दुर्योधन
दुर्योधन कलि के अंशावतार और महाराज धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र थे। ये राज्यलोभी, महत्त्वाकांक्षी तथा अपने शुभचिन्तकों को भी शत्रु की दृष्टि से देखने वाले और बचपन से पाण्डवों के कट्टर शत्रु थे। पाण्डवों को अन्याय पूर्वक मिटाने का ये सदैव प्रयास करते थे, क्योंकि ये पाण्डवों को अपने राज्य-प्राप्ति में सबसे बड़ा विघ्न समझते थे। इसलिये इन्होंने महाबली भीमसेन को विष देकर मार डालने का प्रयास किया।
पाण्डवों को कुन्ती सहित लाक्षागृह में भस्म कराने का कुचक्र रचा, शकुनि की सहायता से जुए में उनका सर्वस्व छीन लिया, पतिव्रता द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित किया तथा धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को वन में भटकने के लिये बाध्य किया। इस प्रकार इन्होंने राज्य के लोभ में अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी।
दुर्योधन (Duryodhan) में सद्गुण भी थे, किंतु दुर्गुणों की बाढ़ में वे दब गये। ये राजनीति शास्त्र में निपुण थे। धन तथा सम्मान प्रदान करके दूसरों को भी अपना बना लेने की इनमें अद्भुत क्षमता थी। इसीलिये पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि जो पाण्डवों पर कृपा रखते थे, उनको भी उन्होंने महाभारत के युद्ध में अपने पक्ष में कर लिया।
केवल साधु पुरुष धर्मावतार विदुर जी उनके धन के लोभ में नहीं फँसे। इसीलिये वह उन्हें अपने शत्रु के रूप में देखते थे। दुर्योधन गदायुद्ध में अत्यन्त कुशल, महान तेजस्वी तथा शक्तिशाली योद्धा थे। ये सद्व्यवहार की महिमा जानने वाले थे। महाभारत के युद्ध में इनकी सेना सुव्यवस्थित, सुदृढ़ और महान् थी। दुर्योधनके सद्व्यवहार के कारण माद्री के भाई शल्य ने उनके पक्ष में रहना और कर्ण का सारथि बनना स्वीकार किया।
अश्वत्थामा और कर्ण के युद्ध को इन्होंने अपनी मृदुवाणी से बन्द कर दिया। इनकी अमृतमयी वाणी में भूलकर धृतराष्ट्र इनके प्रत्येक कार्य में समर्थन दे देते थे। शान्तिदूत श्रीकृष्ण को आकर्षित करने के लिये दुर्योधन ने उनके अपूर्व स्वागत-सत्कार की व्यवस्था की। वृकस्थल से हस्तिनापुर तक स्थान-स्थान पर रम्य विश्राम स्थल, रत्नजटित सभास्थल, नाना प्रकार के विचित्र आसन वसन, अन्न-पान, आहार-विहार की व्यवस्था भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता के लिये की गयी। किंतु इन सबका लक्ष्य था श्रीकृष्णजी को अपने पक्ष में करके पाण्डवों को निर्मूल करना। दुर्योधन ने वैरभाव की दीक्षा लेकर भारत माता के पुत्रों को युद्ध की प्रज्वलित अग्नि में होम कर दिया। अन्त में सौ भाइयों के साथ स्वयं भी ये मृत्यु के शिकार बने। दूसरे का अनिष्ट चाहकर ये अपना भी हित न कर सके और आने वाले युगों के लिए अपना अपयश छोड़ गए।
महाभारतकार महर्षि वेदव्यास के अनुसार राज्यसभा में दूतरूप में आने वाले श्रीकृष्ण की महिमा धृतराष्ट्र को सुनाकर जब विदुर ने उनका सत्कार पूर्वक आतिथ्य करने की बात कही, तब अहंकारी दुर्योधन ने कहा, “श्रीकृष्ण के विषय में विदुर जी ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक मानता हूँ। बुद्धिमान् को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जिससे क्षत्रिय तथा अतिथि धर्म का अनादर हो। मैं मानता हूँ कि विशाल लोचन श्री कृष्ण तीनों लोकों में पूज्यतम हैं, किंतु वे पाण्डवों के प्रति अनुरक्त हैं। अतः उन्हें नियन्त्रित करना ही ठीक है। यदि वासुदेव पकड़ लिये गये तो सब कार्य अपने-आप सिद्ध हो जायगा।”
दुर्योधन की इस बात को सुनकर भीष्म ने कहा, “धृतराष्ट्र, तुम्हारा यह पुत्र मुर्ख है। यह दुष्ट भगवान् वासुदेव को पकड़ने पर क्षणमात्र में अपने मन्त्रियों सहित नाश को प्राप्त हो जायगा।” इतना कहकर भीष्म वहाँ से उठ गये। धुर्योधन वध का कारण भी उनका घमण्ड ही था। भगवान् वासुदेव ने दूत बनकर दुर्योधन को भूल सुधार का एक और अवसर दिया था, किंतु दुर्योधन महान अहङ्कारी थे। वे न माने, फलतः महाभारत का युद्ध हुआ। दुर्योधन (Duryodhan in Mahabharat) के पक्ष के सभी राजा मारे गये और अन्त में भीम के द्वारा दुर्योधन वध का कार्य भी हुआ।
कुरुराज दुर्योधन संबंधी प्रश्नों के उत्तर
उनकी पत्नी का नाम भानुमति था, जो काम्बोज के राजा चन्द्रवर्मा की पुत्री थी।
गदा-युद्ध में बलशाली भीम ने धृतराष्ट्र-पुत्र का वध किया था।
उनके सार्थी का नाम चित्रसेन था, जो कर्ण के दोस्त व साले थे।