स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (5 मई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
आलमबाजार मठ,
कलकत्ता,
५ मई, १८९७
प्रिय…,
मैं अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सँभालने एक मास के लिए दार्जिलिंग गया था। मैं अब पहले से बहुत अच्छा हूँ। दार्जिलिंग में मेरा रोग पूरी तरह से भाग गया। पूर्णतया स्वस्थ होने के लिए कल मैं एक दूसरे पहाड़ी स्थान अल्मोड़ा जा रहा हूँ।
जैसा कि मैं पहले आपको लिख चुका हूँ, यहाँ सब चीजें बहुत आशाजनक नहीं मालूम होतीं, यद्यपि सम्पूर्ण राष्ट्र ने एक प्राण होकर मेरा सम्मान किया और उत्साह से लोग प्रायः पागल से हो गए थे। भारत में व्यावहारिक बुद्धि की कमी है। फिर कलकत्ते के निकट जमीन का मूल्य बहुत बढ़ गया है। मेरा विचार अभी तीनों राजधानियों में तीन केन्द्र स्थापित करने का है। ये मेरी, प्रचारकों को तैयार करने की मानो पाठशालाएँ होंगी, जहाँ से मैं भारत पर आक्रमण करना चाहता हूँ।
मैं कुछ वर्ष और जिऊँ या न जिऊँ, भारत पहले से ही श्रीरामकृष्ण का हो गया है।
मुझे डॉक्टर जेन्स का एक अत्यन्त कृपापूर्ण पत्र मिला जिसमें उन्होंने पतित बौद्ध मत पर मेरे विचारों की आलोचना की है। तुमने भी लिखा है कि उस पर धर्मपाल अति क्रुद्ध हैं। श्री धर्मपाल एक सज्जन व्यक्ति हैं और मुझे उनसे प्रेम है, परन्तु भारतीय बातों पर उनका आवेश एक बिल्कुल गलत चीज होगी।
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जो आधुनिक हिन्दू धर्म कहलाता है और जो दोषपूर्ण है, वह अवनत बौद्ध मत का ही एक रूप है। हिन्दुओं को साफ-साफ इसे समझ लेने दो, फिर उन्हें उसको त्याग देने में कोई आपत्ति न होगी। बौद्ध मत का वह प्राचीन रूप, जिसका बुद्धदेव ने उपदेश दिया था और उनका व्यक्तित्व मेरे लिए परम पूजनीय है। और तुम अच्छी तरह जानते हो कि हम हिन्दू लोग उन्हें अवतार मानकर उनकी पूजा करते हैं। लंका का बौद्ध धर्म भी किसी काम का नहीं है। लंका की यात्रा से मेरा भ्रम दूर हो गया है। जीवित और वहाँ के एकमात्र लोग हिन्दू ही हैं। वहाँ के बौद्ध यूरोप के रंग में रँगे हुए हैं, यहाँ तक कि श्री धर्मपाल और उनके पिता के नाम भी यूरोपीय थे, जो उन्होंने अब बदले हैं। अपने अहिंसा के महान् सिद्धान्त का वह इतना आदर करते हैं कि उन्होंने कसाईखाने जगह-जगह खोल रखे हैं! और उनके पुरोहित इसमें उन्हें प्रोत्साहित करते हैं! वह वास्तविक बौद्ध धर्म जिस पर मैंने एक बार विचार किया था कि वह अभी बहुत कल्याण करने में समर्थ होगा, पर मैंने अब वह विचार छोड़ दिया है और मैं स्पष्ट उस कारण को देखता हूँ जिससे बौद्ध धर्म भारत से निकाला गया और हमें बड़ा हर्ष होगा यदि लंकावासी भी इस धर्म के अवशेष रूप को, उसकी विकराल मूर्तियों तथा भ्रष्ट आचारों के साथ त्याग देंगे।
थियोसॉफिस्ट लोगों के विषय में पहले तुमको यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत में थियोसॉफिस्ट और बौद्धों का अस्तित्व शून्य के बराबर है। वे कुछ समाचारपत्र प्रकाशित करते हैं, जिनके द्वारा बड़ा हल्ला-गुल्ला मचाते हैं और पाश्चात्यों को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं…
मैं अमेरिका में एक मनुष्य था और यहाँ दूसरा हूँ। यहाँ पूरा राष्ट्र मुझे अपना नेता मानता है, और वहाँ मैं एक ऐसा प्रचारक था जिसकी निन्दा की जाती थी। यहाँ राजा मेरी गाड़ी खींचते हैं, वहाँ मैं किसी शिष्ट होटल में प्रवेश नहीं कर सकता था। इसलिए मेरे यहाँ के उद्गार मेरे देशवासी तथा मेरी जाति के कल्याणार्थ होने चाहिए, चाहे वे थोड़े से लोगों को कितने ही अप्रिय क्यों न जान पड़ें। सच्ची और निष्कपट बातों के लिए स्वीकृति, प्रेम और सहिष्णुता – परन्तु पाखण्ड के लिए नहीं। थियोसॉफिस्ट लोगों ने मेरी चापलूसी और मिथ्या प्रशंसा करने का यत्न किया था, क्योंकि भारत में मैं अब नेता माना जाता हूँ। इसलिए मेरे लिए यह आवश्यक हो गया कि मैं कुछ बेधड़क और निश्चित शब्दों से उनका खण्डन करूँ। मैंने यह किया भी और मैं बहुत खुश हूँ। यदि मेरा स्वास्थ्य ठीक होता तो मैं इस समय तक इन नये उत्पन्न हुए पाखण्डियों का भारत से सफाया कर देता, कम से कम भरसक प्रयत्न तो करता ही… मैं तुमसे कहता हूँ कि भारत पहले ही श्रीरामकृष्ण का हो चुका है और पवित्र हिन्दू धर्म के लिए मैंने यहाँ अपने कार्य को थोड़ा संगठित कर लिया है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द