कुंती का चरित्र चित्रण
कुंती महाभारत की कथा में एक प्रमुख पात्र हैं। हमारे यहाँ शास्त्रों में अहल्या, मन्दोदरी, तारा, कुंती और द्रौपदी–ये पाँचों देवियाँ नित्य कन्याएँ कही गयी हैं। इनका नित्य स्मरण करने से मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है। महारानी कुंती वसुदेव जी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं।
जन्म से लोग इन्हें पृथा के नाम से पुकारते थे। ये महाराज कुंती भोज को गोद दे दी गयी थीं तथा वहीं इनका लालन-पालन हुआ। अतः कुंती के नाम से विख्यात हुईं।
ये बाल्यकाल से ही अतिथि सेवी तथा साधु महात्माओं में अत्यन्त आस्था रखने वाली थीं। एक बार महर्षि दुर्वासा महाराज कुंतीभोज के यहाँ आये और बरसात के चार महीनों तक वहीं ठहर गये। उनकी सेवा का कार्य कुंती ने सँभाला। महर्षि महारानी की अनन्य निष्ठा और सेवा से परम प्रसन्न हुए और जाते समय कुंती को देवताओं के आवाहन का मन्त्र दे गये। उन्होंने कहा कि “संतान कामना से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, वह अपने दिव्य तेज से तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जायगा और उससे तुम्हारा कन्याभाव भी नष्ट नहीं होगा।” ‘दुर्वासा के चले जाने के बाद इन्होंने कुतूहलवश भगवान् सूर्य का आवाहन किया। फलस्वरूप सूर्य देव के द्वारा दानवीर कर्ण की उत्पत्ति हुई। लोकापवाद के भय के कारण इन्होंने नवजात कर्ण को पेटिका में बन्द करके नदी में डाल दिया। वह पेटिका नदी में स्नान करते समय अधिरथ नाम के सारथि को मिली। उसने कर्ण का लालन-पालन किया।
कुंती का विवाह महाराज पाण्डु से हुआ था। एक बार महाराज पाण्डु के द्वारा मृग रूप धारी किन्दम मुनि की हिंसा हो गयी। मुनि ने मरते समय उन्हें शाप दे दिया। इस घटना के बाद महाराज पाण्डु ने सब कुछ त्याग कर वन में रहने का निश्चय किया। महारानी कुंती भी पति सेवा के लिये वन में चली गयीं। पति के आदेश से कुंती ने धर्म, पवन और इन्द्र का आवाहन किया, जिस से धर्मराज युधिष्ठिर, महाबली भीम और महारथी अर्जुन की उत्पत्ति हुई। अपनी सौत माद्री को भी इन्होंने अश्विनी कुमारों के आवाहन का मन्त्र बतलाकर उन्हें नकुल और सहदेव की माता बनने का सौभाग्य प्रदान किया। महाराज पाण्डु के शरीरान्त होने के बाद माद्री तो उनके साथ सती हो गयीं, महारानी बच्चों के पालन-पोषण के लिये जीवित रह गयीं।
जब कुरुराज दुर्योधन ने पाँचों पाण्डवों को लाक्षागृह में भस्म कराने का कुचक्र रचा, तब माता कुंती भी उनके साथ थीं। पाण्डवों पर यह अत्यन्त विपत्ति का काल था। माता कुंती सब प्रकार से उनकी रक्षा करती थीं। दयावती तो वे इतनी थीं कि अपने शरण देने वाले ब्राह्मण परिवार की रक्षा के लिये उन्होंने अपने प्रिय पुत्र भीम को राक्षस का भोजन लेकर भेज दिया और भीम ने राक्षस को यमलोक भेजकर पुरवासियों को सुखी कर दिया। पाण्डवों का वनवास काल बीत जाने के बाद जब दुर्योधन ने उन्हें सुई के अग्रभाग के बराबर भी भूमि देना स्वीकार नहीं किया तो माता कुंती ने भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा अपने पुत्रों को आदेश दिया, “क्षत्राणी जिस समय के लिये अपने पुत्रों को जन्म देती है, वह समय अब आ गया है। पाण्डवों को युद्ध के द्वारा अपना अधिकार प्राप्त करना चाहिये।”
पाण्डवों की विजय हुई, किंतु वीरमाता कुंती ने राज्यभोग में सम्मिलित न होकर महाराज धृतराष्ट्र और सती गान्धारी के साथ वन में तपस्वी जीवन बिताना स्वीकार किया। कुंती के वन जाते समय भीमसेन ने कहा कि “यदि आपको अन्त में जाकर वन में तपस्या ही करनी थी तो आपने हम लोगों को युद्ध के लिये प्रेरित करके इतना बड़ा नरसंहार क्यों करवाया ?” इस पर कुंती देवी ने कहा, “तुम लोग क्षत्रिय धर्म का त्याग करके अपमान-पूर्ण जीवन न व्यतीत करो, इसलिये हमने तुम्हें युद्ध के लिये प्रेरित किया था। अपने सुख के लिये नहीं।” भगवानके निरन्तर स्मरण के लिये उनसे विपत्तिपूर्ण जीवन की याचना करने वाली माता कुंती धन्य हैं।