अंगद की कथा रामायण के अनुसार
युवराज अंगद सुग्रीव के बड़े भाई बाली के पुत्र थे। बाली इनसे सर्वाधिक प्रेम करता था। ये परम बुद्धिमान, अपने पिता के समान बलशाली तथा भगवान श्री राम के परम भक्त थे। अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी और सर्वस्वहरण करने के अपराध में भगवान् श्रीराम के हाथों बाली की मृत्यु हुई।
मरते समय बाली ने भगवान राम जी को ईश्वर के रूप में पहचाना और अपने पुत्र को उनके चरणों में सेवक के रूप में समर्पित कर दिया। प्रभु श्रीराम ने बाली की अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए अंगद को स्वीकार किया। सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य मिला और अंगद युवराज बनाये गये।
सीता जी की खोज में वानरी सेना का नेतृत्व युवराज ने ही किया। पक्षीराज जटायु के भाई सम्पाती से सीताजी के लंका में होने की बात जानकर अंगद जी समुद्र पार जाने के लिये तैयार हो गये, किन्तु दल का नेता होने के कारण जामवन्त जी ने इन्हें जाने नहीं दिया और श्री हनुमान जी लंका गये। भगवान् श्रीराम का उनके के शौर्य और बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था, इसीलिये उन्होंने रावण को सभा में युवराज को अपना दूत बनाकर भेजा। रावण नीतिज्ञ था। उसने भेद-नीति से काम लेते हुए अंगद जी से कहा, “बाली मेरा मित्र था। ये राम और लक्ष्मण बाली को मारने वाले हैं। यह बड़ी लज्जा की बात है कि तुम अपने पितृघातियों के लिये दूत कर्म कर रहे हो।”
युवराज अंगद ने रावण को फटकारते हुए कहा, “मूर्ख रावण! तुम्हारी इन बातों से केवल उनके मन में भेद पैदा हो सकता है, जिनकी श्रीराम के प्रति भक्ति नहीं है। बाली ने जो किया, उसे उसका फल मिला। तुम भी थोड़े दिनों बाद जाकर वहीं यमलोक में अपने मित्र का समाचार पूछना।”
जब रावण भगवान की निन्दा करने लगा तो युवराज अंगद सह नहीं सके। क्रोध करके इन्होंने मुट्ठी बाँधकर अपनी दोनों भुजाएँ पृथ्वी पर इतने जोर से मारीं कि भूमि हिल गयी। रावण गिरते-गिरते बचा। उसके मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। उनमें चार मुकुट अंगद जी ने राम के शिविर की ओर फेंक दिया। लंका युद्ध में भी श्री अंगद जी का शौर्य अद्वितीय रहा। बहुत-से राक्षस इनके हाथों यमलोक सिधारे।
लंका विजय के बाद श्री राम अयोध्या पधारे। उनका विधिवत् अभिषेक सम्पन्न हुआ। सभी कपिनायकों को जब विदा करके भगवान् श्रीराम अंगद के पास आये, तब उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। वे भगवान से बोले–“नाथ! मेरे पिता ने मरते समय मुझे आपके चरणों में डाला था। अब आप मेरा त्याग न करें। मुझे अपने चरणों में ही पड़ा रहने दें। यह कहकर अंगद जी भगवान् के चरणों में गिर पड़े। प्रभु श्रीराम ने इन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। उन्होंने अपने निजी वस्त्र तथा आभूषण अंगद को पहनाये और स्वयं इन्हें पहुँचाने चले। अंगद जी मन मारकर किष्किन्धा लौटे और भगवान के स्मरण में अपना समय बिताने लगे।