धर्मस्वामी विवेकानंद

मठ में श्रीरामकृष्णदेव की जन्मतिथिपूजा

स्थान – बेलुड़ – किराये का मठ

वर्ष – १८९८ ईसवी

विषय – मठ में श्रीरामकृष्णदेव की जन्मतिथिपूजा – ब्राह्मणजाति केअतिरिक्त्त अन्यान्य जाति के भक्तों को स्वामीजी का यज्ञोपवीत धारण कराना – मठ में श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष का समादर – कर्मयोग या परार्थ में कर्मानुष्ठानकरने से आत्मदर्शन निश्चित है, इस सिद्धान्त को युक्तिविचार द्वारा स्वामीजी का समझाना।

जिस वर्ष स्वामीजी इंग्लैण्ड से लौटे थे उस वर्ष दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के कालीमन्दिर में श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव हुआ था। परन्तु अनेक कारणों से अगले वर्ष यह उत्सव वहाँ नहीं होने पाया और मठ को भी आलमबाजार से बेलुड़ में गंगाजी के तट पर श्रीयुत नीलाम्बर मुखोपाध्याय की वाटिका को किराये पर लेकर, वहाँ हटाया गया। इसके कुछ ही दिन पश्चात् वर्तमान मठ के निमित्त जमीन मोल ली गयी, किन्तु इस वर्ष यहाँ जन्मोत्सव नहीं हो सका, क्योंकि यह स्थान समतल नहीं था और जंगल से भी भरा था। इसलिए इस वर्ष का जन्मोत्सव बेलुड़ में दाँ बाबुओं की ठाकुरबाड़ी में हुआ। परन्तु श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथिपूजा जो फाल्गुन की शुक्ल द्वितीया को होती है, वह नीलाम्बर बाबू की वाटिका में ही हुई और इसके दो-एक दिन बाद ही श्रीरामकृष्ण की छबी इत्यादि का प्रबन्ध करके शुभमुहुर्त में नयी भूमि पर पूजा-हवन इत्यादि कर श्रीरामकृष्ण की प्रतिष्ठा की गयी। इस समय स्वामीजी नीलाम्बर बाबू की वाटिका में ठहरे हुए थे। जन्मतिथिपूजा के निमित्त बड़ा आयोजन था। स्वामीजी के आदेशानुसार पूजागृह बड़ी उत्तम-उत्तम सामग्रियों से परिपूर्ण था। स्वामीजी उस दिन स्वयं ही सब चीजों की देखभाल कर रहे थे।

जन्मतिथि के दिन प्रातःकाल से ही सब लोग आनन्दित हो रहे थे। भक्तों के मुँह में श्रीरामकृष्ण-प्रसंग के अतिरिक्त और कोई भी प्रसंग नहीं था। अब स्वामीजी पूजाघर के सम्मुख खड़े होकर पूजा का आयोजन देखने लगे।

इन सब की देखभाल करने के पश्चात् स्वामीजी ने शिष्य से पूछा, “जनेऊ ले आये हो न?”

शिष्य – जी हाँ, आपके आदेशानुसार सब सामग्री प्रस्तुत है। परन्तु इतने जनेऊ मँगवाने का कारण मेरी समझ में नहीं आया।

स्वामीजी – प्रत्येक द्विजाति का ही उपनयन-संस्कार में अधिकार है। स्वयं वेद इसका प्रमाण है। आज श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि में जो लोग यहाँ आयेंगे, मैं उन सब को जनेऊ पहिनाऊँगा। वे सब व्रात्य (संस्कार से पतित) हो गये हैं। शास्त्र कहता है कि प्रायश्चित्त करने से व्रात्यों का फिर उपनयन-संस्कार में अधिकार हो जाता है। आज श्रीगुरुदेव का शुभ जन्मतिथिपूजन है – उनके नाम से वे सब शुद्ध, पवित्र हो जायेंगे। इसलिये आज उन उपस्थित भक्तगणों को जनेऊ पहिनाना है। समझे?

शिष्य – मैं आपके आदेश से बहुतसे जनेऊ लाया भी हूँ। पूजा के अन्त में समागत भक्तों को आपकी आज्ञानुसार पहिना दूँगा।

स्वामीजी – ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य भक्तों को इस प्रकार गायत्री मन्त्र बतला देना। (यहाँ स्वामीजी ने शिष्य को क्षत्रिय आदि द्विजातियों का गायत्री मन्त्र बतला दिया।) क्रमशः देश के सब लोगों को ब्राह्मण पद पर आरूढ़ कराना होगा; श्रीगुरुदेव के भक्तों का तो कहना ही क्या है? हिन्दुमात्र एक दूसरे के भाई हैं। ‘इसे नहीं छूते, उसे नहीं छूते’ कहकर ही तो हमने इनको ऐसा बना दिया है। इसीलिए तो हमारा देश हीनता, भीरुता, मूर्खता तथा कापुरुषता की चरम अवस्था को प्राप्त हुआ है। इनको उठाना होगा, उन्हें अभय वाणी सुनानी होगी, बतलाना होगा कि तुम भी हमारे समान मनुष्य हो, तुम्हारा भी हमारे ही समान सब अधिकार है। समझे?

शिष्य – जी महाराज।

स्वामीजी – अब जो लोग जनेऊ पहिनेंगे, उनसे कह दो कि वे गंगाजी में स्नान कर आयें। फिर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वे जनेऊ पहिनेंगे।

स्वामीजी के आदेशानुसार समागत भक्तों में से कोई चालीसपचास लोगों ने गंगास्नान कर शिष्य से गायत्री मन्त्र सीख कर जनेऊ पहिन लिये। मठ में बड़ी चहल-पहल मच गयी। भक्तगणों ने जनेऊ धारण कर श्रीरामकृष्ण को पुनः प्रणाम किया और स्वामीजी के चरणकमलों की भी वन्दना की। स्वामीजी का मुखारविन्द उनको देखकर मानो सौगुना प्रफुल्लित हो गया। इसके कुछ ही देर पश्चात् श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष मठ में आ पहुँचे।

अब स्वामीजी की आज्ञा से संगीत का आयोजन होने लगा और मठ के संन्यासी लोग स्वामीजी को अपनी इच्छानुसार सजाने लगे। उनके कानों में शंख का कुण्डल, सर्वांग में कर्पूर के समान श्वेत पवित्र विभूति, मस्तक पर आपादलम्बित जटाभार, वाम हस्त में त्रिशूल, दोनों बाहों में रुद्राक्ष की माला और गले में आजानुलम्बित तीन लड़ की बड़े रुद्राक्ष की माला आदि पहिनायीं। यह सब धारण करने पर स्वामीजी का रूप ऐसा शोभायमान हुआ कि उसका वर्णन करना सम्भव नहीं। उस दिन जिन लोगों ने उनकी इस मूर्ति का दर्शन किया था, उन्होंने एक स्वर से कहा था कि साक्षात् कालभैरव स्वामीजी के शरीर में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। स्वामीजी ने भी अन्य सब संन्यासियों के शरीर में विभूति लगा दी। उन्होंने स्वामीजी के चारों ओर सदेह भैरवगण के समान अवस्थान कर, मठभूमि पर कैलास पर्वत की शोभा का विस्तार कर दिया! आज भी उस दृश्य का स्मरण हो आने से बड़ा आनन्द होता है।

अब स्वामीजी पश्चिम दिशा की ओर मुँह फेरे हुए मुक्तपद्मासन में बैठ कर “कूजन्तं रामरामेति” स्तोत्र धीरे धीरे उच्चारण करने लगे और अन्त में “राम राम श्रीराम राम” बारम्बार कहने लगे। ऐसा अनुमान होता था कि मानो प्रत्येक अक्षर से अमृतधारा बह रही है। स्वामीजी के नेत्र अर्धनिमीलित थे और हाथ से तानपूरे में स्वर दे रहे थे। कुछ देर तक मठ में ‘राम राम श्रीराम राम’ ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी सुनने में नहीं आया। इस प्रकार से लगभग आध घन्टे से भी अधिक समय व्यतीत हो गया, तब भी किसी के मुँह से अन्य कोई शब्द नहीं निकला। स्वामीजी के कण्ठ-निःसृत रामनामसुधा को पान कर आज सब मतवाले हो गये हैं। शिष्य विचार करने लगा, क्या सचमुच ही स्वामीजी शिवजी के भाव से मतवाले होकर रामनाम ले रहे हैं? स्वामीजी के मुख का स्वाभाविक गाम्भीर्य मानो आज सौगुना हो गया है। अर्थनिमिलित नेत्रों से मानो बाल-सूर्य की प्रभा निकल रही है और गहरे नशे में मानो उनका सुन्दर शरीर झूम रहा है। इस रूप का वर्णन करना अथवा किसी को समझाना सम्भव नहीं। इसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है। दर्शकगण चित्र के समान स्थिर बैठे रहे।

रामनाम कीर्तन के अन्त में स्वामीजी उसी प्रकार मतवाली अवस्था में ही गाने लगे – “सीतापति रामचन्द्र रघुपति रघुराई।” साथ देनेवाला अच्छा न होने के कारण स्वामीजी का कुछ रस भंग होने लगा। अतः स्वामी सारदानन्दजी को गाने का आदेश कर स्वामीजी स्वयं पखावज बजाने लगे। स्वामी सारदानन्दजी ने पहले – “एक रूप अरूप नाम वरण” गीत गाया। पखावज के स्निग्ध गम्भीर घोष से गंगाजी मानो उथलने लगी और स्वामी सारदानन्दजी के सुन्दर कण्ठ और साथ ही मधुर आलाप से सारा गृह भर गया तत्पश्चात् श्रीरामकृष्ण स्वयं जिन गीतों को गाते थे क्रमशः वे गीत भी होने लगे।

अब स्वामीजी, एकाएक अपनी वेश-भूषा को उतार कर बड़े आदर से गिरीश बाबू को उससे सजाने लगे। गिरीश बाबू के विशाल शरीर में अपने हाथ से भस्म लगाकर, कानों में कुण्डल, मस्तक पर जटाभार, कण्ठ और बाँहों में रुद्राक्ष की माला पहनाने लगे। गिरीश बाबू इस वेश में मानो एक नवीन मूर्ति जैसे प्रकाशमान हुए। भक्तगण इसको देखकर अवाक् हो गये। फिर स्वामीजी बोले, “श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि गिरीश भैरव का अवतार है और हममें-उसमें कोई भेद नहीं है।” गिरीश बाबू चुप बैठे रहे। उनके संन्यासी गुरुभाई जैसे चाहें उनको सजायें, उन्हें सब स्वीकार है। अन्त में स्वामीजी के आदेशानुसार एक गेरुआ वस्त्र मँगवाकर गिरीश बाबू को पहिनाया गया। गिरीश बाबू ने कुछ भी मना नहीं किया। गुरुभाइयों की इच्छानुसार अपने शरीर को उन्हीं के हाथ में छोड़ दिया। अब स्वामीजी ने कहा, “जी. सी. , तुमको आज श्रीगुरुदेव की कथा सुनानी होगी।” औरों को लक्ष्य करके कहा, “तुम लोग सब स्थिर होकर बैठो।” अभी तक गिरीश बाबू के मुँह से कोई शब्द नहीं निकला। जिनके जन्मोत्सव में आज हम सब लोग एकत्रित हुए हैं, उनकी लीला और सांगोपांगों का दर्शन कर वे आनन्द से जड़वत् हो गये हैं। अन्त में गिरीश बाबू बोले, “दयामय श्रीगुरुदेव की कथा मैं और क्या कहूँ? उन्होंने इस अधम को तुम्हारे समान कामकांचनत्यागी बालसंन्यासियों के साथ एक ही आसन पर बैठने का जो अधिकार दिया है, इससे ही उनकी अपार करुणा का अनुभव कर रहा हूँ।” इन बातों को कहते कहते उनका गला भर आया और फिर उस दिन वे कुछ भी न कह सके। इसके बाद स्वामीजी ने कई एक हिन्दी गीत गाये, “बैयाँ न पकरो मोरी नरम कलैयाँ”, “प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो” इत्यादि। शिष्य संगीत विद्या में ऐसा पूर्ण पण्डित था कि गीत का एक वर्ण भी उसकी समझ में नहीं आया! केवल स्वामीजी के मुँह की ओर टकटकी लगाकर देखता ही रहा! अब प्रथमपूजा सम्पन्न होने पर जलपान के निमित्त भक्तगण बुलाये गये। जलपान के पश्चात् स्वामीजी नीचे की बैठक में जाकर बैठे। आये हुए भक्तगण भी उनको वहाँ घेरकर बैठ गये। उपवीतधारी किसी गृहस्थ को सम्बोधन कर स्वामीजी बोले, “तुम यथार्थ में द्विजाति हो, बहुत दिनों से व्रात्य हो गये थे। आज से फिर द्विजाति बने। अब प्रतिदिन कम से कम सौ बार गायत्री मन्त्र जपना। समझे?” गृहस्थ ने, “जैसी आज्ञा महाराज की” कहकर स्वामीजी की आज्ञा शिरोधार्य कर ली। इस अवसर पर श्रीयुत महेन्द्रनाथ गुप्त1 आ पहुँचे। स्वामीजी मास्टर महाशय को देख बड़े स्नेह से उनका सत्कार करने लगे। महेन्द्र बाबू भी उनको प्रणाम कर एक कोने में जाकर खड़े रहे। स्वामीजी के बार बार कहने पर भी संकोच से वही बैठ गये।

स्वामीजी – मास्टर महाशय, आज श्रीरामकृष्ण का जन्मदिन है, आपको उनकी कथा हम लोगों को सुनानी होगी।

मास्टर महाशय मुसकराकर सिर झुकाये ही रहे। इस बीच में स्वामी अखण्डानन्दजी2 मुर्शिदाबाद से लगभग डेढ़ मन के दो पन्तुआ (एक प्रकार की बंगाली मिठाई) बनवाकर साथ लेकर मठ में आ पहुँचे। इतने बड़े दो पन्तुओं को देखने सब दौड़े। अखण्डानन्दजी ने वह मिठाई सब को दिखलायी। फिर स्वामीजी ने कहा, “जाओ, इसे श्रीरामकृष्ण के मन्दिर में रख आओ।”

स्वामी अखण्डानन्दजी को लक्ष्य करके स्वामीजी शिष्य से कहने लगे, “देखो कैसा कर्मवीर है। भय, मृत्यु आदि का कुछ ज्ञान ही नहीं ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ अपना कार्य धीरज के साथ और एक-चित्त से कर रहा है।”

शिष्य – अधिक तपस्या के फल से ऐसी शक्ति उनमें आयी होगी।

स्वामीजी – तपस्या से शक्ति उत्पन्न होती है, यह सत्य है। किन्तु दूसरों के निमित्त कर्म करना ही तपस्या है। कर्मयोगी कर्म को तपस्या का एक ढंग कहते हैं। जैसे तपस्या से परहित की इच्छा बलवान होकर साधकों से कर्म कराती है वैसे ही दूसरों के निमित्त कार्य करते तपस्या का फल चित्तशुद्धि या परमात्मा का दर्शन प्राप्त होता है।

शिष्य – परन्तु महाराज, दूसरों के निमित्त पहिले से ही प्राणपण से कार्य कितने मनुष्य कर सकते हैं? जिस उदारता से मनुष्य आत्मसुख की इच्छा को बलि देकर औरों के निमित्त जीवनदान करता है वह उदारता मन में पहले से ही कैसे आयेगी?

स्वामीजी – और तपस्या करने में ही कितने मनुष्यों का मन लगता है? कामिनीकांचन के आकर्षण के कारण कितने मनुष्य भगवान लाभ करने की इच्छा करते है? तपस्या जैसी कठिन है निष्काम कर्म भी वैसा ही कठिन है। अतएव औरो के मंगल के लिए जो लोग कार्य करते हैं उनके विरुद्ध तुझे कुछ कहने का अधिकार नहीं है। यदि तुझे तपस्या अच्छी लगे तो किये जा। परन्तु यदि किसी को कर्म ही अच्छा लगे तो उसे रोकने का तुझे क्या अधिकार है? तू क्या यही अनुमान किये बैठा है कि कर्म तपस्या नहीं है?

शिष्य – जी महाराज। पहिले मैं तपस्या का अर्थ और कुछ समझता था।

स्वामीजी – जैसे साधन-भजन का अभ्यास करते करते उस पर दृढ़ता हो जाती है वैसे ही पहिले अनिच्छा के साथ करते करते क्रमशः हृदय उसी में मग्न हो जाता है और परार्थ कार्य करने की प्रवृत्ति होती है, समझे? तुम एक बार अनिच्छा के साथ ही औरों की सेवा करके देखो, और फिर देखो कि तुम्हें तपस्या के फल प्राप्त होते हैं या नहीं। परार्थ कर्म करने के फल से मन का टेढ़ापन सीधा हो जाता है और वह मनुष्य निष्कपटता से औरों के मंगल के लिए प्राण देने को भी तैयार हो जाता है।

शिष्य – परन्तु महाराज, परहित का प्रयोजन क्या है?

स्वामीजी – अपने ही हित के निमित्त। तुमने इस शरीर पर ही अपना ‘अहं’ का अभियान रख छोड़ा है। यदि तुम यह सोचो कि तुमने इस शरीर को दूसरों के निमित्त उत्सर्ग कर दिया है तो तुम इस अहंभाव को भी भूल जाओगे और अन्त में विदेह बुद्धि आ पहुँचेगी। एकाग्र चित्त से औरों के लिए जितना सोचोगे उतना ही अपने अहंभाव को भूलोगे। इस प्रकार कर्म करने पर जब क्रमशः चित्तशुद्धि हो जायगी, तब इस तत्त्व की अनुभूति होगी कि अपनी ही आत्मा सब जीवों तथा घटों में विराजमान हैं। औरों का हित करना आत्मविकास का एक उपाय है – एक पथ है। इसे भी एक प्रकार की ईश्वर-साधना जानना। इसका भी उद्देशय आत्मविकास है। ज्ञान, भक्ति आदि की साधना से जैसा आत्मविकास होता है, परार्थ कर्म करने से भी वैसा ही होता है।

शिष्य – किन्तु महाराज, यदि मैं रात दिन औरों की चिन्ता में लगा रहूँ तो आत्मचिंतन कब करूँगा? किसी एक विशेष भाव को पकड़े रहने से भावातीत अविषय आत्मा का साक्षात्कार कैसे होगा?

स्वामीजी – आत्मज्ञान का लाभ करना ही समस्त साधनाओं का, सारे पथों का मुख्य उद्देश्य है। यदि तुम सेवापरायण बनो तो उस कर्मफल से तुम्हें चित्तशुद्धि प्राप्त होगी। यदि सब जीवों को आत्मवत् देखो तो आत्मदर्शन होने में क्या शेष रह गया? आत्मदर्शन का अर्थ जड़ के समान एक दीवाल या लकड़ी के समान पड़ा रहना तो नहीं है।

शिष्य – माना ऐसा नही है, परन्तु शास्त्र में सर्व वृत्ति और सर्व कर्म के निरोध को ही तो आत्मा का स्व-स्वरूप अवस्थान कहा है।

स्वामीजी – शास्त्र में जिस अवस्था को समाधि कहा गया है, वह अवस्था तो सहज में हर एक को प्राप्त नहीं होती, और किसी को हुई भी तो अधिक समय तक टिकती नहीं है। तब बताओ वह किस प्रकार समय बितायेगा? इसलिए शास्त्रोक्त अवस्था लाभ करने के बाद साधक प्रत्येक भूत में आत्मदर्शन कर अभिन्न ज्ञान से सेवापरायण बनकर अपने प्रारब्ध को नष्ट कर देते हैं। इस अवस्था को शास्त्रकार जीवन्मुक्त अवस्था कह गये हैं।

शिष्य – महाराज, इससे तो यही सिद्ध होता है कि जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त न करने से कोई भी ठीक ठीक परार्थ कार्य नहीं कर सकता।

स्वामीजी – शास्त्र में यह बात हैं। फिर यह भी है कि परार्थसेवापरायण होते-होते साधक को जीवन्मुक्ति अवस्था प्राप्त होती है। नहीं तो शास्त्र में “कर्मयोग” के नाम से एक भिन्न पथ के उपदेश करने का कोई प्रयोजन नहीं था।

शिष्य यह सब बातें समझकर अब चुप हो गया। स्वामीजी ने भी इस प्रसंग को छोड़कर अपने सुन्दर कण्ठ से एक गीत गाना आरम्भ किया।

गिरीश बाबू तथा अन्य भक्तगणभी उनके साथ उसी गीत को गाने लगे। “जगत् को तापित लख कातर हो” इत्यादि पद को बार बार गाने लगे। इस प्रकार “मजलो आमार मनभ्रमरा, कालीपद नीलकमले” “अगणन भुवनभारधारी” इत्यादि कई एक गीत गाने के पश्चात् तिथिपूजन के नियमानुसार एक जीती हुई मछली को खूब गा बजाकर गंगाजी में छोड़ दिया गया; तत्पश्चात् प्रसाद पाने के लिए भक्तों में बड़ी धूम मच गयी।


  1. इन्होंने ही “श्रीरामकृष्णकथामृत” लिखी है। किसी स्कूल के अध्यापक होने के कारण ये मास्टर महाशय के नाम से विख्यात हैं।
  2. श्रीरामकृष्ण के एक अन्तरंग लीलासहचर। इन्होंने मुर्शिदाबाद के अन्तर्गत सारगाछी में अनाथाश्रम, शिल्पविद्यालय और दातव्य चिकित्सालय स्थापित किये हैं। यहाँ बिना जात-पात के विचार से सब की सेवा की जाती और उनका कुल व्यय उदार सज्जनों की सहायता पर निर्भर है।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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