मुझे त्याग दें। वे अपने उद्देश्य में पूर्णतया सफल हो चुके हैं, क्योंकि भारत से मेरे समर्थन में एक शब्द भी आया नहीं है। भारत की हिन्दू पत्रिकाएँ अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर मेरी प्रशंसा करती होंगी, किन्तु उनकी एक भी बात अमेरिका नहीं पहुँची। इसलिए यहाँ बहुत से लोग मुझे एक ठग समझ रहे हैं। एक तो मिशनरी लोग मेरे पीछे पड़े हुए हैं, साथ ही यहाँ के हिन्दू भी ईर्ष्या के कारण उनका साथ दे रहे हैं। ऐसी दशा में उनको जवाब देने के लिए मेरे पास एक शब्द भी नहीं है। अब तो मेरी यह धारणा बनती जा रही है कि मद्रास के कुछ एक छोकरों के आग्रह के ही बल पर धर्मसभा में योगदान करना मेरे लिए मूर्खता हुई। क्योंकि आखिर तो वे छोकरे ही ठहरे। उन लोगों के प्रति मेरी कृतज्ञता अपार है, किन्तु फिर भी वे कुछ उत्साही, पर कार्यक्षमताविहीन युवक मात्र ही तो हैं। मैं अपने साथ कोई परिचय-पत्र नहीं लाया हूँ। मिशनरी तथा ब्राह्म समाजियों के सम्मुख यह बात कैसे प्रमाणित करूँ कि मैं एक प्रवंचक नहीं हूँ? मैंने सोचा था कि दो चार शब्द लिख भेजना बड़ा आसान होगा। मेरी धारणा थी कि मद्रास तथा कलकत्ते में कुछ भद्र पुरुषों की एक सभा आयोजित करना तथा उसमें मुझे तथा अमेरिकावासियों को मेरे प्रति किये गये उनके सद्व्यवहार के लिए धन्यवाद सूचक एक प्रस्ताव स्वीकृत कराकर, उसकी एक-एक प्रतिलिपि आधिकारिक ढंग से अर्थात् उन सभाओं के मन्त्रियों द्वारा अमेरिका में डा. बरोज के समीप भेजकर उनसे विभिन्न पत्रिकाओं में उन्हें प्रकाशित कराने के लिए प्रार्थना करना तथा उसी प्रकार बोस्टन, न्यूयार्क तथा शिकागो की विभिन्न पत्रिकाओं में भेजना बड़ा आसान होगा। किन्तु अब मैं देख रहा हूँ कि भारत के लिए यह कार्य अत्यन्त कष्टसाध्य तथा कठिन है। वर्ष भर में मेरे समर्थन में एक भी स्वर सुनने में न आया। सभी मेरे विरोध ही में उच्चारित हुए क्योंकि तुम अपने-अपने घर पर बैठकर मेरे बारे में कुछ भी क्यों न कहो, यहाँ उसके बारे में किसी को क्या मालूम? आलासिंगा को मैंने इस बारे में लिखा था। इस बात को दो महीने से भी अधिक समय हो गया, किन्तु उसने मेरे पत्र का जवाब तक नहीं दिया। मुझे लगता है कि उसका उत्साह धीमा पड़ गया है। इसीलिए पहले इस विषय पर तुम स्वयं विचार-विमर्श कर लो और उसके बाद फिर मद्रासियों को यह पत्र दिखाना। इधर मेरे गुरुभाई लोग नासमझों की तरह केशव सेन के बारे में बकवास कर रहे हैं और मद्रासी लोग भी, थियोसॉफिस्टों के बारे में मैं जो कुछ उनको लिखता हूँ, उसे उनके सामने रखकर शत्रुओं की संख्या बढ़ा रहे हैं।… हाय! यदि भारत में मेरी सहायता करने के लिए एक भी अल्पाधिक वास्तविक योग्यतासम्पन्न बुद्धिमान व्यक्ति मुझे मिलता! किन्तु प्रभु की इच्छा ही पूर्ण हो – मैं तो इस देश में एक ठग ही साबित हुआ। यह मेरी मूर्खता हुई कि कोई परिचय-पत्र लिए बिना मैं धर्मसभा में शामिल हो गया। आशा थी कि यहाँ मुझे बहुत सारे मिल जायेंगे। किन्तु अब मुझे अकेला ही धीरे-धीरे कार्य करना पड़ेगा।

अमेरिका के लोग हिन्दुओं से लाखों गुने अच्छे हैं और अकृतज्ञ तथा हृदयहीनों के देश की अपेक्षा यहाँ पर मैं कहीं अधिक कार्य कर सकता हूँ। आखिरकार कर्म के अनुष्ठान के द्वारा मुझे अपना प्रारब्ध-क्षय करना होगा। जहाँ तक मेरी आर्थिक स्थिति का सवाल है, वह ठीक है और ठीक ही रहेगी। पिछली जनगणना के अनुसार थियोसॉफिस्टों की संख्या समग्र अमेरिका में ६२५ थी, उनके साथ उठने बैठने से मुझे सहायता मिलनी तो दूर रही, क्षण भर में मेरा तमाम काम चौपट हो जायेगा। आलासिंगा ने जो लंदन जाकर श्री ओल्ड वगैरह के साथ भेंट करने के लिए लिखा है। इस बकवास का क्या मतलब है? उन मूर्ख बालकों को यही नहीं मालूम कि उनकी अपनी बातों का क्या अर्थ है। इन मद्रासी शिशुओं में किसी बात को अपने पेट में छिपाने तक का सामर्थ्य नहीं है! दिन भर व्यर्थ की बातें करते रहते हैं, और जब काम करने का समय आता है, तब, कहीं किसी का पता नहीं चलता! पचास-साठ व्यक्तियों की दो-चार सभाएँ करके अभी तक जो मेरी सहायता के लिए दो-चार फालतू शब्द तक नहीं भिजवा सके, वे मूर्ख समस्त संसार को प्रभावित करने की लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं!

मैंने तुमको फोनोग्राफ के बारे में लिखा है। यहाँ पर एक प्रकार का बिजली का पंखा है, जिसका मूल्य २० डालर है और वह बहुत अच्छी तरह काम करता है। उसकी बैटरी १०० घण्टे तक बराबर काम करती रहती है। उसके बाद किसी भी विद्युत्-यंत्र से उसे फिर भरा जा सकता है।

विदा! मैंने हिन्दुओं को काफी हद तक देख लिया है। अब जो कुछ प्रभु की इच्छा है, वही होगा। मेरे अपने कर्म के आगे नतमस्तक होकर मैं सब कुछ मान लेने के लिए प्रस्तुत हूँ। मुझे अकृतज्ञ न समझना,… मद्रासियों ने मेरे लिए जो कुछ किया है, मैं उसके योग्य नहीं था और वह उनकी अपनी क्षमता से बाहर था। यह मेरी ही मूर्खता थी – क्षण भर का यह विस्मरण कि हम हिन्दू लोग अभी आदमी नहीं बन पाये हैं, और अपनी आत्मा-निर्भरता को छोड़कर उन हिन्दुओं पर निर्भर होना – इसींलिए मुझे इतना कष्ट उठाना पड़ा। प्रतिक्षण मैं यही आशा लगाये बैठा रहा कि भारत से मुझे कुछ सहायता अवश्य मिलेगी। किन्तु वह कभी नहीं मिली। खासकर पिछले दो महीनों से हर घड़ी मैंने चरम यन्त्रणा का अनुभव किया – भारत से एक भी समाचार-पत्र मुझे नहीं मिला! मेरे मित्रों ने प्रतीक्षा की – महीनों तक प्रतीक्षा करते रहे, कुछ नहीं आया। एक आवाज तक भी नहीं। इसके फलस्वरूप बहुतों का उत्साह भंग हो गया और उन लोगों ने अन्त में मुझे त्याग दिया। मनुष्यों पर, पशुओं पर निर्भर रहने का यह दण्ड मुझे मिला – क्योंकि मेरे देशवासियों में अभी तक मनुष्यता का विकास नहीं हुआ है। अपनी प्रशंसा सुनने के लिए वे अत्यन्त उत्सुक रहते हैं, पर जब दूसरों की सहायता के लिए कुछ कहने का अवसर आता है, तब उनका पता नहीं चलता।

मुद्रासी युवकों को मैं असंख्य धन्यवाद देता हूँ – प्रभु उनका सदैव कल्याण करें। किसी मतवाद का प्रचार करने के लिए अमेरिका विश्व में सबसे उपयुक्त स्थान है, अतः शीघ्र अमेरिका छोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं है। और छोड़ा ही क्यों जाय? यहाँ मुझे खाने तथा पहनने को मिल रहा है, सभी सदय व्यवहार कर रहे हैं, और यह सब मुझे सिर्फ दो-चार अच्छी बातें कहने के बदले में मिल रहा है। ऐसी सहृदय जाति को छोड़कर पशु-प्रकृति, अकृतज्ञ, बुद्धिहीन, अनन्त काल से कुसंस्कार में फँसे हुए, दयाहीन, ममतारहित भाग्यहीनों के देश में मैं क्यों जाने लगा? अतः पुनः कहता हूँ, विदा! अच्छी तरह से विचार-विमर्श कर लेने के बाद यदि चाहो, तो इस पत्र को दूसरों को दिखा सकते हो। मद्रासियों ने, यहाँ तक कि आलासिंगा ने भी, जिस पर कि मेरी इतनी आशा थी, बुद्धिमत्ता से काम नहीं किया। क्या तुम मजूमदार के लिखे हुए, राकृष्ण परमहंस के संक्षिप्त जीवन-चरित्र की कुछ प्रतियाँ शिकागो भेज सकते हो? कलकत्ते में बहुत-सारे हैं। ५४१, डियरबोर्न एवेन्यू (स्ट्रीट नहीं), शिकागो, अथवा द्वारा टॉमस् कुक, शिकागो, मेरे इन दोनों पतों को न भूलना। अन्य किसी पते पर भेजने से बड़ी देर तथा गड़बड़ी होगी, क्योंकि अब मैं बराबर भ्रमण कर रहा हूँ और शिकागो ही मेरा प्रधान केन्द्र है। किन्तु यह बात मेरे मद्रासी बन्धुओं के दिमाग में नहीं समायी। कृपया जी. जी., आलासिंगा, सेक्रेटरी तथा अन्य सभी व्यक्तियों से मेरा चिर आशीर्वाद कहना। मैं उन लोगों की मंगल-कामना कर रहा हूँ। उन पर मैं बिल्कुल असन्तुष्ट नहीं हूँ, मुझे अपने पर ही असन्तोष है। अपने जीवन में पहली बार मैंने दूसरों की सहायता पर निर्भर रहने की भयानक भूल की और उसी का फल मैं भुगत रहा हूँ। यह दोष मेरा ही है, उन लोगों का नहीं। प्रभु सभी मद्रासियों का कल्याण करें। उनका हृदय बंगालियों की अपेक्षा अधिक उन्नत है। बंगाली तो निरे मूर्ख हैं, उनके पास न कोई हृदय है, न ही कोई दृढ़ता। विदा! विदा! मैंने अपनी नाव को खोल दिया है – जो कुछ होना हो, होने दो। मेरी कठोर आलोचना के लिए मुझे क्षमा करना। वास्तव में ऐसा करने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। मुझे जितना मिलना चाहिए था, उससे कहीं अधिक तुम लोगों ने मेरे लिए किया है। जैसा मेरा भाग्य है, उसके अनुसार ही मुझे फल मिलेगा बाकी सब कुछ मुझे चुपचाप सहन करना ही पड़ेगा। प्रभु सब लोगों का मंगल करें।

तुम्हारा,
विवेकानन्द

पुनश्च – शायद आलासिंगा के कॉलेज की छुट्टी हो गयी होगी, किन्तु मुझे उसकी कोई सूचना नहीं मिली और अपने घर का पता भी उसने मुझे नहीं लिखा है। वि.

मुझे आशंका है कि किडी ने सब छोड़छाड़ दिया है।

वि.

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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