प्रमद्वरा का जीवित होना – महाभारत का नवम अध्याय (पौलोमपर्व)
प्रमद्वरा का जीवित होना असंभव-सा प्रतीत होता था। पिछले अध्याय में प्रमद्वरा की साँप के काटने से मृत्यु हो चुकी थी। किंतु प्रमद्वरा के वियोग में रुरु रोता-बिलखता जा रहा था। अपनी आधी आयु देकर प्रमद्वरा को जीवित करने का उपाय जानकर वह ऐसा करने के लिए तैयार हो गया। उसने धर्मराज के आशीष से अपनी आधी आयु प्रमद्वरा को देकर फिर जीवित कर दिया। इसके बाद दोनों का विवाह हो गया। पढ़ें कैसे सम्भव हुआ प्रमद्वरा का जीवित होना आदि पर्व के अन्तर्गत पौलोम पर्व के इस अध्याय में। महाभारत की शेष कथा पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत।
सौतिरुवाच
तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु महात्मसु।
रुरुश्चुक्रोश गहनं वनं गत्वातिदुःखितः ॥ १ ॥
शोकेनाभिहतः सोऽथ विलपन् करुणं बहु।
अब्रवीद् वचनं शोचन् प्रियां स्मृत्वा प्रमद्वराम् ॥ २ ॥
शेते सा भुवि तन्वङ्गी मम शोकविवर्धिनी।
बान्धवानां च सर्वेषां किं नु दुःखमतः परम् ॥ ३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक जी! वे ब्राह्मण प्रमद्वरा के चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसी समय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहन वन में जाकर जोर-जोर से रुदन करने लगा। शोक से पीड़ित होकर उसने बहुत करुणाजनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वरा का स्मरण कर के शोक-मग्न हो इस प्रकार बोला—‘हाय! वह कृशांगी बाला मेरा तथा समस्त बान्धवों का शोक बढ़ाती हुई भूमि पर सो रही है; इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है? ॥ १—३ ॥
यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि।
सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया ॥ ४ ॥
‘यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनों की भली-भाँति आराधना की हो तो उसके पुण्य से मेरी प्रिया जीवित हो जाय ॥ ४ ॥
यथा च जन्मप्रभृति यतात्माहं धृतव्रतः।
प्रमद्वरा तथा ह्येषा समुत्तिष्ठतु भामिनी ॥ ५ ॥
‘यदि मैंने जन्म से लेकर अब तक मन और इन्द्रियों पर संयम रखा हो और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे’ ॥ ५ ॥
(कृष्णे विष्णौ हृषीकेशे लोकेशेऽसुरविद्विषि।
यदि मे निश्चला भक्तिर्मम जीवतु सा प्रिया ॥)
‘यदि पापी असुरों का नाश करने वाले, इन्द्रियों के स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे’।
एवं लालप्यतस्तस्य भार्यार्थे दुःखितस्य च।
देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं वने ॥ ६ ॥
इस प्रकार जब रुरु पत्नी के लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समय एक देवदूत उसके पास आया और वन में रुरु से बोला ॥ ६ ॥
देवदूत उवाच
अभिधत्से ह यद् वाचा रुरो दुःखेन तन्मृषा।
यतो मर्त्यस्य धर्मात्मन् नायुरस्ति गतायुषः ॥ ७ ॥
गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसोः सुता।
तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन ॥ ८ ॥
देवदूत ने कहा—धर्मात्मा रुरु! तुम दुःख से व्याकुल हो अपनी वाणी द्वारा जो कुछ कहते हो, वह सब व्यर्थ है; क्योंकि जिस मनुष्य की आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयु नहीं मिल सकती। यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सरा की पुत्री थी। इसे जितनी आयु मिली थी, वह पूरी हो चुकी है। अतः तात! तुम किसी तरह भी मन को शोक में न डालो ॥ ७-८ ॥
उपायश्चात्र विहितः पूर्वं देवैर्महात्मभिः।
तं यदीच्छसि कर्तुं त्वं प्राप्स्यसीह प्रमद्वराम् ॥ ९ ॥
इस विषय में महात्मा देवताओं ने एक उपाय निश्चित किया है। यदि तुम उसे करना चाहो तो इस लोक में प्रमद्वरा को पा सकोगे ॥ ९ ॥
क उपायः कृतो देवैर्ब्रूहि तत्त्वेन खेचर।
करिष्येऽहं तथा श्रुत्वा त्रातुमर्हति मां भवान् ॥ १० ॥
रुरु बोला—आकाशचारी देवदूत! देवताओं ने कौन-सा उपाय निश्चित किया है, उसे ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूँगा। तुम मुझे इस दुःख से बचाओ ॥ १० ॥
देवदूत उवाच
आयुषोउर्धं प्रयच्छ त्वं कन्यायै भृगुनन्दन।
एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा ॥ ११ ॥
देवदूत ने कहा—भृगु-नन्दन रुरु! तुम उस कन्या के लिये अपनी आधी आयु दे दो। ऐसा करने से तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी ॥ ११ ॥
रुरुरुवाच
आयुषोऽर्धं प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम।
शृङ्गाररूपाभरणा समुत्तिष्ठतु मे प्रिया ॥ १२ ॥
रुरु बोला—देवश्रेष्ठ! मैं उस कन्या को अपनी आधी आयु देता हूँ। मेरी प्रिया अपने शृंगार, सुन्दर रूप और आभूषणों के साथ जीवित हो उठे ॥ १२ ॥
सौतिरुवाच
ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमौ।
धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् ॥ १३ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषों ने धर्मराज के पास जाकर कहा— ॥ १३ ॥
धर्मराजायुषोऽर्धेन रुरोर्भार्या प्रमद्वरा।
समुत्तिष्ठतु कल्याणी मृतैवं यदि मन्यसे ॥ १४ ॥
‘धर्मराज! रुरु की भार्या कल्याणी प्रमद्वरा मर चुकी है। यदि आप मान लें तो वह रुरु की आधी आयु से जीवित हो जाय’ ॥ १४ ॥
धर्मराज उवाच
प्रमद्वरां रुरोर्भार्यां देवदूत यदीच्छसि।
उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्धेन रुरोरेव समन्विता ॥ १५ ॥
धर्मराज बोले—देवदूत! यदि तुम रुरु की भार्या प्रमद्वरा को जिलाना चाहते हो तो वह रुरु की ही आधी आयु से संयुक्त होकर जीवित हो उठे ॥ १५ ॥
सौतिरुवाच
एवमुक्ते ततः कन्या सोदतिष्ठत् प्रमद्वरा।
रुरोस्तस्यायुषोऽर्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी ॥ १६ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं— धर्मराज के ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनि-कन्या प्रमद्वरा रुरु की आधी आयु से संयुक्त हो सोयी हुई की भाँति जाग उठी ॥ १६ ॥
एतद् दृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजसः।
आयुषोऽतिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेऽर्धमलुप्यत ॥ १७ ॥
तत इष्टेऽहनि तयोः पितरौ चक्रतुर्मुदा।
विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ ॥ १८ ॥
उत्तम तेजस्वी रुरु के भाग्य में ऐसी बात देखी गयी थी। उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। जब उन्होंने भार्या के लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनों के पिताओं ने निश्चित दिन में प्रसन्नतापूर्वक उनका विवाह कर दिया। वे दोनों दम्पति एक-दूसरे के हितैषी होकर आनन्दपूर्वक रहने लगे ॥ १७-१८ ॥
स लब्ध्वा दुर्लभां भार्यां पद्मकिञ्जल्कसुप्रभाम्।
व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रतः ॥ १९ ॥
कमल के केसर की-सी कान्तिवाली उस दुर्लभ भार्या को पाकर व्रतधारी रुरु ने सर्पों के विनाश का निश्चय कर लिया ॥ १९ ॥
स दृष्ट्वा जिह्मगान् सर्वांस्तीव्रकोपसमन्वितः।
अभिहन्ति यथासत्त्वं गृह्य प्रहरणं सदा ॥ २० ॥
वह सर्पों को देखते ही अत्यन्त क्रोध में भर जाता और हाथ में डंडा ले उन पर यथाशक्ति प्रहार करता था ॥ २० ॥
स कदाचिद् वनं विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत्।
शयानं तत्र चापश्यद् डुण्डुभं वयसान्वितम् ॥ २१ ॥
एक दिनकी बात है, ब्राह्मण रुरु किसी विशाल वन में गया, वहाँ उसने डुण्डुभ जाति के एक बूढ़े साँप को सोते देखा ॥ २१ ॥
तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा।
जिघांसुः कुपितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ॥ २२ ॥
उसे देखते ही उसके क्रोध का पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मण ने उस समय सर्प को मार डालने की इच्छा से कालदण्ड के समान भयंकर डंडा उठाया। तब उस डुण्डुभ ने मनुष्य की बोली में कहा— ॥ २२ ॥
नापराध्यामि ते किञ्चिदहमद्य तपोधन।
संरम्भाच्च किमर्थं मामभिहंसि रुषान्वितः ॥ २३ ॥
तपोधन! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है? फिर किसलिये क्रोध के आवेश में आकर तुम मुझे मार रहे हो’ ॥ २३ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वराजीवने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें प्रमद्वराके जीवित होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)