दैवी प्रेम की मानवी विवेचना – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“दैवी प्रेम की मानवी विवेचना” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि दैवी प्रेम या भक्ति का प्रकाश मानवीय जीवन में किस प्रकार भिन्न-भिन्न तरीक़े से होता है। किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – भक्तियोग हिन्दी भाषा में।
प्रेम के इस परमोच्च और पूर्ण आदर्श को मानवी भाषा में प्रकट करना असम्भव है। उच्चतम मानवी कल्पना भी उसकी अनन्त पूर्णता तथा सौन्दर्य का अनुभव करने में असमर्थ है। परन्तु फिर भी सब समय, सारे देशों में, प्रेम-धर्म के उच्च और निम्न उभय श्रेणी के उपासकों को अपने अपने प्रेमादर्श का अनुभव और वर्णन करने के लिए इस अपूर्ण मानवी भाषा का ही प्रयोग करना पड़ा है। इतना ही नहीं, बल्कि भिन्न भिन्न प्रकार के मानवी प्रेम इस अव्यक्त दैवी प्रेम के प्रतीक-स्वरूप गृहीत हुए हैं। मनुष्य दैवी विषयों के सम्बन्ध में अपने मानवी ढंग से ही सोच सकता है, वह पूर्ण निरपेक्ष सत्ता हमारे समक्ष हमारी सापेक्ष भाषा में ही प्रकाशित हो सकती है। यह सारा विश्व हमारे लिए और है क्या? वह तो मानो ‘सान्त’ भाषा में लिखा हुआ ‘अनन्त’ मात्र है। इसीलिए भक्तगण भगवान और उनकी प्रेमोपासना के सम्बन्ध में उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो साधारण मानवी प्रेम के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। पराभक्ति के कई व्याख्याताओं ने इस दैवी प्रेम को अनेक प्रकार से समझने और उसका प्रत्यक्ष अनुभव करने की चेष्टा की है।
इस प्रेम के निम्नतम रूप को ‘शान्त’ भक्ति कहते हैं। जब भगवान की उपासना के समय मनुष्य के हृदय में प्रेमाग्नि प्रज्वलित नहीं रहती, जब वह प्रेम से उन्मत्त होकर अपनी सुधबुध नहीं खो बैठता, जब उसका प्रेम बाह्य क्रियाकलापों और अनुष्ठानों से कुछ थोड़ासा उन्नत एक साधारण-सा प्रेम रहता है, जब उसकी उपासना में प्रबल प्रेम की उन्मत्तता नहीं रहती, तब वह उपासना शान्त भक्ति या शान्त प्रेम कहलाती है। हम देखते हैं कि संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो साधन-पथ पर धीरे धीरे अग्रसर होना पसन्द करते हैं; और कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो आँधी के समान जोर से चले जाते हैं। शान्त भक्त धीर होता है, शान्त और नम्र होता है।
इससे कुछ ऊँची अवस्था है – ‘दास्य’। इस अवस्था में मनुष्य अपने को ईश्वर का दास समझता है। विश्वासी सेवक की अपने स्वामी के प्रति अनन्य भक्ति ही उसका आदर्श है।
इसके बाद है ‘सख्य’ प्रेम। इस सख्य प्रेम का साधक भगवान से कहता है, ‘तुम मेरे प्रिय सखा हो।’1 जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने मित्र के सम्मुख अपना हृदय खोल देता है और यह जानता है कि उसका मित्र उसके अवगुणों पर कभी ध्यान न देगा, वरन् उसकी सदा सहायता ही करेगा – उन दोनों में जिस प्रकार समानता का एक भाव रहता है, उसी प्रकार सख्य प्रेम के साधक और उसके सखा भगवान के बीच भी मानो एक प्रकार की समानता का भाव रहता है। इस तरह भगवान हमारे अन्तरंग मित्र हो जाते हैं, जिनको हम अपने जीवन की सारी बातें दिल खोलकर बता सकते हैं, जिनके समक्ष हम अपने हृदय के गुप्त से गुप्त भावों को भी बिना किसी हिचकिचाहट के प्रकट कर सकते हैं। उन पर हम पूरा भरोसा – पूरा विश्वास रख सकते हैं कि वे वही करेंगे, जिससे हमारा मंगल होगा; और ऐसा सोचकर हम पूर्ण रूप से निश्चिन्त रह सकते हैं। इस अवस्था में भक्त भगवान को अपनी बराबरी का समझता है – भगवान मानो हमारे संगी हों, सखा हों। हम सभी इस संसार में मानो खेल रहे हैं। जिस प्रकार बच्चे अपना खेल खेलते हैं, जिस प्रकार बड़े बड़े राजा-महाराजा भी अपना अपना खेल खेलते हैं, उसी प्रकार वे प्रेम-स्वरूप भगवान भी इस दुनिया के साथ खेल खेल रहे हैं। वे पूर्ण हैं – उन्हें किसी चीज का अभाव नहीं। उन्हें सृष्टि करने की क्या आवश्यकता है? जब हमें किसी चीज की आवश्यकता होती है, तभी हम उसकी पूर्ति के लिए क्रियाशील होते हैं, और अभाव का तात्पर्य ही है अपूर्णता। भगवान पूर्ण हैं – उन्हें किसी बात का अभाव नहीं। तो फिर वे इस नित्य कर्ममय सृष्टि में क्यों लगे हैं? उनका उद्देश्य क्या है? भगवान के सृष्टि-निर्माण के सम्बन्ध में जो भिन्न भिन्न कल्पनाएँ हैं, वे किम्वदन्तियों के रूप में ही भली हो सकती हैं, अन्य किसी प्रकार नहीं। सचमुच, यह समस्त उनकी लीला है। यह सारा विश्व उनका ही खेल है – वह तो उनके लिए एक तमाशा है। यदि तुम निर्धन हो, तो उस निर्धनता को ही एक बड़ा तमाशा समझो; यदि धनी हो, तो उस धनीपन को ही एक तमाशे के रूप में देखो। यदि दुःख आये, तो सोचो, वही एक सुन्दर तमाशा है, और यदि सुख प्राप्त हो, तो सोचो, यह भी एक सुन्दर तमाशा है। यह दुनिया बस एक खेल का मैदान है, और हम सब यहाँ पर नाना प्रकार के खेलखिलवाड़ कर रहे हैं – मौज कर रहे हैं। भगवान सारे समय हमारे साथ खेल रहे हैं और हम भी उनके साथ खेलते रहते हैं। भगवान तो हमारे चिरकाल के संगी हैं – हमारे खेल के साथी हैं। कैसा सुन्दर खेल रहे हैं वे! खेल खत्म हुआ कि कल्प का अन्त हो गया। फिर अल्प या अधिक समय तक विश्राम – उसके बाद फिर से खेल का आरम्भ – पुनः जगत् की सृष्टि! जब तुम भूल जाते हो कि यह सब एक खेल है और तुम इस खेल में सहायता कर रहे हो, तभी दुःख और कष्ट तुम्हारे पास आते हैं; तब हृदय भारी हो जाता है और संसार अपने प्रचण्ड बोझ से तुम्हें दबा देता है। पर ज्यों ही तुम इस दो पल के जीवन की परिवर्तनशील घटनाओं को सत्य समझना छोड़ देते हो और इस संसार को एक क्रीड़ाभूमि तथा अपने आपको भगवान की क्रीड़ा में एक सखा-संगी सोचने लगते हो, त्यों ही दुःख-कष्ट चला जाता है। वे तो प्रत्येक अणु-परमाणु में खेल रहे हैं। वे तो खेलते खेलते ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि का निर्माण कर रहे हैं। वे तो मानवहृदय, प्राणियों और पेड़-पौधौं के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। हम मानो उनके शतरंज के मोहरे हैं। वे मोहरों को शतरंज के खानों में बिठाकर इधर-उधर चला रहे हैं। वे हमें कभी एक प्रकार से सजाते हैं और कभी दूसरे प्रकार से – हम भी जाने या अनजाने उनके खेल में सहायता कर रहे हैं। अहा, कैसा आनन्द है! हम सब उनके खेल के साथी जो हैं!
इसके बाद है ‘वात्सल्य’ प्रेम। उसमें भगवान का चिन्तन पिता-रूप से न करके, सन्तान-रूप से करना पड़ता है। हो सकता है, यह कुछ अजीब सा मालूम हो, पर उसका उद्देश्य है – अपनी भगवान सम्बन्धी धारणा में से ऐश्वर्य के समस्त भाव दूर कर देना। ऐश्वर्य की भावना के साथ ही भय आता है। पर प्रेम में भय का कोई स्थान नहीं। यह सत्य है कि चरित्रगठन के लिए भक्ति और आज्ञापालन आवश्यक हैं, पर जब एक बार चरित्र गठित हो जाता है – जब प्रेमी शान्त-प्रेम का आस्वादन कर लेता है और जब प्रेम की प्रबल उन्मत्तता का भी उसे थोड़ासा अनुभव हो जाता है, तब उसके लिए नीतिशास्त्र और साधन नियम आदि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रेमी कहता है कि भगवान को महामहिम, ऐश्वर्यशाली, जगन्नाथ या देवदेव के रूप में सोचने की मेरी इच्छा ही नहीं होती। भगवान के साथ सम्बन्धित यह जो भयोत्पादक ऐश्वर्य की भावना है, उसी को दूर करने के लिए वह भगवान को अपनी सन्तान के रूप में प्यार करता है। माता-पिता अपने बच्चे से भयभीत नहीं होते, उसके प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। वे उस बच्चे से कुछ याचना नहीं करते। बच्चा तो सदा पानेवाला ही होता है और उसके लिए वे लोग सौ बार भी मरने को तैयार रहते हैं। अपने एक बच्चे के लिए वे लोग हजार जीवन भी न्योछावर करने को प्रस्तुत रहते हैं। बस इसी प्रकार भगवान से वात्सल्यभाव से प्रेम किया जाता है। जो सम्प्रदाय भगवान के अवतार में विश्वास करते हैं, उन्हीं में यह वात्सल्यभाव की उपासना स्वाभाविक रूप से आती और पनपती है। मुसलमानों के लिए भगवान को एक सन्तान के रूप में मानना असम्भव है; वे तो डरकर इस भाव से दूर ही रहेंगे। पर ईसाई और हिन्दू इसे सहज ही समझ सकते हैं, क्योंकि उनके तो बालक ईसा और बालक कृष्ण हैं। भारतीय रमणियाँ बहुधा अपने आपको श्रीकृष्ण की माता के रूप में सोचती हैं। ईसाई माताएँ भी अपने आपको ईसा की माता के रूप में सोच सकती हैं। इससे पाश्चात्य देशों में ईश्वर के मातृभाव का प्रचार होगा; इसी की आज उन्हें विशेष आवश्यकता है। भगवान के प्रति भयभक्ति के कुसंस्कार हमारे हृदय में बहुत गहरे जमे हुए हैं और भगवत्सम्बन्धी इन भय-भक्ति तथा महिमा-ऐश्वर्य के भावों को प्रेम में बिलकुल निमग्न कर देने में बहुत समय लगता है।
मानवी-जीवन में प्रेम का यह दैवी आदर्श एक और प्रकार से प्रकाशित होता है। उसे ‘मधुर’ कहते हैं और वही सब प्रकार के प्रेमों में श्रेष्ठ है। इस संसार में प्रेम की जो उच्चतम अभिव्यक्ति है, वही उसकी नींव है और मानवी प्रेमों में वही सब से प्रबल है। पुरुष और स्त्री के बीच जो प्रेम रहता है, उसके समान और कौनसा प्रेम है, जो मनुष्य की सारी प्रकृति को बिलकुल उलट-पलट दे, जो उसके प्रत्येक परमाणु में संचारित होकर उसको पागल बना दे, जो उसकी अपनी प्रकृति को ही भुला दे, और उसे चाहे तो देवता बना दे, चाहे पशु? दैवी प्रेम के इस मधुर भाव में भगवान का चिन्तन पति-रूप में किया जाता है – ऐसा विचार कर कि हम सभी स्त्रियाँ हैं, इस संसार में और कोई पुरुष नहीं, एकमात्र पुरुष हैं – वे; हमारे वे प्रेमास्पद ही एकमात्र पुरुष हैं। जो प्रेम पुरुष स्त्री के प्रति और स्त्री पुरुष के प्रति प्रदर्शित करती है, वही प्रेम भगवान को देना होगा। हम इस संसार में जितने प्रकार के प्रेम देखते हैं, जिनके साथ हम अल्प या अधिक परिमाण में क्रीड़ा मात्र कर रहे हैं, उन सब का एक ही लक्ष्य है और वह है भगवान। पर दुःख की बात है कि मनुष्य उस अनन्त समुद्र को नहीं जानता, जिसकी ओर प्रेम की यह महान् सरिता सतत प्रवाहित हो रही है; और इसलिए अज्ञानवश वह इस प्रेम-सरिता को बहुधा छोटे छोटे मानवी पुतलों की ओर बहाने का प्रयत्न करता रहता है। मानवी प्रकृति में सन्तान के प्रति जो प्रबल स्नेह देखा जाता है, वह सन्तानरूपी एक छोटेसे पुतले के लिए ही नहीं है। यदि तुम आँखें बन्द कर उसे केवल सन्तान पर ही न्योछावर कर दो, तो तुम्हें उसके फलस्वरूप दुःख अवश्य भोगना पड़ेगा। पर इस प्रकार के दुःख से ही तुममें यह चेतना जागृत होगी कि यदि तुम अपना प्रेम किसी मनुष्य को अर्पित करो, तो उसके फलस्वरूप कभी न कभी दुःख-कष्ट अवश्य आयेगा। अतएव हमें अपना प्रेम उन्हीं पुरुषोत्तम को देना होगा, जिनका विनाश नहीं, जिनका कभी परिवर्तन नहीं और जिनके प्रेमसमुद्र में कभी ज्वार-भाटा नहीं। प्रेम को अपने प्रकृत लक्ष्य पर पहुँचना चाहिए – उसे तो उनके निकट जाना चाहिए, जो वास्तव में प्रेम के अनन्त सागर हैं। सभी नदियाँ समुद्र में ही जाकर गिरती हैं। यहाँ तक कि पर्वत से गिरनेवाली पानी की एक बूँद भी, वह फिर कितनी भी बड़ी क्यों न हो, किसी झरने या नदी में पहुँचकर बस वहीं नहीं रुक जाती, वरन् वह भी अन्त में किसी न किसी प्रकार समुद्र में ही पहुँच जाती है। भगवान हमारे सब प्रकार के भावों के एकमात्र लक्ष्य हैं। यदि तुम्हें क्रोध करना हैं, तो भगवान पर क्रोध करो। उलाहना देना है, तो अपने प्रेमास्पद को उलाहना दो – अपने सखा को उलाहना दो! भला अन्य किसे तुम बिना डर के उलाहना दे सकते हो? मर्त्य जीव तुम्हारे क्रोध को न सह सकेगा। वहाँ तो प्रतिक्रिया होगी। यदि तुम मुझ पर क्रोध करो, तो निश्चित है, मैं तुरन्त प्रतिक्रिया करूँगा, क्योंकि मैं तुम्हारे क्रोध को सह नहीं सकता। अपने प्रेमास्पद से कहो, “प्रियतम, तुम मेरे पास क्यों नहीं आते? तुमने क्यों मुझे इस प्रकार अकेला छोड़ रखा है?” उनको छोड़ भला और किसमें आनन्द है? मिट्टी के छोटे छोटे लोंदो में भला कौनसा आनन्द हो सकता है? हमें तो अनन्त आनन्द के घनीभूत सार को ही खोजना है – और भगवान ही आनन्द के वह घनीभूत सार हैं। आओ, हम अपने समस्त भावों और समस्त प्रवृत्तियों को उनकी ओर मोड़ दें। वे सब तो उन्हीं के लिए हैं। वे यदि अपना लक्ष्य चूक जायँ, तो वे फिर कुत्सित रूप धारण कर लेंगे। पर यदि वे अपने ठीक लक्ष्यस्थल ईश्वर में जाकर पहुँचे, तो उनमें से अत्यन्त नीच वृत्ति भी पूर्णरूपेण परिवर्तित हो जायगी। भगवान ही मनुष्य के मन और शरीर की समस्त शक्तियों के एकमात्र लक्ष्य हैं – एकायन है, फिर वे शक्तियाँ किसी भी रूप से क्यों न प्रकट हों। मानवहृदय का समस्त प्रेम – सारे भाव भगवान की ही ओर जायँ। वे ही हमारे एकमात्र प्रेमास्पद हैं। यह मानवहृदय भला और किसे प्यार करेगा? वे परम सुन्दर हैं, परम महान् हैं – अहा! वे साक्षात् सौन्दर्यस्वरूप हैं, महत्त्व-स्वरूप हैं। इस संसार में भला और कौन है, जो उनसे अधिक सुन्दर हो? उन्हें छोड़ इस दुनिया में भला और कौन पति होने के उपयुक्त है? उनके सिवा इस जगत् में भला और कौन हमारा प्रेमपात्र हो सकता है? अतः वे ही हमारे पति हो, वे ही हमारे प्रेमास्पद हों। बहुधा ऐसा होता है कि भगवत्प्रेम में छके भक्तगण जब इस भगवत्प्रेम का वर्णन करने जाते हैं, तो इसके लिए वे सब प्रकार के मानवी प्रेम की भाषा को उपयोगी मानकर ग्रहण करते हैं। पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते – और वे कभी समझेंगे भी नहीं। वे उसे केवल भौतिक दृष्टि से देखते हैं। वे इस आध्यात्मिक प्रेमोन्मत्तता को नहीं समझ पाते। और वे समझ भी कैसे सकें? “हे प्रियतम, तुम्हारे अधरों के केवल एक चुम्बन के लिए! जिसका तुमने एक बार चुम्बन किया है, तुम्हारे लिए उसकी पिपासा बढ़ती ही जाती है। उसके समस्त दुःख चले जाते हैं। वह तुम्हें छोड़ और सब कुछ भूल जाता है।”2 प्रियतम के उस चुम्बन के लिए – उनके अधरों के उस स्पर्श के लिए व्याकुल होओ, जो भक्त को पागल कर देता है, जो मनुष्य को देवता बना देता है। भगवान जिसको एक बार अपना अधरामृत देकर कृतार्थ कर देते हैं, उसकी सारी प्रकृति बिलकुल बदल जाती है। उसके लिए यह जगत् उड़ जाता है, सूर्य और चन्द्र का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता और यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड एक बिन्दु के समान प्रेम के उस अनन्त सिन्धु में न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। प्रेमोन्माद की यही चरम अवस्था है। पर सच्चा भगवत्प्रेमी यहाँ पर भी नहीं रुकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ट नहीं। अतएव ऐसे भक्त अवैध (परकीय) प्रेम का भाव ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यन्त प्रबल होता है। पर देखो, उसकी अवैधता उनका लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पतिपत्नी का प्रेम अबाध रहता है – उसमें किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं आती। इसीलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त है और उसके माता, पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध करते हैं। इस प्रेम के मार्ग में जितनी ही बाधाएँ आती हैं, वह उतना ही प्रबल रूप धारण करता जाता है। श्रीकृष्णजी वृन्दावन के कुंजों में किस प्रकार लीला करते थे, किस प्रकार सब लोग उन्मत्त होकर उनसे प्रेम करते थें, किस प्रकार उनकी बाँसुरी की मधुर तान सुनते ही चिर-धन्या गोपियाँ सब कुछ भूलकर, इस संसार और उसके समस्त बन्धनों को भूलकर, यहाँ के सारे कर्तव्य तथा सुख-दुःख को बिसराकर, उन्मत्त-सी उनसे मिलने के लिए छूट पड़ती थीं – यह सब मानवी भाषा द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता! हे मानव, तुम दैवी प्रेम की बातें तो करते हो, पर साथ ही इस संसार की असार वस्तुओं में भी मन दिये रहते हो। क्या तुम सच्चे हो – क्या तुम्हारा मन और मुख एक है? “जहाँ राम हैं, वहाँ काम नहीं, और जहाँ काम है, वहाँ राम नहीं।”
वे दोनों कभी एक साथ नहीं रह सकते – प्रकाश और अन्धकार क्या कभी एक साथ रहे हैं?
- त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
पाण्डवगीता। - सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥
श्रीमद्भागवत, १०।३१ - जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम।
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम॥
गोस्वामी तुलसीदास
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