गुरु वशिष्ठ का जीवन परिचय
गुरु वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्नि पुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम अरुन्धती देवी था।
जब महर्षि वशिष्ठ के पिता ब्रह्माजी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्य वंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा, “इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा। फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव शरीर में आना स्वीकार किया।
गुरु वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बलपर भगीरथ ने प्रयत्न करके लोककल्याणकारिणी गंगा नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ की निराशा में आशा का सञ्चार करने वाले गुरु वशिष्ठ ही थे।
इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न किया और प्रभु श्री राम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित जीवन सफल हो गया। भगवान् श्री राम के वनगमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्रीराम के राज्य कार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये।
महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिमूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। गुरु वशिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गाय को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु गुरु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अतः इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठजी के संकेतपर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा।
द्वेष भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुनः आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रियबल को धिक्कारकर ब्राह्मणत्व लाभ के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।
विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगोंने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। अन्त में उन्होंने वसिष्ठजी को मिटाने का निश्चय कर लिया और उनके आश्रम में एक पेड़ पर छिपकर गुरु वशिष्ठ को मारने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय अरुन्धती के प्रश्न करने पर गुरु वशिष्ठ ने विश्वामित्र के अपूर्व तप की प्रशंसा की। क्षमाबल ने पशुबल पर विजय पायी और विश्वामित्र शस्त्र फेंककर श्री वसिष्ठ जी के शरणागत हुए। वसिष्ठजी ने उन्हें उठाकर गले से लगाया और ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित किया। इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।
हिंदीपथ के माध्यम से आपने महर्षि वशिष्ठ का जीवन परिचय पढ़ा। हम सभी उनके उदात्त जीवन से सीख ग्रहण कर सकते हैं। इन्होंने जगत कल्याण में अभूतपूर्व सहयोग दिया है। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना गया है। पुराणों के अनुसार इनकी उत्पत्ति की कई कहानियां हैं। इन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र, अग्नि पुत्र इत्यादि कहा जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के गुरु होने का सौभाग्य इन्हें प्राप्त है। महर्षि वशिष्ठ का जीवन परिचय पढ़कर हमें यह पता चलता है कि ये क्षमा की प्रतिमूर्ति थे। महर्षि विश्वामित्र ने कई बार अपने दुष्कृत्य से इन्हें नीचा दिखाने का प्रयत्न किया, परंतु फिर भी उन्होंने विश्वामित्र को क्षमा किया और ब्रह्मर्षि की उपाधि प्रदान की।
जय श्री महरिशी वशिष्ट जी नमो नमः
जय श्री राम जी नमः
बहुत-बहुत धन्यवाद भाई जी,
अति आभार!
दीपक जी, टिप्पणी करके हमारा उत्साह बढ़ाने के लिए धन्यवाद। यूँ ही हिंदीपथ पढ़ते रहें व हमारा मार्गदर्शन करते रहें।