स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (28 अप्रैल, 1897)

(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)

दार्जिलिंग,
२८ अप्रैल, १८९७

प्रिय मेरी,

कुछ दिन हुए, तुम्हारा सुन्दर पत्र मुझे मिला। कल हैरियट के विवाह की सूचना सम्बन्धी पत्र मिला। भगवान सुखी दम्पत्ति का मंगल करें।

यह सारा देश मेरे स्वागत के लिए एकप्राण होकर उठ खड़ा हुआ। हर स्थान में हजारों-लाखों मनुष्यों ने स्थान-स्थान पर जयजयकार किया। राजाओं ने मेरी गाड़ी खींची, राजधानियों के मार्गों पर हर कहीं स्वागत-द्वार बनाए गए, जिन पर शानदार आदर्श-वाक्य अंकित थे। आदि! आदि!! सब बातें शीघ्र ही पुस्तक रूप में प्रकाशित होने वाली हैं और तुम्हारे पास एक प्रति पहुँच जायगी। किन्तु दुर्भाग्यवश इंग्लैण्ड में अत्यन्त परिश्रम से मैं पहले ही थका हुआ था, और दक्षिण भारत की गर्मी में इस अत्यधिक परिश्रम ने मुझे बिल्कुल गिरा दिया। इस कारण भारत के दूसरे भागों में जाने का विचार मुझे छोड़ना पड़ा और सबसे निकट के पहाड़ अर्थात् दार्जिलिंग को शीघ्रातिशीघ्र आना पड़ा। अब मैं पहले से बहुत अच्छा हूँ और अल्मोड़ा में एक महीना और रहने से मैं पूर्णतया स्वस्थ हो जाऊँगा। वैसे इतना बता दूँ कि यूरोप आने का एक अवसर मैंने अभी अभी खो दिया है। राजा अजित सिंह और कुछ दूसरे राजा शनिवार को इंग्लैण्ड के लिए रवाना हो रहे हैं। उन्होंने बहुत यत्न किया कि मैं उनके साथ जाऊँ। परन्तु अभाग्यवश डॉक्टरों ने मेरा अभी किसी प्रकार शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करना स्वीकार न किया। इसलिए, अत्यन्त निराशा के साथ मुझे वह विचार छोड़ देना पड़ा। मैंने अब उसे किसी निकट भविष्य के लिए रख छोड़ा है।

मुझे आशा है कि डॉक्टर बरोज इस समय तक अमेरिका पहुँच गए होंगे। बेचारे! वे यहाँ अति कट्टर ईसाई-धर्म का प्रचार करने आए थे, और जैसा होता है, किसी ने उनकी न सुनी। इतना अवश्य है कि उन्होंने प्रेमपूर्वक उनका स्वागत किया, परन्तु वह मेरे पत्र के कारण ही था। मैं उनको बुद्धि तो नहीं दे सकता था! इसके अतिरिक्त वे कुछ विचित्र स्वभाव के व्यक्ति थे। मैंने सुना है कि मेरे भारत आने पर राष्ट्र ने जो खुशी मनायी, उससे जलन के मारे वे पागल से हो गए थे। कुछ भी हो तुम लोगों को उनसे बुद्धिमान व्यक्ति भेजना उचित था, क्योंकि डॉ. बरोज के कारण हिन्दुओं के मन में धर्म-प्रतिनिधि सभा एक स्वाँग सी बन गयी है। अध्यात्म-विद्या के सम्बन्ध में पृथ्वी का कोई भी राष्ट्र हिन्दुओं का मार्ग-दर्शन नहीं कर सकता, और विचित्र बात तो यह है कि ईसाई देशों से जितने लोग यहाँ आते हैं, वे सब एक ही प्राचीन मूर्खतापूर्ण तर्क देते हैं कि ईसाई धनवान और शक्तिमान हैं और हिन्दू नहीं हैं, इसलिए ईसाई धर्म हिन्दू धर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है। इस पर हिन्दू उचित ही यह प्रत्युत्तर देते हैं कि यही एक कारण है जिससे हिन्दू मत धर्म कहला सकता है और ईसाई मत नहीं; क्योंकि इस पाशविक संसार में अधर्म और धूर्तता ही फलती है, गुणवानों को तो दुःख भोगना पड़ता है। ऐसा लगता है कि पश्चिमी राष्ट्र वैज्ञानिक संस्कृति में चाहे कितने ही उन्नत क्यों न हों, तत्त्वज्ञान और आध्यात्मिक शिक्षा में वे निरे बालक ही हैं। भौतिक विज्ञान केवल लौकिक समृद्धि दे सकता है, परन्तु अध्यात्म विज्ञान शाश्वत जीवन के लिए है। यदि शाश्वत जीवन न भी हो तो भी आध्यात्मिक विचारों का आदर्श मनुष्य को अधिक आनन्द देता है और उसे अधिक सुखी बनाता है; परन्तु भौतिकवाद की मूर्खतापूर्ण स्पर्धा, असंतुलित महत्त्वाकांक्षा, व्यक्ति तथा राष्ट्र को अन्तिम मृत्यु की ओर ले जाती है।

यह दार्जिलिंग एक रमणीय स्थान है। बादलों के हटने पर कभी-कभी भव्य कंचनजंघा (२८,१४६ फुट) का दृश्य दिखता है, और कभी कभी एक समीपवर्ती शिखर से गौरीशंकर (२९,००२ फुट) की झलक दिख जाती है। फिर, यहाँ के निवासी भी अत्यन्त मनोहर होते हैं – तिब्बती, नेपाली और सर्वोपरि रूपवती लेपचा स्त्रियाँ! क्या तुम किसी कौलसन टर्नबुल नामक शिकागो निवासी को जानती हो? मेरे भारत पहुँचने से कुछ सप्ताह पहले से वह यहाँ था। मालूम होता है कि मैं उसे बहुत अच्छा लगा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दुओं को वह बहुत प्रिय हो गया। ‘जो’, श्रीमती ऐडम्स, बहन जोसेफिन और हमारे अन्य मित्रों का क्या हाल है? हमारे प्यारे मिल्स कहाँ हैं? धीरे-धीरे किन्तु निश्चयात्मक रूप से काम कर रहे हैं? मैं हैरियट को विवाह का कुछ उपहार भेजना चाहता था, परन्तु आपके यहाँ की ‘भयंकर’ चुंगी के डर से किसी निकट भविष्य के लिए यह स्थगित कर दिया है। कदाचित् मैं उन लोगों से यूरोप में शीघ्र ही मिलूँगा। निश्चय ही मैं बहुत खुश होता, यदि तुम अपनी सगाई की घोषणा कर देती और मैं एक पत्र में आधे दर्जन कागजों को भरकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर देता…

मेरे गुच्छे के गुच्छे बाल सफेद हो रहे हैं और मेरे मुख पर चारों ओर से झुर्रियाँ पड़ रही हैं; शरीर का मांस घटने से बीस वर्ष मेरी आयु बढ़ी हुई मालूम पड़ती है। और अब मेरा शरीर तेजी से घटता जा रहा है, क्योंकि मैं केवल मांस पर ही जीवित रहने को विवश हूँ – न रोटी, न चावल, न आलू और कॉफी के साथ थोड़ी-सी चीनी ही। मैं एक ब्राह्मण परिवार के साथ रहता हूँ, जहाँ स्त्रियों को छोड़कर बाकी सब लोग नेकर पहनते हैं। मैं भी वही पहनता हूँ। यदि तुम मुझे पहाड़ी हिरन की तरह चट्टान से चट्टान पर कूदते हुए देखती या पहाड़ी रास्तों में ऊपर-नीचे भागते हुए देखतीं तो आश्चर्य से स्तब्ध हो जातीं।

मैं यहाँ बहुत अच्छा हूँ, क्योंकि शहरों में मेरा जीवन यातना हो गया था। यदि राह में मेरी झलक भी दिख जाती थी तो तमाशा देखने वालों का जमघट लग जाता था!! ख्याति में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं है! अब मैं बड़ी सी दाढ़ी रखने वाला हूँ, जिसके बाल तो अब सफेद हो ही रहे हैं। इससे रूप समादरणीय हो जाता है और वह अमेरिकन निन्दकों से भी बचाती है! हे श्वेतकेश, तुम कितना कुछ नहीं छुपा सकते हो! धन्य हो तुम!

डाक का समय हो गया है, इसलिए मैं समाप्त करता हूँ। सुस्वप्न, सुस्वास्थ्य और सम्पूर्ण मंगल तुम्हारे साथ हों।

माता, पिता और तुम सबको मेरा प्यार,

तुम्हारा,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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