शिवि का नेत्र-दान – जातक कथा
“शिवि का नेत्र-दान” प्राचीन जातक कथा है। इस कहानी में महान दानवीर राजा शिवि के महान दान और त्याग का वर्णन किया गया है। अन्य जातक कथाएं पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – जातक कथाएँ।
The Tale Of Shivi’s Eye: Jatak Katha In Hindi
शिवि जातक की गाथा – [“यदि कोई ऐसा दान है जो मैंने अभी तक नहीं दिया है, चाहे वह नेत्रों का ही दान क्यों न हो, तो मैं दृढ़ता और निर्भयता-पूर्वक उसे भी तुरन्त दे दूंगा।”]
वर्तमान कथा – बहुमूल्य वस्त्र की भेंट
एक बार जब भगवान बुद्ध जेतवन में निवास करते थे, उस समय श्रावस्ती के राजा ने ब्राह्मणों और भिक्षुओं को कई दिन तक भोजन कराया और दान देकर उन्हें संतुष्ट किया। सब लोग राजा को आशीर्वाद देकर गए, परंतु तथागत बिना आशीर्वाद दिए ही चले गये।
दूसरे दिन राजा भगवान के दर्शनों के लिये जेतवन में गया, तब इस विषय में प्रश्न किया। तथागत ने कहा, “हे राजा, लोगों की मलिनता मिटी नहीं है, वे अपवित्र ही हैं। स्वर्ग का द्वार लोभियों के लिये नहीं खुलता है।”
राजा ने तथागत को आदरपूर्वक प्रणाम किया और शिवि देश का बना एक बहुमूल्य वस्त्र उन्हें भेंट कर चला गया। दूसरे दिन विहार में उस हजारों रुपयों के मूल्य वाले अद्भुत वस्त्र की चर्चा हो रही थी।
तथागत के समक्ष जब यह विषय उपस्थित हुआ तो उन्होंने कहा, “प्राचीन काल में लोग केवल भौतिक वस्तुओं का दान करके ही संतुष्ट न होते थे। वे अपने प्राणों को संकट में डालकर अपने शरीर के नेत्रों तक को निकालकर दान कर देते थे।” फिर भगवान बुद्ध ने शिवि का नेत्र-दान और उसका त्याग बताते हुए यह कहानी सुनाई–
अतीत कथा – शिवि का इन्द्र को नेत्र-दान
प्राचीन काल में शिवि देश में शिवराज नामक राजा राज्य करता था। बोधिसत्व का जन्म इसी शिवि कुल में एक राजकुमार के रूप में हुआ। राजकुमार शिवि ने तक्षशिला में रहकर विद्याध्ययन किया और वेदों का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करके राजधानी को लौट आए। पिता ने उनको सब प्रकार से योग्य समझकर उन्हें एक प्रान्त का शासक नियुक्त कर दिया।
कालान्तर में पिता का देहान्त हो जाने पर राजकमार शिवि ने राज्यभार सम्हाला। तरुण राजा को दान देने में अत्यधिक आनन्द आता था। उसने अपनी राजधानी में विशाल मंडपों का निर्माण कराया, जहाँ वह स्वयं उपस्थित होकर दान दिया करता था। धीरे-धीरे उसकी कीर्ति सारे संसार में फैल गई।
एक दिन राजा अपने मन में सोच रहा था, “मैंने अभी तक ऐसे तमाम पदार्थों का ही दान किया है, जिनके देने में स्वयम् मुझे कोई विशेष कष्ट नहीं हुआ। अब मुझे कोई असाधारण दान देना चाहिए–बाहर की वस्तुओं का नहीं, अपने शरीर का।”
उपरोक्त गाथा में राजा का यही संकल्प व्यक्त हुआ है – “यदि कोई ऐसा दान है जो मैंने अभी तक नहीं दिया है, चाहे वह नेत्रों का ही दान क्यों न हो, तो मैं दृढ़ता और निर्भयता-पूर्वक उसे भी तुरन्त दे दूंगा।”
धीरे-धीरे लोगों को राजा की इच्छा का पता लगा, परन्तु लोग उसे बहुत चाहते थे। अतः ऐसी किसी चीज को मांगने की किसी की इच्छा ही न होती थी जिससे राजा को कष्ट उठाना पड़े।
इन्द्र (शक्र) ने राजा की परीक्षा लेने की ठानी। वह अन्धे ब्राह्मण का रूप धरकर राजा के पास आया और कहा, “हे राजा, में नेत्रहीन हूँ परन्तु तुम्हारे दो आँखें हैं। यदि तुम एक मुझे दे दो तो हम दोनों एक-एक आँख से अपना काम काज चला सकते हैं।”
राजा जिस चीज की प्रतीक्षा में था, वही उसे मिल गई। उसने अपने राजवैद्य को बुलाकर कहा, “मेरी एक आँख निकालकर इस ब्राह्मण के लगा दो।”
जब शिवि का नेत्र-दान संकल्प नगर के लोगों ने सुना तो सब दौड़े आए और राजा को नेत्रदान करने से रोकना चाहा, पर वह अपने वचन पर दृढ़ था। अन्त में लोग शक्र को भला-बुरा कहने लगे।
वैद्य ने एक नेत्र निकालकर ब्राह्मण की आँख में बिठा दिया। इसके पश्चात् बोधिसत्व ने दूसरा नेत्र भी निकलवाकर उसकी दूसरी आँख में बिठवा दिया। शिवि का नेत्र-दान महान त्याग था। इस महान त्याग से शक्र बहुत प्रभावित हुआ। उसने राजा से कहा, “हे राजा! याचना से अधिक दान देने और स्वयम् अपने को बिलकुल अंधा और दुखी बना लेने का क्या कारण है? यदि तुम यह भेद मुझे बता दो तो मैं तुम्हें तुम्हारी आँखें लौटा सकता हूँ। मैं स्वयम् इन्द्र हूँ।”
राजा ने कहा, “नेत्र लौटाने के लिए सौदा कैसा? मेरे नेत्र-दान का यदि कोई महत्व है तो आप उसे ही स्वीकार कीजिए और कुछ मत पूछिए।”
इन्द्र इस शील से और भी प्रसन्न हुआ और राजा को पुनः नेत्र प्राप्त हो गये।
कथा सुनाकर भगवान बुद्ध ने कहा, “इस कथा में आनन्द वैद्य था, अनिरुद्ध शक्र था और राजा शिवि तो मैं स्वयम् ही था।”