भक्तियोग की स्वाभाविकता और उसका रहस्य – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“भक्तियोग की स्वाभाविकता और उसका रहस्य” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्तियोग से लिया गया है। इस अध्याय में स्वामी विवेकानंद बता रहे हैं कि भक्तियोग की स्वाभाविकता स्वयं सिद्ध है और भक्तिमार्ग सहज है। साथ ही वे यह भी समझा रहे हैं कि भक्तिमार्ग में उन्नति करने का क्या रहस्य है। इस किताब के अन्य अध्याय आप यहाँ पढ़ सकते हैं – हिंदी में भक्तियोग।
भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन पूछते हैं, “हे प्रभो, जो सतत युक्त हो तुम्हें भजता है, और जो अव्यक्त, निर्गुण का उपासक है, इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है?”1श्रीभगवान कहते हैं, “हे अर्जुन, मुझमें मन को एकाग्र करके जो नित्ययुक्त हो परम श्रद्धा के साथ मेरी उपासना करता है, वही मेरा श्रेष्ठ उपासक है, वही श्रेष्ठ योगी है। और जो इन्द्रिय-समुदाय को पूर्ण वश में करके, मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अव्यक्त और सदा एकरस रहनेवाले नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म की, निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासना करते हैं, वे समस्त भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव रखनेवाले योगी भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। किन्तु उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के लिए (साधन में) क्लेश अर्थात् परिश्रम अधिक है, क्योंकि देहाभिमानी व्यक्तियों द्वारा यह अव्यक्त गति बहुत दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है अर्थात् जब तक शरीर में अभिमान रहता है, तब तक शुद्ध सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होना कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण कर, मुझे अनन्य ध्यान और योग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, हे अर्जुन, मुझमें चित्त लगानेवाले उन प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूपी संसार-समुद्र से उद्धार करनेवाला होता हूँ।” उपर्युक्त कथन में ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों का दिग्दर्शन कराया गया है। कह सकते हैं कि उसमें दोनों की व्याख्या कर दी गयी है। ज्ञानयोग अवश्य अति श्रेष्ठ मार्ग है। तत्त्वविचार उसका प्राण है। और आश्चर्य की बात तो यह है कि सभी सोचते है कि वे ज्ञानयोग के आदर्शानुसार चलने में समर्थ हैं। परन्तु वास्तव में ज्ञानयोग-साधना बड़ी कठिन है। उसमें गिर जाने की बड़ी आशंका रहती है।
संसार में हम दो प्रकार के मनुष्य देखते हैं। एक तो आसुरी प्रकृतिवाले, जिनकी दृष्टि में शरीर का पालन-पोषण ही सर्वस्व है, और दूसरे दैवी प्रकृतिवाले, जिनकी यह धारणा रहती है कि शरीर किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति का – आत्मोन्नति का एक साधन मात्र है। शैतान भी अपनी कार्यसिद्धि के लिए शास्त्रों को उद्धृत कर सकता है और करता भी है। और इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानमार्ग जिस प्रकार साधु व्यक्तियों के सत्कार्य का प्रबल प्रेरक है, उसी प्रकार असाधु व्यक्तियों के भी कार्य का समर्थक है। ज्ञानयोग में यही एक बड़े खतरे की बात है। परन्तु भक्तियोग बिलकुल स्वाभाविक और मधुर है। भक्त उतनी ऊँची उड़ान नहीं उड़ता, जितना कि एक ज्ञानयोगी, और इसीलिए उसके बड़े खड्डों में गिरने की आशंका भी नहीं रहती। पर हाँ, इतना समझ लेना होगा कि साधक किसी भी पथ पर क्यों न चले, जब तक आत्मा के सारे बन्धन छूट नहीं जाते, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता।
निम्नोक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार एक भाग्यशालिनी गोपी पाप और पुण्य के बन्धनों से मुक्त हो गयी थी। “भगवान के ध्यान से उत्पन्न तीव्र आनन्द ने उसके समस्त पुण्यकर्मजनित बन्धनों को काट दिया। फिर भगवान की प्राप्ति न होने की परम आकुलता से उसके समस्त पाप धुल गये और वह मुक्त हो गयी।”2 अतएव भक्तियोग का रहस्य यह है कि मनुष्य के हृदय में जितने प्रकार की वासनाएँ और भाव हैं, उनमें से कोई भी स्वरूपतः खराब नहीं है; उन्हें धीरे धीरे अपने वश में लाकर उनकी गति क्रमशः उच्च से उच्चतर दिशा में फेरनी होगी। और यह कब तक करना होगा? जब तक कि वे परमोच्च दशा को प्राप्त न हो जायँ। उनकी सर्वोच्च गति है भगवान, और उनकी शेष सब गतियाँ निम्नाभिमुखी हैं। हम देखते हैं कि हमारे जीवन में सुख और दुःख सर्वदा लगे ही रहते हैं। जब कोई मनुष्य धन अथवा अन्य किसी सांसारिक वस्तु के अभाव से दुःख अनुभव करता है, तो वह अपनी भावनाओं को गलत मार्ग पर ले जा रहा है। फिर भी, दुःख की भी उपयोगिता है। यदि मनुष्य इस बात के लिए दुःख करने लगे कि अब तक उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई, तो वह दुःख उसकी मुक्ति का हेतु बन जायगा। जब कभी तुम्हें इस बात का आनन्द होता है कि तुम्हारे पास चाँदी के कुछ टुकड़े हैं, तो समझना कि तुम्हारी आनन्द-वृत्ति गलत रास्ते पर जा रही है। उसे उच्चतर दिशा की ओर ले जाना होगा, हमें अपने सर्वोच्च लक्ष्य भगवान के चिन्तन में आनन्द अनुभव करना होगा। हमारी अन्य सब भावनाओं के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसी ही बात है। भक्त की दृष्टि में उनमें से कोई भी खराब नहीं है; वह उन सब को लेकर केवल भगवान की ओर फेर देता है।
- अर्जुन उवाच – एवं सततयुक्ता ये भक्ताः त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
भगवान् उवाच – मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमाः मताः॥
ये त्वक्षरम् अनिर्देश्यम् अव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगम् अचिन्त्यं च कूटस्थम् अचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्वभूतहिते रताः॥
क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहबद्भिरवाप्यते॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषाम् अहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि न चिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
गीता, १२।१-७ - तच्चिन्ताविपुलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा।
तदप्राप्तिमद्दुःखविलीनाशेषपातका॥
चिन्तयन्ती जगत्सूतिं परब्रह्मस्वरूपिणम्।
निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका॥
विष्णुपुराण, ५।१३।२१-२२
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