क्रूर राजपुत्र का हृदय-परिवर्तन – जातक कथा
“क्रूर राजपुत्र का हृदय-परिवर्तन” एक जातक कथा है। इसमें राजकुमार की कहानी के ज़रिए शिक्षा दी गयी है कि जल्दी-से-जल्दी सही मार्ग पर आ जाना चाहिए। अन्य जातक कथाएँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – जातक कथाएं।
The Tale Of A Change Of Heart: Jataka Stories In Hindi
एक पन्न जातक की गाथा – [जब इस छोटे-से पौधे में इतना विष है, तो बड़ा वृक्ष बनने पर इसकी क्या अवस्था होगी।]
वर्तमान कथा – क्रूर राजपुत्र का हुआ हृदय-परिवर्तन
भगवान बुद्ध के समय में वैशाली एक छोटा-सा परन्तु अति सम्पन्न गणराज्य था। यह विदेशी व्यापार का केन्द्र था। राज्य का प्रबन्ध लिच्छवि वंशीय राजकुमारों की सभा करती थी, जिसका गणनायक चुन लिया जाता था। भगवान बुद्ध के समय में यहाँ ७७०७ राजपुत्र निवास करते थे।
इन राजकुमारों में एक अति क्रूर स्वभाव का राजपुत्र भी था, जिसे सुधारने के सब उपाय व्यर्थ हो चुके थे। अंत में लोग उसे लेकर भगवान बुद्ध के समीप आए। भगवान ने उसे उपदेश दिया, जिससे उसका स्वभाव अत्यंत कोमल हो गया। आश्रम में लोग चर्चा करते थे कि हाथियों, घोड़ों और बैलों को सिखाने वाले तो बहुत हैं परन्तु मनुष्यों को सिखाने वाला भगवान बुद्ध के अतिरिक्त दूसरा नहीं है।
जब भगवान के समक्ष यह बात आई, तो उन्होंने कहा, “हे भिक्षुओं! मेरे उपदेश ने राजकुमार को प्रथम बार ही नहीं जीता है। इससे पूर्व भी ऐसा हो चुका है।” ऐसा कहकर उन्होंने नीचे लिखी कहानी सुनाई कि क्रूर राजपुत्र का हृदय-परिवर्तन कैसे हुआ।
अतीत कथा – विषवृक्ष न बनो
एक बार जब काशी में ब्रह्मदत्त राज्य करता था, उस समय बोधिसत्व का जन्म उत्तर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। सयाने होने पर उन्होंने तक्षशिला में वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया। पिता के देहान्त के उपरांत बोधिसत्व ने घर-बार छोड़ दिया और हिमालय पर्वत पर तप करके विश्व के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया। बहुत दिन पश्चात् वे जनपद की ओर लौटे और काशी के राजा के उद्यान में अतिथि के रूप में रहने लगे।
राजा बोधिसत्व पर बहुत श्रद्धा रखता था और दिन में कई बार उनके दर्शनों को उद्यान में आता था।
इस राजा के एक पुत्र था, जो स्वभाव से अत्यन्त क्रूर था और उसके व्यवहार से सभी दुःखी थे। राजा को इस पुत्र के विषय में बड़ी चिन्ता थी। अंत में उन्होंने उसे बोधिसत्व की सेवा में रख दिया।
एक दिन बोधिसत्व राजकुमार के साथ उद्यान में टहल रहे थे। मार्ग में एक छोटा-सा नीम का अंकुर उन्हें दिखाई दिया। बोधिसत्व उसके पास ठहर गए। उसमें केवल दो पत्तियाँ ही फूटी थीं।
बोधिसत्व ने राजकुमार से कहा, “जरा इसकी पत्ती चखकर तो देखो।” राजकुमार ने एक पत्ती तोड़ कर चखी और उसकी असह्य कड़वाहट के कारण उसे तुरंत ही थूक दिया। परन्तु थूक देने पर भी उसकी कटुता का प्रभाव मुख से न गया।
बोधिसत्व के पूछने पर राजकुमार ने कहा, “हे संन्यासिन्, इस नन्हे से पौधे में बहुत विष है। बड़ा होने पर यह एक भयंकर विषवृक्ष बनेगा।” ऐसा कहकर उसने उस पौधे को जड़ से उखाड़कर एक ओर फेंक दिया और उपरोक्त गाथा कही।
बोधिसत्व ने कहा, “एक छोटा-सा पौधा कहीं बढ़कर भयंकर विष-वृक्ष न बन जाय, इस आशंका से तुमने उसे नष्ट कर डाला। क्या इसी प्रकार इस राज्य की प्रजा इस आशंका से, कि तुम राजा बनकर अपने क्रोध और क्रूर स्वभाव से उसे त्रस्त करोगे, तुम्हें राज्य से वंचित नहीं कर सकती? इस घटना से तुम शिक्षा ग्रहण करो और अपने को एक दयालु और लोक हितैषी राजकुमार सिद्ध करो।”
बोधिसत्व के उपदेश ने उस क्रूर राजपुत्र का हृदय-परिवर्तन कर दिया। पिता का राज्य प्राप्त होने पर उसने लोकहित के अनेक कार्य किये, जिससे काशी की सारी प्रजा उसे प्राणों के समान प्यार करने लगी। उस समय यह लिच्छवि राजकुमार ही क्रूर राजपुत्र था, आनन्द काशी का राजा था और मैं तो संन्यासी था ही।