धर्मस्वामी विवेकानंद

भक्ति के लक्षण – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)

“भक्ति के लक्षण” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग का द्वितीय अध्याय है। भक्ति की साधना के लिए यह ठीक-ठीक समझना बहुत आवश्यक है कि वस्तुतः भक्ति क्या है और भक्ति के लक्षण क्या हैं। यहाँ वे प्राचीन शास्त्रों और भाष्यकारों का इस विषय पर मत भी प्रकट करते हैं। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में भक्तियोग पढ़ें

निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस खोज का आरम्भ मध्य और अन्त प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति देनेवाली होती है। भक्तिसूत्र में नारदजी कहते हैं, “भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है।” “जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेम-पात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए सन्तुष्ट हो जाता है।” “इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किये रहती हैं, तब तक इस प्रेम का उदय ही नहीं होता।” “भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है,” क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर “भक्ति स्वयं ही साध्य और साधनस्वरूप है।”1

हमारे देश के साधु-महापुरुषों के बीच भक्ति ही चर्चा का एक विषय रही है। भक्ति की विशेष रूप से व्याख्या करनेवाले शाण्डिल्य और नारद जैसे महापुरुषों को छोड़ देने पर भी, स्पष्टतः ज्ञानमार्ग के समर्थक, व्याससूत्र के महान् भाष्यकारों ने भी भक्ति के सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ दर्शाया है। भले ही उन भाष्यकारों ने, सब सूत्रों की न सही, पर अधिकतर सूत्रों की व्याख्या शुष्क ज्ञान के अर्थ में ही की है, किन्तु यदि हम उन सूत्रों के, और विशेषकर उपासना-काण्ड के सूत्रों के अर्थ पर निरपेक्ष भाव से विचार करें तो देखेंगे कि उनकी इस प्रकार यथेच्छ व्याख्या नहीं हो सकती।

वास्तव में ज्ञान और भक्ति में उतना अन्तर नहीं, जितना लोगों का अनुमान है। पर जैसा हम आगे देखेंगे, ये दोनों हमें एक ही लक्ष्य-स्थल पर ले जाते हैं। यही हाल राजयोग का भी है। उसका अनुष्ठान जब मुक्तिलाभ के लिए किया जाता है – भोले-भाले लोगों की आँखों में धूल झोंकने के उद्देश्य से नहीं (जैसा बहुधा ढोंगी और जादू-मन्तरवाले करते है) – तो वह भी हमें उसी लक्ष्य पर पहुँचा देता है।

भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे चरम लक्ष्य (ईश्वर) की प्राप्ति का सब से सरल और स्वाभाविक मार्ग है। पर साथ ही उससे एक विशेष भय की आशंका यह है कि वह अपनी निम्न या गौणी अवस्था में मनुष्य को बहुधा भयानक मतान्ध और कट्टर बना देता है। हिन्दू, इस्लाम या ईसाई धर्म में जहाँ कहीं इस प्रकार के धर्मान्ध व्यक्तियों का दल है, वह सदैव ऐसे ही निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित हुआ है। वह इष्ट-निष्ठा, जिसके बिना यथार्थ प्रेम का विकास सम्भव नहीं, अक्सर दूसरे सब धर्मों की निन्दा का भी कारण बन जाती है। प्रत्येक धर्म और देश में जितने सब दुर्बल और अविकसित बुद्धिवाले मनुष्य हैं, वे अपने आदर्श से प्रेम करने का एक ही उपाय जानते है और वह है अन्य सभी आदर्शों को घृणा की दृष्टि से देखना। यही इस बात का उत्तर मिलता है कि वही मनुष्य, जो धर्म और ईश्वर सम्बन्धी अपने आदर्श में इतना अनुरक्त है, किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उस सम्बन्ध में कोई बात सुनते ही इतना खूँख्वार क्यों हो उठता है। इस प्रकार का प्रेम कुछ-कुछ, दूसरों के हाथ से अपने स्वामी की सम्पत्ति की रक्षा करने वाले एक कुत्ते की सहजप्रवृत्ति के समान है। पर हाँ, कुत्ते की वह सहज प्रेरणा मनुष्य की युक्ति से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह कुत्ता कम से कम अपने स्वामी को शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता – चाहे उसका स्वामी किसी भी वेष में उसके सामने क्यों न आये। फिर, मतान्ध व्यक्ति अपनी सारी विचार-शक्ति खो बैठता है। व्यक्तिगत विषयों की ओर उसकी इतनी अधिक नजर रहती है कि वह यह जानने का बिलकुल इच्छुक नहीं रह जाता है कि कोई व्यक्ति कहता क्या है – वह सही है या गलत; उसका एकमात्र ध्यान रहता है यह जानने में कि वह बात कहता कौन है। देखोगे, जो व्यक्ति अपने सम्प्रदाय के – अपने मतवाले लोगों के प्रति दयालु है, भला और सच्चा है, सहानुभूतिसम्पन्न है, वही अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकेगा।

पर यह आशंका भक्ति की केवल निम्नतर अवस्था में रहती है। इस अवस्था को ‘गौणी’ कहते हैं। परन्तु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे हम ‘परा’ कहते हैं, तब इस प्रकार की भयानक मतान्धता और कट्टरता की फिर आशंका नहीं रह जाती। इस ‘परा’ भक्ति से अभिभूत व्यक्ति प्रेमस्वरूप भगवान के इतने निकट पहुँच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा-भाव के विस्तार का यन्त्रस्वरूप नहीं हो सकता।

यह सम्भव नहीं कि इसी जीवन में हममें से प्रत्येक, सामंजस्य के साथ अपना चरित्रगठन कर सके; फिर भी हम जानते हैं कि जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग – इन तीनों का सुन्दर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है। एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है – दो पंख और पतवारस्वरूप एक पूँछ। ज्ञान और भक्ति मानो दो पंख है और योग पूँछ, जो सामंजस्य बनाये रखता है। जो इन तीनों साधनाप्रणालियों का एक साथ, सामंजस्य-सहित अनुष्ठान नहीं कर सकते और इसलिए केवल भक्ति को अपने मार्ग के रूप में अपना लेते हैं, उन्हें यह सदैव स्मरण रखना आवश्यक है कि यद्यपि बाह्य अनुष्ठान और क्रियाकलाप आरम्भिक दशा में नितान्त आवश्यक है, फिर भी भगवान के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न कर देने के अतिरिक्त उनकी और कोई उपयोगिता नहीं।

यद्यपि ज्ञान और भक्ति दोनों ही मार्गों के आचार्यों का भक्ति के प्रभाव में विश्वास है, फिर भी उन दोनों में कुछ थोड़ासा मतभेद है। ज्ञानी की दृष्टि में भक्ति मुक्ति का एक साधन मात्र है, पर भक्त के लिए वह साधन भी है और साध्य भी। मेरी दृष्टि में तो यह भेद नाम मात्र का है। वास्तव में, जब भक्ति को हम एक साधन के रूप में लेते हैं, तो उसका अर्थ केवल निम्न स्तर की उपासना होता है। और यह निम्न स्तर की उपासना ही आगे चलकर ‘परा’ भक्ति में परिणत हो जाती है। ज्ञानी और भक्त दोनों ही अपनी-अपनी साधनाप्रणाली पर विशेष जोर देते हैं; वे यह भूल जाते हैं कि पूर्ण भक्ति के उदय होने से पूर्ण ज्ञान बिना माँगे ही प्राप्त हो जाता है और इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी आप ही आ जाती है।

इस बात को ध्यान में रखते हुए हम अब यह समझने का प्रयत्न करें कि इस विषय में महान् वेदान्त-भाष्यकारों का क्या कथन है। ‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान शंकराचार्य कहते हैं, “लोग ऐसा कहते हैं, ‘वह गुरु का भक्त है, वह राजा का भक्त है।’ और वे यह बात उस व्यक्ति को सम्बोधित कर कहते हैं, जो गुरु या राजा का अनुसरण करता है और इस प्रकार यह अनुसरण ही जिसके जीवन का ध्येय है। इस प्रकार, जब वे कहते हैं, ‘एक पतिव्रता स्त्री अपने विदेशगये पति का ध्यान करती है’, तो यहाँ भी एक प्रकार से उत्कण्ठा-युक्त निरन्तर स्मृति को ही लक्ष्य किया गया है।”2 शंकराचार्य के मतानुसार यही भक्ति है।

इसी प्रकार ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान रामानुज कहते हैं –

“एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल ढालने पर जिस प्रकार वह एक अखण्ड धारा में गिरता है, उसी प्रकार किसी ध्येय वस्तु के निरन्तर स्मरण को ध्यान कहते हैं। ‘जब इस तरह की ध्यानावस्था ईश्वर के सम्बन्ध में प्राप्त हो जाती है, तो सारे बन्धन टूट जाते हैं।’ इस प्रकार, शास्त्रों में इस निरन्तर स्मरण को मुक्ति का साधन बतलाया है। फिर, यह स्मृति दर्शन के ही समान है, क्योंकि उसका तात्पर्य इस शास्त्रोक्त वाक्य के तात्पर्य के ही सदृश है – ‘उस पर और अवर (दूर और समीप) पुरुष के दर्शन से हृदय-ग्रन्थियाँ छिन्न हो जाती हैं, समस्त संशयों का नाश हो जाता है और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं।’ जो समीप है, उसके तो दर्शन हो सकते हैं, पर जो दूर है, उसका तो केवल स्मरण किया जा सकता है। फिर भी शास्त्रों का कथन है कि हमें तो उन्हें देखना है, जो समीप हैं और फिर दूर भी; और इस प्रकार शास्त्र हमें यह दर्शा दे रहे हैं कि उपर्युक्त प्रकार का स्मरण दर्शन के ही बराबर है। यह स्मृति प्रगाढ़ हो जाने पर दर्शन का रूप धारण कर लेती है। . . . शास्त्रों में प्रमुख स्थानों पर कहा है कि उपासना का अर्थ निरन्तर स्मरण ही है। और ज्ञान भी, जो असकृत् उपासना से अभिन्न है, निरन्तर स्मरण के अर्थ में ही वर्णित हुआ है। . . . अतएव श्रुतियों ने उस स्मृति को, जिसने प्रत्यक्ष अनुभूति का रूप धारण कर लिया है, मुक्ति का साधन बतलाया है। ‘आत्मा की अनुभूति न तो नाना प्रकार की विद्याओं से हो सकती है, न बुद्धि से और न बारम्बार वेदाध्ययन से। जिसको यह आत्मा वरण करती है, वही इसकी प्राप्ति करता है। तथा उसी के सम्मुख आत्मा अपना स्वरूप प्रकट करती है।’ यहाँ यह कहने के उपरान्त कि केवल श्रवण, मनन और निदिध्यासन से आत्मोपलब्धि नहीं होती, यह बताया गया है, ‘जिसको यह आत्मा वरण करती है, उसी के द्वारा यह प्राप्त होती है।’ जो अत्यन्त प्रिय है, उसी को वरण किया जाता है; जो इस आत्मा से अत्यन्त प्रेम करता है, वही आत्मा का सब से बड़ा प्रियपात्र है। यह प्रियपात्र जिससे आत्मा की प्राप्ति कर सके, उसके लिए स्वयं भगवान सहायता देते हैं; क्योंकि भगवान ने स्वयं कहा है, ‘जो मुझमें सतत युक्त हैं और प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उन्हें मैं ऐसा बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं।’ इसीलिए कहा गया है कि जिसे यह प्रत्यक्ष अनुभवात्मक स्मृति अत्यन्त प्रिय है, उसी को परमात्मा वरण करते हैं, वही परमात्मा की प्राप्ति करता है; क्योंकि जिनका स्मरण किया जाता है, उन परमात्मा को यह स्मृति अत्यन्त प्रिय है। यह निरन्तर स्मृति ही ‘भक्ति’ शब्द द्वारा अभिहित हुई है।”3

पतंजलि के ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भोज कहते हैं, “प्रणिधान वह भक्ति है, जिसमें इन्द्रियभोग आदि समस्त फलाकांक्षाओं का त्याग कर सारे कर्म उन परम गुरु परमात्मा को समर्पित कर दिये जाते हैं।”4 भगवान व्यास ने भी इसकी व्याख्या करते हुए कहा है, “प्रणिधान वह भक्ति है जिससे उस योगी पर परमेश्वर का अनुग्रह होता है और उसकी सारी आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाती हैं।”5 शाण्डिल्य के मतानुसार “ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है।”6 परा भक्ति की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या तो वह है, जो भक्तराज प्रह्लाद ने दी है “जैसी तीव्र आसक्ति अविवेकी पुरुषों की इन्द्रिय-विषयों में होती है, (तुम्हारे प्रति) उसी प्रकार की (तीव्र) आसक्ति तुम्हारा स्मरण करते समय कहीं मेरे हृदय से चली न जाय!”7 यह आसक्ति किसके प्रति? उन्हीं परम प्रभु ईश्वर के प्रति। किसी अन्य पुरुष (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) के प्रति आसक्ति को कभी भक्ति नहीं कह सकते। इसके समर्थन में एक प्राचीन आचार्य को उद्धृत करते हुए अपने श्रीभाष्य में रामानुज कहते हैं, “ब्रह्मा से लेकर एक तृण पर्यन्त संसार के समस्त प्राणी कर्मजनित जन्ममृत्यु के वश में हैं, अतएव अविद्यायुक्त और परिवर्तनशील होने के कारण वे इस योग्य नहीं कि ध्येय-विषय के रूप में वे साधक के ध्यान में सहायक हों।”8 शाण्डिल्य के ‘अनुरक्ति’ शब्द की व्याख्या करते हुए भाष्यकार स्वप्नेश्वर कहते हैं, उसका अर्थ है – ‘अनु’ यानी पश्चात्, और ‘रक्ति’ यानी आसक्ति, अर्थात् वह आसक्ति जो भगवान के स्वरूप और उनकी महिमा के ज्ञान के पश्चात् आती है।9 अन्यथा स्त्री, पुत्र आदि किसी भी व्यक्ति के प्रति अन्ध आसक्ति को ही हम ‘भक्ति’ कहने लगें! अतः हम स्पष्ट देखते हैं कि आध्यात्मिक अनुभूति के निमित्त किये जानेवाले मानसिक प्रयत्नों की परम्परा या क्रम ही भक्ति है, जिसका प्रारम्भ साधारण पूजापाठ से होता है और अन्त ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में।


  1. सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा।
    नारदभक्तिसूत्र, अनुवाक १, सूत्र १
    सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात्।
    नारदभक्तिसूत्र, अनुवाक २, सूत्र ७
    सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्यः अपि अधिकतरा।
    नारदभक्तिसूत्र, अनुवाक ४, सूत्र २५
    स्वयं फलरूपता इति ब्रह्मकुमाराः।
    नारदभक्तिसूत्र, अनुवाक ४, सूत्र ३०
  2. तथा हि लोके ‘गुरुम् उपास्ते’ ‘राजानम् उपास्ते’ इति च यः तात्पर्येण गुरु-आदीन् अनुवर्तते, सः एवम् उच्यते। तथा ‘ध्यायति प्रोषितनाथा पतिम्’ इति या निरन्तरस्मरणा पतिं प्रति सोत्कण्ठा सा एवम् अभिधीयते। – ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, ४।१।१
  3. ध्यानम् च तैलधारावत् अविच्छिन्नस्मृतिसन्तानरूपा ध्रुवा स्मृतिः। “स्मृत्युपलम्भे सर्वग्रन्थीनाम् विप्रमोक्षः” इति ध्रुवायाः स्मृतेः अपवर्गोपायत्वश्रवणात्। सा च स्मृतिः दर्शनसमानाकारा; “भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टेपरावरे” इति अनेन एकार्थ्यात्। एवम् च सति “आत्मा वा अरे द्रष्ट्व्यः” इति अनेननिदिध्यासनस्य दर्शनरूपता विधीयते। भवति च स्मृतेः भावनाप्रकर्षात् दर्शनरूपता। वाक्यकारेण एतत् सर्वम् प्रपञ्चितम्। ‘वेदनम्’ उपासनम् स्यात्, तद्विषये श्रवणात् इति सर्वासुउपनिषत्सु मोक्षसाधनतया विहितम् ‘वेदनम्’ उपासनम् इति उक्तम्। “सकृत् प्रत्ययम् कुर्यात्,शब्दार्थस्य कृतत्वात्, प्रयाजादिवत्” इति पूर्वपक्षम् कृत्वा “सिद्धम् तु उपासनशब्दात्” इतिवेदनम् असकृत् आवृत्तम् मोक्षसाधनम् इति निर्णीतम्। “उपासनम् स्यात् ध्रुवा अनुस्मृतिःदर्शनात् निर्वचनात् च” इति तस्य एव वेदनस्य उपासनरूपस्य असकृत् आवृत्तस्य ध्रुवानुस्मृतित्वम् उपवर्णितम्। सा इयम् स्मृतिः दर्शनरूपा प्रतिपादिता, दर्शनरूपता चप्रत्यक्षतापत्तिः। एवम् प्रत्यक्षतापन्नाम् अपवर्गसाधनभूताम् स्मृतिम् विशिनष्टि, – “न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः, न मेधया, न बहुना श्रुतेन; यम् एव एष वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषआत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम्” इति अनेन केवलश्रवण-मनन-निदिध्यासनानाम्आत्मप्राप्त्यनुपायत्वम् उक्त्वा “यम् एव एष आत्मा वृणुते, तेन एव लभ्यः” इति उक्तम्।प्रियतमः एव हि वरणीय भवति, यस्य अयम् निरतिशयप्रियः, स एव अस्य प्रियतमः भवति।यथा अयं प्रियतमः आत्मानम् प्राप्नोति, तथा स्वयम् एव भगवान् प्रयतते इति भगवता एव उक्तम् – “तेषाम् सततयुक्तानाम् भजताम् प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगम् तम् येन माम् उपयान्ति ते”इति “प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् अहम् स च मम प्रियः” इति च। अतः साक्षात्काररूपा स्मृतिः,स्मर्यमाणात्यर्थप्रियत्वेन स्वयम् अपि अत्यर्थ प्रिया यस्य, स एव परमात्मना वरणीयः भवति इतितेन एव लभ्यते परमात्मा इति उक्तम् भवति। एवंरूपा ध्रुवा अनुस्मृतिः एव भक्तिशब्देन अभिधीयते। – रामानुजभाष्य, ब्रह्मसूत्र, १।१।१ ।
  4. प्रणिधानं तत्र भक्तिविशेषविशिष्टम् उपासनम् सर्वक्रियाणाम् अपि तत्र अर्पणम्। विषयसुखादिकं फलम् अनिच्छन् सर्वाः क्रियाः तस्मिन् परमगुरौ अर्पयति। – भोजवृत्ति,पातंजल योगसूत्र, १।२३
  5. प्रणिधानात् भक्तिविशेषात् आवर्जितः ईश्वरः तम् अनुगृह्णाति अभिध्यानमात्रेण इत्यादि। – व्यासभाष्य, पातंजल योगसूत्र, १।२३
  6. ‘सा परा अनुरक्तिः ईश्वरे’। – शाण्डिल्यसूत्र, १।२
  7. या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।
    स्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु॥
    विष्णुपुराण, १।२०।१९
  8. आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ताः जगदन्तर्व्यवस्थिताः।
    प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशवर्तिनः॥
    यतस्ततो न ते ध्याने ध्यानिनाम् उपकारकाः।
    अविद्यान्तर्गताः सर्वे ते हि संसारगोचराः॥
  9. भगवन्महिमादिज्ञानादनु पश्चाज्जायमानत्वादनुरक्तिरित्युक्तम्।
    शाण्डिल्यसूत्र, स्वप्नेश्वर टीका, १।२

एक अमेज़न एसोसिएट के रूप में उपयुक्त ख़रीद से हमारी आय होती है। यदि आप यहाँ दिए लिंक के माध्यम से ख़रीदारी करते हैं, तो आपको बिना किसी अतिरिक्त लागत के हमें उसका एक छोटा-सा कमीशन मिल सकता है। धन्यवाद!

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!