अमृत मंथन की समाप्ति – महाभारत का उन्नीसवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“अमृत मंथन की समाप्ति” नामक महाभारत की यह कथा आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। इस अध्याय में कथा समुद्र मंथन की कथा के आगे आरंभ होती है। इसमें वर्णन आता है कि किस प्रकार देवता अमृतपान कर लेते हैं और भयंकर देवासुर संग्राम होता है। इस संग्राम में देवताओं की विजय होती है और दैत्य व दानव हार जाते हैं। पढ़ें अमृत मंथन की समाप्ति की कथा इस अध्याय में। महाभारत की अन्य कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत।
सौतिरुवाच
अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च ।
प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ॥ १ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—अमृत हाथ से निकल जाने पर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं पर टूट पड़े ॥ १ ॥
ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् ।
जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ॥ २ ॥
ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा ।
विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ॥ ३ ॥
उधर अनन्त शक्तिशाली नर सहित भगवान् नारायण ने जब मोहिनी रूप धारण करके दानवेन्द्रों के हाथ से अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान विष्णु से अमृत ले-लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्ध की सम्भावना हो गयी थी ॥ २-३ ॥
ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् ।
राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ॥ ४ ॥
जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृत का पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामक दानव ने देवता रूप से आकर अमृत पीना आरम्भ किया ॥ ४ ॥
तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा ।
आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ॥ ५ ॥
वह अमृत अभी उस दानव के कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने देवताओं के हित की इच्छा से उसका भेद बतला दिया ॥ ५ ॥
ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् ।
चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ॥ ६ ॥
तब चक्रधारी भगवान् श्री हरि ने अमृत पीने वाले उस दानव का मुकुट-मण्डित मस्तक चक्र द्वारा बल पूर्वक काट दिया ॥ ६ ॥
तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् ।
चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ॥ ७ ॥
चक्र से कटा हुआ दानव का महान् मस्तक पर्वत के शिखर-सा जान पड़ता था। वह आकाश में उछल-उछल कर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ॥ ७ ॥
तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले ।
सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ॥ ८ ॥
किंतु उस दैत्य का वह धड़ धरती पर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित समूची पृथ्वी को कँपाता हुआ तड़फड़ा ने लगा ॥ ८ ॥
ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै ।
शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ॥ ९ ॥
तभी से राहु के मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनों पर ग्रहण लगाता है ॥ ९ ॥
विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।
नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् ॥ १० ॥
(देवताओं को अमृत पिलाने के बाद) भगवान् श्री हरि ने भी अपना अनुपम मोहिनी रूप त्यागकर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा दानवों को अत्यन्त कम्पित कर दिया ॥ १० ॥
ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।
सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ॥ ११ ॥
फिर तो क्षारसागर के समीप देवताओं और असुरों का सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया ॥ ११ ॥
प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः ।
तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ॥ १२ ॥
दोनों दलों पर सहस्रों तीखी धार वाले बड़े-बड़े भालों की मार पड़ने लगी। तेज नोक वाले तोमर तथा भाँति-भाँति के शस्त्र बरसने लगे ॥ १२ ॥
ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु ।
असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ॥ १३ ॥
छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः ।
तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ॥ १४ ॥
भगवान् के चक्र से छिन्न-भिन्न तथा देवताओं के खड्ग, शक्ति और गदा से घायल हुए असुर मुख से अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्ण की मालाओं से विभूषित दानवों के सिर भयंकर पट्टिशों से कटकर निरन्तर युद्ध भूमि में गिर रहे थे ॥ १३-१४ ॥
रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः ।
अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ॥ १५ ॥
वहाँ खून से लथपथ अंग वाले मरे हुए महान् असुर, जो समर भूमि में सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत-शिखरों के समान जान पड़ते थे ॥ १५ ॥
हाहाकारः समभवत् तत्र तत्र सहस्रशः ।
अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ॥ १६ ॥
संध्या के समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक-दूसरे के शस्त्रों से कटने वाले सहस्रों योद्धाओं का हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा ॥ १६ ॥
परिघैरायसैस्तीक्ष्णैः संनिकर्षे च मुष्टिभिः ।
निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् ॥ १७ ॥
उस समरांगण में दूरवर्ती देवता और दानव लोहे के तीखे परिघों से एक-दूसरे पर चोट करते थे और निकट आ जाने पर आपस में मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रत्याघात का शब्द मानो सारे आकाश में गूँज उठा ॥ १७ ॥
छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च ।
व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ॥ १८ ॥
उस रणभूमि में चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि ‘टुकड़े-टुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो’ ॥ १८ ॥
एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये ।
नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम् ॥ १९ ॥
इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णु के दो रूप नर और नारायण देव भी युद्ध भूमि में आ गये ॥ १९ ॥
तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि ।
चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम् ॥ २० ॥
भगवान् नारायण ने वहाँ नर के हाथ में दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानव संहारक दिव्य चक्र का चिन्तन किया ॥ २० ॥
ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं
महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् ।
विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं
सुदर्शनं संयति भीमदर्शनम् ॥ २१ ॥
चिन्तन करते ही शत्रुओं को संताप देने वाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाश मार्ग से उनके हाथ में आ गया। वह सूर्य एवं अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्र की गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्ध में शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ॥ २१ ॥
तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं
भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः ।
मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवान्
महाप्रभं परनगरावदारणम् ॥ २२ ॥
वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के बड़े-बड़े नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड़ के समान विशाल भुजदण्ड वाले उग्रवेगशाली भगवान् नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया ॥ २२ ॥
तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं
पुनः पुनर्न्यपतत वेगवत्तदा ।
विदारयद् दितिदनुजान् सहस्रशः
करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ॥ २३ ॥
उस महासमर में पुरुषोत्तम श्रीहरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवों को विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा ॥ २३ ॥
दहत् क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत्
प्रसह्य तानसुरगणान् न्यकृन्तत ।
प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा
पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत् ॥ २४ ॥
श्री हरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठ पूर्वक उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घूम-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्त पीने लगा ॥ २४ ॥
तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो
मुहुर्मुहुः सुरगणमार्दयंस्तदा ।
महाबला विगलितमेघवर्चसः
सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह ॥ २५ ॥
इसी प्रकार उदार एवं उत्साह भरे हृदय वाले महाबली असुर भी, जो जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिला खण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीड़ित करने लगे ॥ २५ ॥
अथाम्बराद् भयजननाः प्रपेदिरे
सपादपा बहुविधमेघरूपिणः ।
महाद्रयः परिगलिताग्रसानवः
परस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वनाः ॥ २६ ॥
तत्पश्चात् आकाश से नाना प्रकार के लाल, पीले, नीले आदि रंग वाले बादलों-जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षों सहित पृथ्वी पर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरे से टकराकर बड़े जोर का शब्द करते थे ॥ २६ ॥
ततो मही प्रविचलिता सकानना
महाद्रिपाताभिहता समन्ततः ।
परस्परं भृशमभिगर्जतां मुहू
रणाजिरे भृशमभिसम्प्रवर्तिते ॥ २७ ॥
उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोर से गरजने वाले देवताओं और असुरों के उस समरांगण में सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बड़े-बड़े पर्वतों के गिरने से आहत हुई वनसहित सारी भूमि काँपने लगी ॥ २७ ॥
नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै-
र्महेषुभिर्गगनपथं समावृणोत् ।
विदारयन् गिरिशिखराणि पत्रिभिः
महाभयेऽसुरगणविग्रहे तदा ॥ २८ ॥
तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राम में भगवान् नर ने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभाग वाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणों द्वारा पर्वत-शिखरों को विदीर्ण करते हुए समस्त आकाश मार्ग को आच्छादित कर दिया ॥ २८ ॥
ततो महीं लवणजलं च सागरं
महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरैः ।
वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं
सुदर्शनं परिकुपितं निशम्य ते ॥ २९ ॥
इस प्रकार देवताओं के द्वारा पीड़ित हुए महादैत्य आकाश में जलती हुई आग के समान उद्भासित होने वाले सुदर्शन चक्र को अपने ऊपर कुपित देख पृथ्वी के भीतर और खारे पानी के समुद्र में घुस गये ॥ २९ ॥
ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरः
स्वमेव देशं गमितः सुपूजितः ।
विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वशः
ततो गताः सलिलधरा यथागतम् ॥ ३० ॥
तदनन्तर देवताओं ने विजय पाकर मन्दराचल को सम्मान पूर्वक उसके पूर्वस्थान पर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करने वाले देवता अपने सिंहनाद से अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक को भी सब ओर से गुँजाते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ ३० ॥
ततोऽमृतं सुनिहितमेव चक्रिरे
सुराः परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम् ।
ददौ च तं निधिममृतस्य रक्षितुं
किरीटिने बलभिदथामरैः सह ॥ ३१ ॥
देवताओं को इस विजय से बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृत को बड़ी सुव्यवस्था से रखा। अमरों सहित इन्द्र ने अमृत की वह निधि किरीटधारी भगवान् नर को रक्षा के लिये सौंप दी ॥ ३१ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनसमाप्तिर्नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में अमृत मंथन की समाप्ति नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥