मंत्र ॐ – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“मंत्र” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि मंत्र क्या है, इसकी क्या आवश्यकता है और ॐकार का क्या रहस्य है। मंत्रों की शक्ति को जानने व समझने के लिए यह अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में स्वामी विवेकानंद कृत संपूर्ण भक्तियोग।
इन अवतारी महापुरुषों के वर्णन के बाद अब हम सिद्ध गुरुओं की चर्चा करेंगे। उन्हें मंत्र द्वारा शिष्य में आध्यात्मिक ज्ञान का बीजारोपण करना पड़ता है। ये मन्त्र क्या है? भारतीय दर्शन के अनुसार नाम और रूप ही इस जगत् की अभिव्यक्ति के कारण हैं। मानवी अन्तर्जगत् में एक भी ऐसी चित्तवृत्ति नहीं रह सकती, जो नाम-रूपात्मक न हो। यदि यह सत्य हो कि प्रकृति सर्वत्र एक ही नियम से निर्मित है, तो फिर इस नामरूपात्मकता को समस्त ब्रह्माण्ड का नियम कहना होगा। “जैसे मिट्टी के एक पिण्ड को जान लेने से मिट्टी की सब चीजों का ज्ञान हो जाता है,”1 उसी प्रकार इस देहपिण्ड को जान लेने से समस्त विश्वब्रह्माण्ड का ज्ञान हो जाता है। रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव, भीतर का गूदा। शरीर है रूप और मन या अन्तःकरण है नाम; और वाक्शक्तियुक्त समस्त प्राणियों में इस नाम के साथ उसके वाचक शब्दों का अभेद्य योग रहता है। मनुष्य के भीतर व्यष्टिमहत् या चित्त में विचार-तरंगे पहले शब्द के रूप में उठती हैं और फिर बाद में वे तदपेक्षा स्थूलतर रूप धारण कर लेती हैं
बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि-महत् ने पहले अपने को नाम के, और फिर बाद में रूप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत् के आकार में अभिव्यक्त किया। यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत् रूप है, और इसके पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट का अर्थ – समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात् भावों का नित्यसमवायी उपादान स्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते हैं। यही नहीं, बल्कि भगवान पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाते हैं और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेते हैं। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है ‘ॐ’। और चूँकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए यह ‘ॐ’ भी इस नित्य स्फोट से नित्यसंयुक्त है। अतएव समस्त विश्व की उत्पत्ति सारे नाम-रूपों की जननी स्वरूप इस ओंकार-रूप पवित्रतम शब्द से ही मानी जा सकती है। इस सम्बन्ध में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि यद्यपि शब्द और भाव में नित्य सम्बन्ध है तथापि एक ही भाव के अनेक वाचक शब्द हो सकते हैं, इसलिए यह आवश्यक नहीं कि यह ‘ॐ’ नामक शब्दविशेष ही सारे जगत् की अभिव्यक्ति के कारण स्वरूप भाव का वाचक हो। तो इस पर हमारा उत्तर यह है कि एकमेव यह ‘ॐ’ ही इस प्रकार सर्वभावव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी उसके समान नहीं। स्फोट ही सारे भावों का उपादान है, फिर भी वह स्वयं पूर्ण रूप से विकसित कोई विशिष्ट भाव नहीं है। अर्थात् यदि उन सब भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बच रहता है, वही स्फोट है। इसीलिए इस स्फोट को ‘नादब्रह्म’ कहते हैं। अब बात यह है कि इस अव्यक्त स्फोट को प्रकाशित करने के लिए यदि किसी वाचक शब्द का उपयोग किया जाय तो वह शब्द उसे इतना विशिष्ट कर देता है कि उसका फिर स्फोटत्व ही नहीं रह जाता। इसीलिए जो वाचक शब्द उसे सब से कम विशेषभावापन्न करेगा, पर साथ ही उसके स्वरूप को यथासम्भव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वही उसका सब से सच्चा वाचक होगा। और यह वाचक शब्द है एकमात्र ‘ॐ’ क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म्, जिनका एक साथ उच्चारण करने से ‘ॐ’ होता है, समस्त शब्दों के साधारण वाचक के तौर पर लिये जा सकते हैं। अक्षर ‘अ’ सारे अक्षरों में सब से कम विशेषभावापन्न है। इसीलिए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं – “अक्षरों में मैं ‘अ’कार हूँ।”2 स्पष्ट रूप से उच्चारित जितने भी शब्द हैं, उनकी उच्चारणक्रिया मुख में जिह्वा के मूल से आरम्भ होती है और ओठों में आकर समाप्त हो जाती है। ‘अ’ जिह्वामूल अर्थात् कण्ठ से उच्चारित होता है, और ‘म्’ ओठों से होनेवाला अन्तिम शब्द है। और ‘उ’ उस शक्ति का सूचक है, जो जिह्वामूल से आरम्भ होकर मुँह भर में लुढ़कती हुई ओठों में आकर समाप्त होती है। यदि इस ‘ॐ’ का उच्चारण ठीक ढंग से किया जाय, तो इससे शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हो जाती है – दूसरे किसी भी शब्द में यह शक्ति नहीं। अतएव यह ‘ॐ’ ही स्फोट का सब से उपयुक्त वाचक शब्द है – और यह स्फोट ही ‘ॐ’ का प्रकृत वाच्य है। और चूँकि वाचक वाच्य से कभी अलग नहीं हो सकता, इसलिए ‘ॐ’ और स्फोट अभिन्न हैं। फिर, यह स्फोट इस व्यक्त जगत् का सूक्ष्मतम अंश होने के कारण ईश्वर के अत्यन्त निकटवर्ती है तथा ईश्वरीय ज्ञान की प्रथम अभिव्यक्ति है; इसलिए ‘ॐ’ ही ईश्वर का सच्चा वाचक है। और जिस प्रकार अपूर्ण जीवात्माएँ एकमेव अखण्ड सच्चिदानन्द ब्रह्म का चिन्तन विशेष विशेष भाव से और विशेष विशेष गुणों से युक्त रूप में ही कर सकते हैं, उसी प्रकार उसके देहरूप इस अखिल ब्रह्माण्ड का चिन्तन भी साधक के मनोभाव के अनुसार विभिन्न रूप से करना पड़ता है।
उपासक के मन में जब जिस प्रकार के तत्त्व प्रबल होते हैं, तब उसी प्रकार के भाव जागृत होते हैं। फल यह है कि एक ही ब्रह्म भिन्न भिन्न रूप में भिन्न भिन्न गुणों की प्रधानता से युक्त दीख पड़ता है और वही एक विश्व विभिन्न रूपों में प्रतिभात होता है। जिस प्रकार अल्पतम विशेषभावापन्न तथा सार्वभौमिक वाचक शब्द ‘ॐ’ के सम्बन्ध में वाच्य और वाचक आपस में अभेद्य रूप से सम्बद्ध हैं, उसी प्रकार वाच्य और वाचक का यह अविछिन्न सम्बन्ध भगवान और विश्व के विभिन्न खण्डभावों पर भी लागू है, अतएव उनमें से प्रत्येक का एक विशिष्ट वाचक शब्द होना आवश्यक है। ये वाचक शब्द ऋषियों की गम्भीरतम आध्यात्मिक अनुभूति से उत्पन्न हुए हैं, और वे भगवान तथा विश्व के जिन विशेष-विशेष खण्डभावों के वाचक हैं, उन विशेष भावों को यथासम्भव प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार ‘ॐ’ अखण्ड ब्रह्म का वाचक है, उसी प्रकार अन्यान्य मंत्र भी उसी परमपुरुष के खण्ड खण्ड भावों के वाचक हैं। ये सभी ईश्वर के ध्यान और प्रकृत ज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं।
- यथा सौम्य एकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्यात् – इत्यादि
छान्दोग्य उपनिषद्, ६।१।४ - अक्षराणाम् अकारोऽस्मि।
गीता, १०।३३
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