स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (30 जनवरी, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
रामनाड़,
शनिवार, ३० जनवरी, १८९७
प्रिय मेरी,
परिस्थितियाँ अत्यन्त आश्चर्यजनक रूप से मेरे लिए अनुकूल होती जा रही हैं। कोलम्बो में मैंने जहाज छोड़ा तथा भारत के दक्षिण स्थित प्रायः अन्तिम भूखण्ड रामनाड़ में मैं इस समय वहाँ के राजा का अतिथि हूँ। मेरी यात्रा एक विराट् जुलूस के समान रही – बेशुमार जनता की भीड़ रोशनी, मानपत्र वगैरह-वगैरह। भारत की भूमि पर, जहाँ मैंने प्रथम पदार्पण किया, वहाँ पर ४० फुट ऊँचा एक स्मृति-स्तम्भ बनवाया जा रहा है। रामनाड़ के राजा साहब ने अपना मानपत्र एक अत्यन्त सुन्दर नक्काशी किये हुए असली सोने के बड़े बॉक्स में रखकर मुझे प्रदान किया है; उसमें मुझे ‘परम पवित्र’ ( His Most Holiness )कहकर सम्बोधित किया गया है। मद्रास तथा कलकत्ते में लोग बड़ी उत्कण्ठा के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मानो सारा देश मुझे सम्मानित करने के लिए उठ खड़ा हुआ है। अतः मेरी, तुम यह देख रही हो कि मैं अपने भाग्य के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हूँ। फिर भी मेरा मन शिकागो के उन निस्तब्ध, विश्रान्तिपूर्ण दिनों की ओर दौड़ रहा है – कितने सुन्दर विश्रामदायक, शान्ति तथा प्रेमपूर्ण थे वे दिन! इसीलिए मैं अभी तुमको पत्र लिखने बैठा हूँ। आशा है कि तुम सभी सकुशल तथा आनन्दपूर्वक होंगे। डॉक्टर बरोज की अभ्यर्थना करने के लिए मैंने लन्दन से अपने देशवासियों को पत्र लिखा था। उन लोगों ने अत्यन्त आवभगत के साथ उनकी अभ्यर्थना की थी। किन्तु वे यहाँ के लोगों में प्रेरणा-संचार नहीं कर सके, इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ। कलकत्ते के लोगों में कोई नवीन भावना पैदा करना बहुत कठिन है। अब मैं सुन रहा हूँ कि डॉक्टर बरोज के मन में मेरे प्रति अनेक धारणाएँ उठ रही हैं। इसी का नाम तो संसार है!
माता जी, पिता जी तथा तुम सभी को मेरा प्यार।
तुम्हारा स्नेहबद्ध,
विवेकानन्द