स्थान, काल आदि की शुद्धता का विचार कब तक
स्थान – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – स्थान, काल आदि की शुद्धता का विचार कब तक – आत्मा के प्रकट होने के विघ्नों को जो विनष्ट करती है वही साधना है – “ब्रह्मज्ञान में कर्म का लवलेश नहीं है” शास्त्रवाक्य का अर्थ – निष्काम कर्म किये कहते हैं – कर्म के द्वारा आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं किया जाता है, फिर भी स्वामीजी ने देश के लोगों को कर्म करने के लिए क्यों कहा है? – भारत का भविष्यमें कल्याण अवश्य होगा।
इधर स्वामीजी का शरीर बहुत कुछ स्वस्थ है; मठ की नयी जमीन में जो पुराना मकान था उसके कमरों की मरम्मत करके उन्हें रहने योग्य बनाया जा रहा है, परन्तु अभी तक काम पूरा नहीं हुआ। इसके लिए पहले सारी जमीन पर मिट्टी डाल कर उसे समतल बनाया गया है। स्वामीजी आज दिन के तीसरे पहर शिष्य को साथ लेकर मठ की जमीन में घूमने निकले हैं। स्वामीजी के हाथ में एक लम्बा लठ्ठ, बदन पर गेरुए रंग का फलालैन का चोगा, सिर नंगा। शिष्य के साथ बातें करते करते दक्षिण की ओर जाकर फाटक तक पहुँचकर फिर उत्तर की ओर लौट रहे हैं – इसी प्रकार मकान से फाटक तक और फाटक से मकान तक बार बार चहलकदमी कर रहे हैं। दक्षिण की ओर बेलवृक्ष के मूलभाग को पक्का करके बँधवाया गया है, उसी बेलवृक्ष के निकट खड़े होकर स्वामीजी अब धीरे धीरे गाना गाने लगे –
“हे गिरिराज, गणेश मेरे कल्याणकारी हैं” इत्यादि।
गाना गाते गाते शिष्य से बोले, “यहाँ पर कितने ही दण्डी योगी, जटाधारी आयेंगे – समझा? कुछ समय के पश्चात् यहाँ कितने ही साधु संन्यासियों का समागम होगा।” यह कहते कहते वे बिल्ववृक्ष के नीचे बैठ गये और बोले, ‘बिल्ववृक्ष का तल बहुत ही पवित्र है। यहाँ पर बैठकर ध्यानधारणा करने पर शीघ्र ही उद्दीपना होती है। श्रीरामकृष्ण यह बात कहा करते थे।”
शिष्य – महाराज, जो लोग आत्मा और अनात्मा के विचार में मग्न हैं उनके लिए स्थान-अस्थान, काल-अकाल, शुद्धि-अशुद्धि के विचार की आवश्यकता है क्या?
स्वामीजी – जिनकी आत्मज्ञान में निष्ठा है, उन्हें ये सब विचार करने की आवश्यकता सचमुच नहीं है, परन्तु वह निष्ठा क्या ऐसे ही होती है? कितनी चेष्टा साधना करनी पड़ती है तब कहीं होती है। इसलिए पहलेपहल एक आध बाह्य अवलम्बन लेकर अपने पैरों पर खड़े होने की चेष्टा करनी होती है और फिर जब आत्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त हो जाती है, तब किसी बाह्य अवलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती।
“शास्त्रों में जो नाना प्रकार की साधनाओं का निर्देश है वह सब केवल आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए ही है, परन्तु अधिकारियों की भिन्नता के कारण साधनाएँ भिन्न भिन्न हैं। पर वे सब साधनाएँ भी एक प्रकार का कर्म हैं और जब तक कर्म है, तब तक आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। आत्मप्रकाश के सभी विघ्न शास्त्रोक्त साधना रूपी कर्म द्वारा हटा दिये जाते हैं। कर्म की अपनी प्रत्यक्ष आत्मप्रकाश की शक्ति नहीं है; वह कुछ आवरणों को केवल हटा देता है। उसके बाद आत्मा अपनी प्रभा से स्वयं ही प्रकाशित हो जाती है, समझा? इसीलिए तेरे भाष्यकार कह रहे हैं – ‘ब्रह्मज्ञान से कर्म का तनिक भी सम्बन्ध नहीं है।”
शिष्य – परन्तु महाराज, जब किसी न किसी कर्म के बिना किये आत्मविकास के विघ्न दूर नहीं होते हैं, तो परोक्षरूप में कर्म ही तो ज्ञान का कारण बन जाता है।
स्वामीजी – कार्य-कारण की परम्परा की दृष्टि से पहले वैसा अवश्य प्रतीत होता है। मीमांसाशास्त्र में वैसे ही दृष्टिकोण का अवलम्बन कर कहा गया है – ‘काम्य कर्म अवश्य ही फल देता है।’ परन्तु निर्विशेष आत्मा का दर्शन केवल कर्म द्वारा न हो सकेगा, क्योंकि आत्मज्ञान के इच्छुकों के लिए साधना आदि कर्म करने का विधान तो है, परन्तु उसके परिणाम के सम्बन्ध में उदासीन रहना आवश्यक है। इससे स्पष्ट है, वे सब साधनाएँ आदि कर्म साधक की चित्तशुद्धि के कारण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, क्योंकि यदि उन साधनाओं आदि के परिणाम में ही आत्मा का साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष करना सम्भव होता तो फिर शास्त्रों में साधकों को उन सब कर्मों के फल को त्याग देने के लिए नहीं कहा जाता। अतः मीमांसाशास्त्र में कहे हुए फलप्रद कर्मवाद के निराकरण के ही लिए गीतोक्त निष्काम कर्मयोग की अवतारणा की गयी है, समझा।
शिष्य – परन्तु महाराज, कर्म के फलाफल की ही यदि आशा न रखी, तो फिर कष्ट उठाकर कर्म करने में रुचि क्यों होगी?
स्वामीजी – देह धारण करके कुछ न कुछ कर्म किये बिना कोई कभी नहीं रह सकता। जीव को जब कर्म करना ही पड़ता है, तो जिस प्रकार कर्म करने से आत्मा का दर्शन प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार से करने के लिए ही निष्काम कर्मयोग कहा गया है। और तूने जो कहा, ‘प्रवृत्ति क्यों होगी?’ – उसका उत्तर यह है कि जितने कुछ कर्म किये जाते हैं, वे सभी प्रवृत्तिमूलक हैं, परन्तु कर्म करते करते जब एक कर्म से दूसरे कर्म में, एक जन्म से दूसरे जन्म में ही केवल गति होती रहती है, तो समय पर लोगों की विचार की प्रवृत्ति स्वतःही जागकर पूछती है, – इस कर्म का अन्त कहाँ पर है? उसी समय वह उस बात का मर्म समझ जाता है, जो गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कही है – ‘गहना कर्मनो गतिः’। अतः जब कर्म करके उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती तभी साधक कर्मत्यागी बनता है। परन्तु देह धारण करके मनुष्य को कुछ न कुछ साथ लेकर तो रहना ही होगा – क्या लेकर रहेगा बोल? इसीलिए साधक दो चार सत्कर्म करता जाता है, परन्तु उस कर्म के फलाफल की आशा नहीं रखता, क्योंकि उस समय उसने जान लिया है कि उस कर्मफल में ही जन्ममृत्यु के नाना प्रकार के अंकुर भरे पड़े हैं। इसीलिए ब्रह्मज्ञ व्यक्ति सारे कर्म त्याग देते है – दिखाने के दो-चार कर्म करने पर भी उनमें उनके प्रति आकर्षण बिलकुल नहीं रहता। ये ही लोग शास्त्र में निष्काम कर्मयोगी बताये गये हैं।
शिष्य – महाराज, तो क्या निष्काम ब्रह्मज्ञ का उद्देश्यविहीन कर्म उन्मत्त की चेष्टा आदि की तरह है?
स्वामीजी – नहीं! अपने लिए, अपने देह-मन के सुख के लिए कर्म न करना ही कर्मफल का त्याग है। ब्रह्मज्ञ अपने सुख की तलाश नहीं करते हैं, परन्तु दूसरों के कल्याण अथवा यथार्थ सुख की प्राप्ति के लिए क्यों कर्म न करेंगे? वे लोग फल की आकांक्षा न रखते हुए जो कुछ कर्म करते रहते हैं, उससे जगत् का कल्याण होता है। वे सब कर्म ‘बहुजनहिताय’, ‘बहुजनसुखाय’ होते हैं। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे – ‘उनके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते’, वे जो कुछ करते हैं सभी अर्थपूर्ण होते हैं। उत्तररामचरित्र में नहीं पढ़ा है – ‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति’ अर्थात् ऋषियों के वाक्यों का अर्थ अवश्य है, वे की निरर्थक या मिथ्या नहीं होते। मन जिस समय आत्मा में लीन होकर वृत्तिविहीन जैसा बन जाता है, उस समय ‘इहापुत्रफलभोगविराग’ उत्पन्न हुआ करता है अर्थात् संसार में अथवा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग आदि में किसी प्रकार का सुखभोग करने की आकांक्षा नहीं रहती। मन में फिर संकल्प-विकल्पों की लहर नहीं रहती, परन्तु व्युत्थानकाल में अर्थात् समाधि अथवा उस वृत्तिविहीन स्थिति से उतरकर मन जिस समय फिर ‘मैं-मेरा’ के राज्य में आ जाता है, उस समय पूर्वकृत कर्म या अभ्यास या प्रारब्ध से उत्पन्न संस्कार के अनुसार देह आदि का कर्म चलता रहता है। मन उस समय प्रायः ज्ञानातीत स्थिति (Superconscious State) में रहता है। न खाने से काम नहीं चलता, इसीलिए उस समय खाना पीना रहता है – देहबुद्धि इतनी क्षीण हो जाती है। इस ज्ञानातीत भूमि में पहुँचकर जो कुछ किया जाता है, वह ठीक ठीक ही होता है। वे सब काम जीव और जगत् के लिए होते हैं; क्योंकि उस समय कर्ता का मन फिर स्वार्थबुद्धि द्वारा अथवा अपने लाभ-हानि के विचार द्वारा दूषित नहीं होता। ईश्वर ने सदा ज्ञानातीत भूमि में रहकर ही इस जगत्रूपी विचित्र सृष्टि को बनाया है, इसीलिए इस सृष्टि में कुछ भी अपूर्ण नहीं पाया जाता। इसीलिए कह रहा था कि आत्मज्ञ जीव के, फलकामना से शून्य कर्म आदि कभी अंगहीन अथवा असम्पूर्ण नहीं होते – उनसे जीव और जगत् का यथार्थ कल्याण ही होता है।
शिष्य – आपने थोड़ी देर पहले कहा, ज्ञान और कर्म आपस में एक दूसरे के विरोधी हैं। ब्रह्मज्ञान में कर्म का जरा भी स्थान नहीं है अथवा कर्म के द्वारा ब्रह्मज्ञान या ब्रह्मदर्शन नहीं होता, तो फिर आप बीच बीच में महारजोगुण के उद्दीपक उपदेश क्यों देते हैं? यही उस दिन आप मुझे ही कह रहे थे – ‘कर्म – कर्म – कर्म – न्यान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।’
स्वामीजी – मैंने दुनिया में घूमकर देखा है इस देश की तरह इतने अधिक तामस प्रकृति के लोग पृथ्वी में और कहीं भी नहीं है। बाहर सात्विकता का ढोंग, पर अन्दर बिलकुल रिअंट-पत्थर की तरह जड़ता – इनसे जगत् का क्या काम होगा? इस प्रकार अकर्मण्य, आलसी, घोर विषयी जाति दुनिया में और कितने दिन जीवित रह सकेगी। पाश्चात्य देशों में घूमकर पहले एक बार देख आ, फिर मेरे इस कथन का प्रतिवाद करना। उनका जीवन कितना उद्यमशील है, उनमें कितनी कर्मतत्परता है, कितना उत्साह है, रजोगुण का कितना विकास है। तुम्हारे देश के लोगों का खून मानो हृदय में जम गया है – नसों में मानो रक्त्त का प्रवाह ही रुक गया है। सर्वांग पक्षाघात के कारण शिथिल-सा हो गया है। इसीलिए मैं इनमें रजोगुण की वृद्धि कर कर्मतत्परता के द्वारा इस देश के लोगों को पहले इहलौकिक जीवन संग्राम के लिए समर्थ बनाना चाहता हूँ। देह में शक्ति नहीं, हृदय में उत्साह नहीं, मस्तिष्क में प्रतिभा नहीं। – क्या होगा रे इन जड़ पिण्डों से? मैं हिला डुलाकर इनमें स्पन्दन लाना चाहता हूँ। – इसलिए मैंने प्राणान्त प्रण किया है। वेदान्त के अमोघ मन्त्र के बल से उन्हें जगाऊँगा। ‘उत्तिष्ठत जाग्रत’ इस अभय वाणी को सुनाने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। तुम लोग इस काम में मेरे सहायक बनो। जा, गाँव गाँव में, देश देश में यह अभयवाणी चाण्डाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी को सुना आ। सभी को पकड़ पकड़ कर जाकर कह दे, – ‘तुम लोग अमित वीर्यवान् हो – अमृत के अधिकारी हो।’ इसी प्रकार पहले रजः शक्ति की उद्दीपना कर, – जीवनसंग्राम के लिए सब को कार्यक्षम बना, इसके पश्चात् उन्हें परजन्म में मुक्ति प्राप्त करने की बात सुना। पहले भीतर की शक्ति को जाग्रत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर; अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखें, उनके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सर्व प्रकार के भोगों के बन्धनों से वे मुक्त हो सकेंगे। निष्क्रियता, हीनबुद्धि और कपट से देश छा गया है। क्या बुद्धिमान लोग यह देखकर स्थिर रह सकते हैं? रोना नहीं आता? मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल – कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिह्न दिखायी नहीं देता। तुम लोग सोच रहे हो, ‘हम शिक्षित हैं’! क्या खाक सीखा है? दूसरों की कुछ बातों को दूसरी भाषा में रटकर मस्तिष्क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो कि हम शिक्षित हो गये हैं! धिक् धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो क्लर्क बनना या एक दुष्ट वकील बनना, और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक डिप्टी मॅजिस्ट्रेट की नौकरी – यही न? इससे तुम्हें या देश को क्या लाभ हुआ? एक बार आँखे खोलकर देख, सोना पैदा करनेवाली भारतभूमि में अन्न के लिए हाहाकार मचा है। तुम्हारी उस शिक्षा द्वारा उस न्यूनता की क्या पूर्ति हो सकेगी? – कभी नहीं। पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से जमीन खोदने लग जा, अन्न की व्यवस्था कर – नौकरी करके नहीं – अपनी चेष्टा द्वारा पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से नित्य नवीन उपाय का आविष्कार करके! इसी अन्न-वस्त्र की व्यवस्था करने के लिए मैं लोगों को रजोगुण की वृद्धि करने का उपदेश देता हूँ। अन्न-वस्त्र की कमी और उसकी चिन्ता से देश बुरी अवस्था में चला जा रहा है – इसके लिए तुम लोग क्या कर रहे हो? फेंक दे अपने शास्त्र-फास्त्र गंगाजी में। देश के लोगों को पहले अन्न की व्यवस्था करने का उपाय सिखा दे, उसके बाद उन्हें भागवत का पाठ सुनाना। कर्मतत्परता के द्वारा इहलोक का अभाव दूर न होने पर कोई धर्म की कथा ध्यान से न सुनेगा। इसीलिए कहता हूँ, पहले अपने में अन्तर्निहित आत्मशक्ति को जाग्रत कर, फिर देश के समस्त व्यक्तियों में जितना सम्भव हो उस शक्ति के प्रति विश्वास उत्पन्न कर। पहले अन्न की व्यवस्था कर, बाद में उन्हें धर्म प्राप्त करने की शिक्षा दे। अब अधिक बैठे रहने का समय नहीं है – कब किसकी मृत्यु होगी, कौन कह सकता है?
बात करते करते क्षोभ, दुःख और दया के सम्मिलन से स्वामीजी के मुखमण्डल पर एक अपूर्व तेज उद्भासित हो उठा। आँखों से मानो अग्निकण निकलने लगे। उनकी उस समय की दिव्य मूर्ति का दर्शन कर भय और विस्मय के कारण शिष्य के मुख से बात न निकल सकी। कुछ समय के पश्चात् स्वामीजी फिर बोले, “उस प्रकार समय आते ही देश में कर्मतत्परता और आत्मनिर्भरता अवश्य आ जायगी – मैं स्पष्ट देख रहा हूँ there is no escape – दूसरी गति ही नहीं है। जो लोग बुद्धिमान हैं, वे भावी तीन युगों का चित्र सामने प्रत्यक्ष देख सकते हैं।”
“श्रीरामकृष्ण के जन्मग्रहण के समय से ही पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है – समय आते ही दोपहर के सूर्य की प्रखर किरणों से देश अवश्य ही आलोकित हो जायगा।”