धर्मस्वामी विवेकानंद

व्यावहारिक जीवन में वेदान्त – चतुर्थ भाग

Practical Vedanta (Part 4) in Hindi

स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध किताब “व्यावहारिक वेदांत” का यह अंतिम अध्याय है। दरअस्ल, यह पुस्तक उनके चार व्याख्यानों का संग्रह है जो उन्होंने लंदन में दिए थे। इस अध्याय को एक तरह से पूरी शृंखला के निष्कर्ष के तौर पर देखा जा सकता है।

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(18 नवम्बर, 1896 ई० को लन्दन में दिया हुआ व्याख्यान)

हमने अभी तक समष्टि या सामान्य पर ही अधिक विचार किया है। इस प्रातःकाल मैं तुम लोगों के सम्मुख व्यष्टि या विशेष के साथ समष्टि के सम्बन्ध पर वेदान्त का मत प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। जैसा हम देख चुके हैं, वेदों के दर्शन के द्वैतवादी प्रारम्भिक रूपों में प्रत्येक जीव की एक निर्दिष्ट सीमाविशिष्ट आत्मा स्वीकार की गयी है। प्रत्येक जीव में अवस्थित इस विशेष आत्मा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मतवाद प्रचलित हैं। किन्तु प्राचीन बौद्धों और प्राचीन वेदान्तियों के मध्य ही इस विषय पर प्रमुख विवाद चला। प्राचीन वेदान्ती एक स्वयं में पूर्ण जीवात्मा मानते थे, और बौद्ध लोग इस प्रकार के जीवात्मा के अस्तित्व को नितान्त अस्वीकृत करते थे। जैसा मैंने कल कहा था, यूरोप में भी ठीक ऐसा ही विवाद द्रव्य और गुण पर चल रहा है। एक दल यह मानता है कि गुणों के पीछे द्रव्य रूप कोई वस्तु है जिस पर गुण आधारित हैं और दूसरे दल के मत में द्रव्य को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, गुण स्वयं ही रह सकते हैं। आत्मा के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मत ‘अहं-सारूप्य’-गत युक्ति के ऊपर स्थापित है। ‘अहं-सारूप्य’ युक्ति का अर्थ है – कल का ‘मैं’ ही आज का ‘मैं’ है और आज का ‘मैं’ आगामी कल का ‘मैं‘ रहेगा। शरीर में जो भी परिवर्तन हो, मैं विश्वास करता हूँ कि मैं वही ‘मैं हूँ। जान पड़ता है कि जो सीमित, पर स्वयंपूर्ण जीवात्मा मानते थे, उनकी प्रधान युक्ति यही थी।

दूसरी ओर प्राचीन बौद्ध ऐसी जीवात्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं समझते थे। उनकी यह युक्ति थी कि हम केवल इन परिवर्तनों को ही जानते हैं एवं इन परिवर्तनों के अतिरिक्त और कुछ भी जानना हम लोगों के लिए असम्भव है। एक अपरिवर्तनीय और अपरिवर्तनशील द्रव्य को स्वीकार करना अनावश्यक है और वास्तव में यदि इस प्रकार की कोई अपरिणामी वस्तु हो भी, तो हम उसे कभी समझ नहीं सकेंगे और न उसे किसी भी तरह प्रत्यक्ष ही कर सकेंगे। आजकल युरोप में भी एक ओर धर्म और विज्ञानवादियों (idealist) तथा दूसरी ओर आधुनिक प्रत्यक्षवादी (realist), अज्ञेयवादी (agnostic) तथा भाववादी (positivist) विचारकों में यही विवाद चल रहा है। एक दल का विश्वास है कि कुछ अपरिवर्तनशील पदार्थ है (हर्बर्ट स्पेन्सर इसके नवीनतम प्रतिनिधि हैं) और हमें मानो किसी अपरिणामी पदार्थ का आभास होता है। दूसरे दल के प्रतिनिधि हैं काँते (Comte) के आधुनिक शिष्य तथा आधुनिक अज्ञेयवादी। तुम लोगों में से जिन व्यक्तियों ने कुछ साल पहले फ्रेडरिक हैरिसन और हर्बर्ट स्पेन्सर के बीच का वाद-विवाद ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा, वे लोग जानते होंगे कि इसमें भी यही कठिनाई मौजूद है। एक पक्ष कहता है कि हम बिना किसी अपरिणामी या अपरिवर्तनशील सत्ता की कल्पना किये परिणाम या परिवर्तन की कल्पना ही नहीं कर सकते। दूसरा पक्ष यह युक्ति पेश करता है कि ऐसा मानने की कोई ज़रूरत नहीं, हम केवल परिणामशील पदार्थ की ही धारणा कर सकते हैं, और जहाँ तक अपरिणामी सत्ता की बात है, उसे न हम समझ सकते हैं और न अनुभव या प्रत्यक्ष ही कर सकते हैं।

भारत में इस महान् समस्या का समाधान अतीव प्राचीन काल में नहीं मिला था, क्योंकि हमने देखा है कि गुणों के पीछे अवस्थित, गुणों से भिन्न पदार्थ की सत्ता कभी प्रमाणित नहीं की जा सकती। केवल यही नहीं, आत्मा के अस्तित्व का ‘अहं सारूप्य’-गत प्रमाण, स्मृति से आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी युक्ति-कल जो ‘मैं’ था, आज भी ‘मैं’ वही हूँ, क्योंकि मुझे यह स्मरण है, अतएव मैं सतत रहनेवाला ‘कुछ’ हूँ,–यह युक्ति सिद्ध नहीं की जा सकती। और एक युक्ति का आभास, जो साधारणतः दर्शाया जाता है, वह भी केवल शब्दों का जोड़-तोड़ है। ‘मैं जाता हूँ’, ‘मैं खाता हूँ, ‘मैं स्वप्न देखता हूँ’, ‘मैं सो रहा हूँ, ‘मैं चलता हूँ’ आदि कितने ही वाक्य लेकर वे कहते है कि करना, खाना, जाना, स्वप्न देखना, ये सब विभिन्न परिवर्तन भले ही हों, किन्तु उनके बीच में ‘मैं-पन’ नित्य भाव से वर्तमान है और इस प्रकार के इस सिद्धान्त पर पहुँचते हैं कि यह ‘मैं’ नित्य और स्वयं एक व्यक्ति है तथा ये सब परिवर्तन शरीर के धर्म हैं। यह युक्ति सुनने में खूब उपादेय तथा स्पष्ट जान पड़ती है, किन्तु वास्तव में यह केवल शब्दों का खेल है। यह ‘मैं’ और करना, जाना, स्वप्न देखना आदि लिखने में भले ही अलग लगें, किन्तु मन में कोई भी उन्हें अलग नहीं कर सकता।

जब मैं खाता हूँ, तो खाते हुए रूप में अपना विचार करता हूँ। तब खाने की क्रिया के साथ मेरा तादात्म्य हो जाता है। जब मैं दौड़ता रहता हूँ, तब मैं और दौड़ना, ये दो अलग-अलग बातें नहीं होतीं। अतएव व्यक्तिगत तादात्म्य पर आधारित यह युक्ति कुछ अधिक सबल नहीं जान पड़ती। स्मृतिवाला दूसरा तर्क भी निर्बल है। यदि मेरे अस्तित्व का सारूप्य मुझे अपनी स्मृति द्वारा प्रमाणित करना पड़े, तो अपनी जो सब अवस्थाएँ मैं भूल गया हूँ, उनमें मैं था ही नहीं, यह मानना पड़ेगा। और हम यह भी जानते हैं कि कुछ विशेष अवस्थाओं में अनेक लोग पिछला अपना सब कुछ पूर्ण रूप से भूल जाते हैं। अनेक पागल व्यक्ति अपने को काँचनिर्मित अथवा कोई पशु मानते देखे जाते हैं। यदि केवल स्मृति पर ही उस व्यक्ति का अस्तित्व निर्भर होता है, तो वह काँच हो गया, यही मानना पड़ेगा। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता, अतः यह अहं-सारूप्य स्मृति जैसी नगण्य युक्ति पर आधारित नहीं हो सकता। तब क्या निष्कर्ष निकला? यही कि ससीम तथापि सम्पूर्ण और अविच्छिन्न तादात्म्य गुणसमूह से पृथक् रूप में स्थापित नहीं हो सकता। हम ऐसी कोई संकीर्ण सीमाबद्ध सत्ता नहीं सिद्ध कर सकते, जिसके साथ गुणों का एक गुच्छ संयुक्त हो।

दूसरे पक्ष में प्राचीन बौद्धों का यह मत कि गुणसमूह के पीछे अवस्थित किसी वस्तु के विषय में हम न कुछ जानते हैं और न जान सकते है, अधिक दृढ़ भित्ति पर स्थापित जान पड़ता है। उनके मतानुसार संवेदनाओं और भावनाओं आदि कुछ गुणों का संघात ही आत्मा है। यह गुणराशि ही आत्मा है और वह निरंतर परिवर्तित होती रहती है।

अद्वैत द्वारा इन दोनों मतों में सामंजस्य होता है। अद्वैतवाद का सिद्धान्त यह है कि हम वस्तु को गुण से अलग नहीं मान सकते, यह सत्य है। हम परिणाम और अपरिणाम दोनों को एक साथ नहीं सोच सकते। इस प्रकार सोचना भी असम्भव है। किन्तु जिसे द्रव्य कहा जाता है, वही गुणस्वरूप है। द्रव्य और गुण पृथक् नहीं हैं। अपरिणामी वस्तु ही परिणाम-रूप में प्रतीत होती है। यह अपरिणामी सत्ता परिणामी जगत् से पृथक् नहीं है। पारमार्थिक सत्ता व्यावहारिक सत्ता से पूर्णतया पृथक् वस्तु नहीं है, किन्तु यह पारमार्थिक सत्ता ही व्यावहारिक सत्ता बन जाती है। अपरिणामी आत्मा है, और हम जिसे अनुभूति, भाव आदि कहते हैं, केवल ये ही नहीं, अपितु यह शरीर भी एक अन्य दृष्टिकोण से देखी हुई वही आत्मा है। हम लोगों के शरीर है, आत्मा है आदि, इस प्रकार सोचने का हमें अभ्यास हो गया है, किन्तु वास्तव में केवल एक ही सत्ता है।

जब मैं अपने को ‘शरीर’ सोचता हूँ, तब मैं केवल शरीर हूँ; मैं इसके अतिरिक्त और कुछ हूँ, यह कहना बेकार की बात है। जब मैं अपने को आत्मा मानता हूँ, तब देह तो कहीं उड़ जाती है, देहानुभूति ही नहीं रहती। देह-ज्ञान लुप्त हुए बिना कभी आत्मानुभूति होती ही नहीं। गुण की अनुभूति लुप्त न होने तक द्रव्य का अनुभव कभी किसीको नहीं हो सकता।

इसको और अधिक अच्छी तरह समझने के लिए अद्वैतवादियों का रज्जु-सर्प का उदाहरण लिया जा सकता है। जब मनुष्य रस्सी को साँप समझकर भूल करता है, तब उसके लिए रस्सी नहीं रहती और जब वह उसे वास्तविक रस्सी समझता है, तब उसका सर्प-ज्ञान नष्ट हो जाता है और केवल रस्सी ही बच रहती है। अपूर्ण सामग्री के आधार पर विचार करने के कारण हमें द्वित्व या त्रित्व की अनुभूति होती है। ये सब बातें हम पुस्तकों में पढ़ते अथवा सुनते आते हैं, और अंततः हम इस भ्रम में पड़ जाते है कि मानो सचमुच ही हमें आत्मा और देह का द्वैत अनुभव हो रहा है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हैं। एक समय में या तो केवल देह का ही अनुभव होता है या आत्मा का ही। इसको प्रमाणित करने के लिए किसी युक्ति की ज़रूरत नहीं। अपने मन से ही तुम इसका सत्यापन कर सकते हो।

तुम अपने को आत्मा या कुछ देहरहित मानकर सोचने का प्रयत्न करो, तो प्रतीत होगा कि यह असम्भव-सा है, और जो इने-गिने लोग इसमें सफल होते हैं, वे देखेंगे कि जब वे अपने को आत्मस्वरूप अनुभव करते हैं, तब उन्हें देह ज्ञान नहीं रहता। तुमने ऐसे व्यक्तियों के विषय में सुना होगा और शायद देखा भी होगा, जो कभी-कभी प्रखर ध्यान, आत्मसम्मोहन, हिस्टीरिया या मादक द्रव्यों के प्रभाव से विशेष अवस्था में आ जाते हैं। उन लोगों की इन अनुभूतियों से तुमको पता चलेगा कि जब वे भीतर ही भीतर अनुभव कर रहे थे, तब उनका वाह्य ज्ञान एकदम लुप्त हो गया था, बिल्कुल नहीं रह गया था। इसीसे जान पड़ता है कि अस्तित्व एक ही है, दो नहीं। वह एक ही अनेक रूपों में जान पड़ता है और इन्हीं सारे रूपों से कार्य-कारण का सम्बन्ध उत्पन्न होता है। कार्य-कारण-सम्बन्ध का अर्थ है परिणाम, एक का दूसरे में बदल जाना। समय समय पर मानो कारण अन्तर्हित हो जाता है, केवल उसके बदले कार्य रह जाता है। यदि आत्मा देह का कारण है, तो मानो कुछ देर के लिए वह अन्तर्हित हो जाती है और उसके बदले देह रह जाती है, और जब शरीर अन्तर्हित हो जाता है, तो आत्मा अवशिष्ट रहती है। इस मत से बौद्धों का मत खण्डित हो जाता है। बौद्ध आत्मा और शरीर–इन दोनों को पृथक् मानने के अनुमान के विरुद्ध तर्क करते थे। अब अद्वैतवाद के द्वारा इस द्वैतभाव को मिटाने और द्रव्य तथा गुण एक ही वस्तु के विभिन्न रूप हैं, यह प्रदर्शित करने से उनका मत भी खण्डित हो गया।

हम लोगों ने यह भी देखा कि अपरिणामित्व केवल समष्टि के सम्बन्ध में ही सत्य हो सकता है, व्यष्टि के सम्बन्ध में नहीं। परिणाम और गति, इन भावों के साथ व्यष्टि की धारणा जड़ित है। हर ससीम विषय को हम जान और समझ सकते हैं, क्योंकि वह परिणामी होती है; किंतु पूर्ण का अपरिणामी होना अनिवार्य है, क्योंकि उसके अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं, जिसके संदर्भ में उसमें कोई परिवर्तन हो सके। परिणाम केवल दूसरे किसी अल्पपरिणामी अथवा पूर्ण रूप से अपरिणामी पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही जाना जा सकता है।

अतएव अद्वैतवाद के अनुसार, सर्वव्यापी अपरिणामी अमर आत्मा के अस्तित्व का विषय भी यथासम्भव प्रमाणित किया जा सकता है। व्यष्टि के सिद्ध करने के बारे में ही कठिनाई होगी। तो फिर हमारे सब प्राचीन द्वैतवादी सिद्धांतों का, जिनका हमारे ऊपर इतना प्रबल प्रभाव है, और ससीम, क्षुद्र, व्यक्तिगत आत्मा में उन विश्वासों का क्या होगा, जिनमें होकर हम सबको गुज़रना होता है।

हमने देखा कि समष्टि भाव से हम लोग अमर हैं, किन्तु समस्या यही है कि हम क्षुद्र व्यक्ति के रूप में भी अमर होने के इच्छुक हैं, इसका क्या अर्थ है? हमने देखा कि हम अनन्त हैं, और वही हमारा यथार्थ व्यक्तित्व है। किन्तु हम इन क्षुद्र आत्माओं को व्यक्ति बनाना चाहते हैं। उस क्षुद्र व्यक्तित्व का क्या होगा? किंतु दैनदिन जीवन में हम देखते हैं कि उनका व्यक्तित्व है, किन्तु वह व्यक्तित्व है निरंतर विकासशील। वे एक हैं, और फिर भी एक नहीं हैं। कल का ‘मैं’ आज का ‘मैं’ है भी, और साथ ही नहीं भी है, क्योंकि वह थोड़ा परिवर्तित हो जाता है। इस द्वैतभावात्मक धारणा अर्थात् समस्त परिणाम के भीतर कुछ ऐसा है जो परिवर्तित नहीं होता–इस मत के परित्याग, और नितान्त आधुनिक भाव अर्थात् विकासवाद को स्वीकार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह ‘मैं’ एक सतत परिवर्तनशील और विकसनशील सत्ता है।

यदि यह सत्य है कि मनुष्य मांसल जन्तुविशेष (mollusc) का परिणाम मात्र है, तो वह जन्तु और मनुष्य एक ही पदार्थ हुए, भेद केवल यही हुआ कि मनुष्य उस जन्तुविशेष का बहु-परिणामात्मक विकास मात्र है। वही क्रमशः विकसित होते होते अनन्त की ओर जा रहा है और अब उसने मनुष्य का रूप धारण किया है। इसलिए सीमाबद्ध जीवात्मा को ऐसा व्यक्ति कहा जा सकता है, जो क्रमशः पूर्ण व्यक्तित्व की ओर अग्रसर हो रहा है। पूर्ण व्यक्तित्व तभी प्राप्त होगा, जब वह अनन्त में पहुँचेगा, किन्तु इस अवस्था में पहुंचने से पहले ही उसके व्यक्तित्व का लगातार परिणाम हो रहा है और साथ ही साथ विकास भी। अद्वैत वेदान्त का प्रधान वैशिष्ट्य है–पूर्ववर्ती मतों में सामंजस्य स्थापित करना। उससे दर्शन को अनेक अवसरों पर बहुत लाभ भी हुआ, पर कभी कभी उसने हानि भी पहुँचायी। जिसे आज आप विकासवाद कहते हैं, अर्थात् विकास शनैः शनैः क्रमबद्ध होता है–इस सिद्धांत को हमारे प्राचीन दार्शनिक जानते थे और इसीकी सहायता से वे समस्त पूर्ववर्ती दर्शनों का सामंजस्य करने में सफल हुए। अतएव पूर्ववर्ती कोई भी मत ‘परित्यक्त’ नहीं हुआ। बौद्धमत का दोष यह था कि उसमें विकासवाद का ज्ञान नहीं था और न उसको समझने की क्षमता। अतएव उन्होंने आदर्श में पहुँचने की पूर्ववर्ती सीढ़ियों के साथ अपने मत का सामंजस्य करने का कोई प्रयत्न नहीं किया, वरन् उन्हें निरर्थक और अनिष्टकारी कहकर उनका परित्याग कर दिया।

धर्म की यह प्रवृत्ति अत्यन्त अनिष्टकारक है। किसी व्यक्ति को एक नूतन और श्रेष्ठतर भाव मिला, तो वह अपने पुराने भावों के प्रति यह निर्णय कर लेता है कि वे सब अनावश्यक तथा हानिकारक थे। वह यह कभी नहीं सोचता कि उसकी आज की दृष्टि से वे कितने ही निरर्थक क्यों न हों, एक समय वह भी तो था, जब वे ही उसके लिए उपयोगी और उसकी वर्तमान अवस्था तक उसे पहुँचाने के लिए आवश्यक थे। तथा हममें से प्रत्येक को उसी प्रकार से आत्म-विकास करना पड़ेगा, पहले स्थूल भावों को अपनाना होगा, और उनसे लाभान्वित होकर एक उच्चतर मानदंड तक पहुँचना होगा। इसलिए अद्वैतवाद प्राचीनतम मतों से मित्र भाव रखता है। द्वैतवाद तथा अपने पूर्वगामी अन्य मतों को अद्वैतवाद एक संरक्षक की दृष्टि से नहीं, वरन् यह मान कर अंगीकार कर लेता है कि वे भी एक ही सत्य की सच्ची अभिव्यक्तियाँ हैं और अद्वैतवाद जिन सिद्धान्तों पर पहुँचा है, वे भी उन्हीं सिद्धान्तों पर पहुँचाते हैं।

अतएव मनुष्य को जिन सब सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर जाना है, उनके प्रति कठोर वचन न कहकर उनको आशीर्वाद देते हुए उनकी रक्षा करनी चाहिए। इसीलिए वेदान्त में इन द्वैतवादी सिद्धांतों की उचित रक्षा की गयी है, उनका परित्याग नहीं किया गया, और इसीलिए ससीम, व्यक्तितायुक्त, किंतु फिर भी अपने में पूर्ण आत्मा की परिकल्पना ने वेदान्त में स्थान पाया है।

द्वैत मत के अनुसार मृत्यु होने के पश्चात् मनुष्य अन्यान्य लोकों में जाता है इत्यादि, ये सब भाव अद्वैतवाद में सम्पूर्ण रूप से रक्षित हैं। क्योंकि अद्वैत में विकास की प्रक्रिया स्वीकार करने पर, इन विविध सिद्धांतों को अपना उचित स्थान मिल जाता है, वे सत्य के आंशिक वर्णन मात्र हैं।

द्वैतवाद की दृष्टि से इस जगत् को केवल भौतिक द्रव्य या शक्ति की सृष्टि के रूप में ही देखा जा सकता है, उसे किसी विशेष इच्छा-शक्ति की क्रीड़ा के रूप में ही सोचा जा सकता है और उस इच्छा-शक्ति को जगत् से पृथक् ही सोचना सम्भव है। इस दृष्टि से मनुष्य अपने को आत्मा और देह दोनों की समष्टि के रूप में सोच सकता है और यह आत्मा ससीम होने पर भी स्वयं में पूर्ण है। इस प्रकार के व्यक्ति की अमरत्व और भावी जीवन की धारणाएँ उसकी आत्मा सम्बन्धी धारणाओं के अनुसार ही होती है। वेदान्त में इन सब अवस्थाओं को सुरक्षित रखा गया है और इसलिए द्वैतवाद की कुछ लोकप्रिय धारणाओं का परिचय तुमको देना आवश्यक है।

इस मत के अनुसार हमारा यह शरीर तो है ही, इस स्थूल शरीर के पीछे एक सूक्ष्म शरीर है। यह सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक द्रव्य से बना है। वह हमारे सम्पूर्ण कर्मों और संस्कारों का आलय है। कर्म और संस्कार दृश्य रूप में व्यक्त होने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। हमारा प्रत्येक विचार और प्रत्येक कार्य कुछ समय बाद सूक्ष्म रूप धारण कर लेता है, मानो बीज बन जाता है, सूक्ष्म शरीर में अव्यक्त रूप से रहता है, और कुछ समय बाद आविर्भूत होकर अपना फल देता है । कर्म-फलों का यही समूह मनुष्य के जीवन को निर्धारित करता है। वह अपना जीवन स्वयं ही बनाता है। मनुष्य अपने लिए जिन नियमों की रचना करता है, उनके अतिरिक्त वह और किसी भी नियम से बद्ध नहीं है। हमारे विचार, शब्द और कर्म हमारे शुभ या अशुभ बन्धन-जाल के सूत हैं। एक बार किसी शक्ति को चलायमान कर देने पर उसका पूर्ण फल हमें भोगना पड़ता है। यही कर्मविधान है। इस सूक्ष्म शरीर के पीछे जीव या मनुष्य की व्यष्टिगत आत्मा है। इस जीवात्मा के रूप और आकार को लेकर अनेक वाद-विवाद हुए हैं। किसीके मत में वह अणु जैसा लघु है, तो किसीके मत में वह इतना लघु नहीं है, और दूसरों के मत में बहुत बड़ा है, आदि। यह जीव उस विश्वव्याप्त द्रव्य का एक अंग है, और वह शाश्वत है। वह अनादि और अनंत है। अपना प्रकृतस्वरूप, पवित्रता को प्रकाशित करने के लिए वह अनेक प्रकार की देहों में से होकर आगे बढ़ रहा है। जो कर्म इस प्रकाश की अभिव्यक्ति में बाधा उपस्थित करता है, उसे असत् कर्म कहते है। ऐसा ही विचारों के सम्बन्ध में भी है, और जिस कार्य अथवा विचार द्वारा उसके स्वरूप प्रकाशन में सहायता मिलती है, उसे सत्कार्य अथवा सविचार कहते है। किन्तु भारत के निम्नतम द्वैतवादी और अत्यन्त उन्नत अद्वैतवादी सभी को यह सामान्य मत है कि आत्मा की समस्त शक्ति और संभावना उसीके भीतर है–वे किसी बाह्य स्रोत से नहीं आतीं। वे आत्मा में ही अव्यक्त रूप से रहती हैं, और जीवन का सारा कार्य केवल उनके उस अव्यक्त शक्ति-समूह को व्यक्त करना मात्र है।

वे पुनर्जन्म के सिद्धांत को भी मानते हैं, जिसके अनुसार इस देह के नष्ट होने पर जीव फिर एक देह धारण करेगा और उस देह के नाश होने पर फिर एक दूसरी देह, तथा इसी प्रकार आगे भी क्रम चलता रहेगा। जीवात्मा इसी पृथ्वी पर जन्म ले अथवा अन्य किसी लोक में, किन्तु इसी पृथ्वी को श्रेष्ठतर बताया गया है, क्योंकि उनके मत में हमारे सम्पूर्ण प्रयोजन की सिद्धि लिए यह पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकों में दुःख-कष्ट यद्यपि बहुत कम अवश्य हैं, किन्तु इसी कारण वहाँ उच्चतम विचार करने के लिए अवसर ही नहीं मिलता।इस जगत में घोर दुःख भी है और कुछ सुख भी।अतएव जीव की मोह-निद्रा यहाँ कभी न कभी टूटती ही है,कभी न कभी उसकी इच्छा मुक्ति पाने की होती ही है। किन्तु जैसे इस लोक में बहुत धनि व्यक्ति के लिए उच्चतर वस्तुओं पर विचार करने का संयोग अल्पतम ही होता है, ठीक उसी प्रकार जीव यदि स्वर्ग में जाता है, तो उसकी भी आत्मोन्नति की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। कारण यह है कि उसकी दशा यहाँ के धनि व्यक्ति की भाँति हो जाती है, वरन यहाँ की अपेक्षा और भी अधिक प्रखर। उसको वहाँ जो सूक्ष्म देह प्राप्त होती है, वह रोगमुक्त होती है, उसमें कोई खाने पीने की आवश्यकता नहीं रह जाती और सब कामनाएँ भी पूर्ण होती रहती हैं। जीव वहाँ सुख पर सुख भोगता रहता है, परन्तु इसीलिए वह अपना स्वरुप बिलकुल भूल जाता है। फिर भी कुछ उच्चतर लोग ऐसे भी हैं, जहाँ सब भोगों के रहते हुए भी और आगे विकास कर सकना संभव है। कुछ द्वैतवादी उच्चतम स्वर्ग को ही चरम लक्ष्य मानते हैं–उनके मतानुसार जीवात्माएँ वहाँ जाकर चिरकाल तक भगवान् के साथ रहती हैं। वे वहाँ दिव्य देह प्राप्त करती हैं–उन्हें रोग, शोक, मृत्यु अथवा अन्य कोई अशुभ नहीं सताता। उनकी सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। समय समय पर उनमें से कोई पृथ्वी पर आकर, देह धारण कर मनुष्य को ईश्वर के मार्ग का उपदेश देती है और जगत के सभी महान उपदेशक ऐसे व्यक्ति ही हैं। वे पहले ही मुक्त होकर भगवान के साथ उच्चतम लोक में वास करते हैं, किंतु दुःखार्त मनुष्यों के प्रति उनकी इतनी प्रीति और अनुकंपा होती है कि वे यहाँ आकर पुनः देह धारण कर लोगों को स्वर्ग-पथ के संबंध में उपदेश देते हैं।

अद्वैतवाद की इस मान्यता से तो हम परिचित हैं कि यह हमारा चरम लक्ष्य कभी नहीं हो सकता। हमारा लक्ष्य होना चाहिए संपूर्ण विदेह मुक्ति। आदर्श कभी समीम नहीं हो सकता। अनन्त से घटकर और कुछ भी हमारा चरम लक्ष्य नहीं हो सकता, किन्तु देह तो कभी अनन्त नहीं होती। यह होना असंभव है क्योंकि सससीमता से शरीर की उत्पत्ति होती है। विचार अनंत नहीं हो सकता, क्योंकि विचार भी समीम से उत्पन्न होता है।अद्वैतवादी कहता है हमें देह और विचार के परे जाना होगा। और हमने अद्वैतवादीयों की यह धारणा भी देखी है कि मुक्ति कोई प्राप्त करने की वस्तु नहीं है, वह तो सदा तुम्हारी अपनी है केवल हम लोग उसे भूल जाते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं। पूर्णता हमें प्राप्त करना नहीं है, वह तो सदैव ही हमारे भीतर वर्तमान है। यह अमरत्व, यह आनंद हमें अर्जित करना नहीं है, वह तो सदा से ही हमें प्राप्त है।

यदि तुम साहस के साथ यह कह सको कि ‘मैं मुक्त हूँ’ तो इसी क्षण तुम मुक्त हो। यदि तुम कहो ‘मैं बद्ध हूँ’, तो तुम बद्ध ही रहोगे। जो हो, द्वैतवादीयों के विभिन्न मत मैंने तुमको बता दिये हैं, इनमें से तुम जिसे चाहो ग्रहण करो।

वेदांत की यह बात समझना बहुत कठिन है और लोग सदा इस पर विवाद करते रहते हैं। सबसे अधिक मुश्किल तो यही है कि जो किसी एक मत को ले लेता है, वह दूसरे मत को बिल्कुल अस्वीकार कर उस मतावलम्बी के साथ वाद-विवाद करने में प्रवृत्त हो जाता है। तुम्हारे लिए जो उपयुक्त हो, उसे तुम ग्रहण करो, और दूसरे को जो उपयुक्त लगे, उसे वह ग्रहण करने दो। यदि तुम अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व को, इस समीम मानवत्व को रखने के लिए इतने इच्छुक हो, तो उसे अनायास ही रख सकते हो, तुम्हारी सभी वासनाएँ रह सकती हैं और तुम उनमें संतुष्ट भी रह सकते हो। यदि मनुष्य भाव में रहने का आनंद तुम्हें इतना सुंदर और मधुर लगता है, तो तुम जितने दिन इच्छा हो उसको रख सकते हो, क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हीं अपने भाग्य निर्माता हो। ज़बरदस्ती तुमसे कोई कुछ भी नहीं करा सकता। तुम्हारी जब तक इच्छा हो, मनुष्य बने रहो, कोई भी तुम्हें रोक नहीं सकता। यदि देवता होने की इच्छा करो, तो देवता हो जाओगे। असल बात यह है। किंतु कुछ लोग ऐसे हैं जो देवता भी नहीं बनना चाहते हैं। उनसे यह कहने का तुम्हारा क्या अधिकार है कि यह बड़ी भयंकर बात है? तुम्हें सौ रुपये खो जाने से दुःख हो सकता है, किंतु ऐसे भी अनेक लोग हैं, जिनका यदि सर्वस्व नष्ट हो जाए, तो भी उन्हें किंचित कष्ट नहीं होगा। ऐसे लोग प्राचीन काल में भी थे और आज भी हैं। तुम उन्हें अपने आदर्श के पैमाने से क्यों नापते हो? तुम अपने इन क्षुद्र सीमित भावों से चिपके रहो, ये लौकिक विचार तुम्हारे सर्वोच्च आदर्श बने रहें। जैसा चाहोगे वैसा ही पाओगे। किंतु ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है–वे इन सीमाओं में संतुष्ट नहीं रह सकते, वे इनके परे जाना चाहते हैं। जगत और उसका संपूर्ण भोग उन्हें गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता। तुम उन्हें अपने विचारों में क्यों फँसाकर रखना चाहते हो? इस प्रवृत्ति को बिल्कुल छोड़ना पड़ेगा। प्रत्येक को उसका स्थान दो।

बहुत दिन पहले मैंने पत्रों में एक समाचार पढ़ा था। कुछ जहाज़ प्रशान्त महासागर के एक द्वीपपुंज के निकट तूफ़ान में फँस गये। सचित्र लंदन समाचार (Illustrated London News) पत्रिका में इस घटना का एक चित्र भी आया था। तूफ़ान में केवल एक ब्रिटिश जहाज़ को छोड़कर अन्य सब भग्न होकर डूब गये। वह ब्रिटिश जहाज़ तूफ़ान पार कर चला आया। चित्र में यह दिखाया है कि जहाज़ डूबे जा रहे हैं, उनके डूबते हुए यात्री डेक के ऊपर खड़े होकर तूफ़ान के मध्य बच जानेवाले यात्रियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसी प्रकार हमें वीर, उदार होना चाहिए। दूसरों को नीचे खींचकर अपनी भूमि पर मत लाओ। लोग मूर्ख के समान एक और मत की पुष्टि किया करते है कि यदि हमारा यह क्षुद्र व्यक्तित्व चला जायगा, तो जगत् में किसी प्रकार की नीतिपरायणता नहीं रहेगी, मनुष्य जाति की आशा उच्छिन्न हो जायगी। मानो जो ऐसा कहते है, वे समग्र मानव जाति के लिए सदा प्राणोत्सर्ग ही करने के लिए तैयार हैं ! ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे! यदि हर देश में केवल दो सौ नर-नारी देश के सच्चे हितैषी हों, तो पाँच दिन में सत्ययुग आ सकता है। हम जानते है कि हम मनुष्य जाति के उपकार के लिए किस प्रकार आत्मोत्सर्ग करना चाहते हैं! ये सब लम्बी-चौड़ी बातें है और कुछ नहीं विश्व के इतिहास से यह स्पष्ट है कि जिन्होंने अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व को एकदम भुला दिया था, वे ही मानव जाति के सर्वोत्तम हितैषी हैं, और स्त्री या पुरुष जितनी ही अधिक अपने संबंध में सोचते हैं, वे दूसरों के लिए उतना ही कम कर पाते है। उनमें से एक में निःस्वार्थपरता है और दूसरे में स्वार्थपरता। इन छोटे छोटे भोग-सुखों में आसक्त रहना और उनकी निरंतरता तथा पुनरावृत्ति चाहना घोर स्वार्थ है। ऐसी मनोवृत्ति सत्यानुराग अथवा दूसरों के प्रति दयालु भाव के कारण नहीं होती–इसकी उत्पत्ति का एकमात्र कारण है घोर स्वार्थपरता। दूसरे किसीकी ओर दृष्टि न रखकर केवल अपनी ही भोगवृत्ति के भाव से इसका जन्म होता है। कम से कम मुझे तो यही जान पड़ता है। संसार में मैं प्राचीन पैग़म्बरों और महात्माओं के समान चरित्रबलशाली व्यक्ति और देखना चाहता हूँ–वे एक क्षुद्र पशु तक के उपकारार्थ सौ सौ जीवन त्यागने के लिए तैयार थे। नीति और परोपकार की क्या बात करते हो? यह तो आजकल की बेकार की बातें है।

मैं गौतम बुद्ध के समान नैतिकतायुक्त लोग देखना चाहता हूँ। वे सगुण ईश्वर अथवा व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास नहीं करते थे, उस विषय में कभी प्रश्न ही नहीं करते थे, उस विषय में पूर्ण अज्ञेयवादी थे, किन्तु जो सबके लिए अपने प्राण तक देने को प्रस्तुत थे–आजन्म दूसरों का उपकार करने में रत रहते तथा सदैव इसी चिन्ता में मग्न रहते थे कि दूसरों का उपकार किस प्रकार हो। उनके जीवन-चरित लिखनेवालों ने ठीक ही कहा है कि उन्होंने ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ जन्म ग्रहण किया था। वे अपनी निजी मुक्ति के लिए वन में तप करने नहीं गये। दुनिया जली जा रही है–और इसे बचाने का कोई उपाय मुझे खोज निकालना चाहिए। उनके समस्त जीवन में यही एक चिन्ता थी कि जगत् में इतना दुःख क्यों है? तुम लोग क्या यह समझते हो कि हम सब उनके समान नैतिकतापरायण हैं?

मनुष्य जितना ही स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है। यही बात जातियों के सम्बन्ध में सत्य है। स्वयं अपने से ही विजड़ित रहने वाली जाति ही समग्र संसार में सबसे अधिक क्रूर और पातकी सिद्ध हुई है। अरब के पैग़म्बर द्वारा प्रवर्तित धर्म से बढ़कर द्वैतवाद से चिपकने वाला कोई दूसरा धर्म आज तक नहीं हुआ, और इतना रक्त बहाने वाला तथा दूसरों के प्रति इतना निर्मम धर्म भी कोई दूसरा नहीं हुआ। कुरान का यह आदेश है कि जो मनुष्य इन शिक्षाओं को न माने, उसको मार डालना चाहिए; उसकी हत्या कर डालना ही उस पर दया करना है! और सुन्दर हूरों तथा सभी प्रकार के भोगों से युक्त स्वर्ग को प्राप्त करने का सबसे विश्वस्त रास्ता है, काफ़िरों की हत्या करना। ऐसे कुविश्वासों के फलस्वरूप जितना रक्तपात हुआ है, उसकी कल्पना कर लो!

ईसा मसीह ने जिस धर्म का प्रचार किया, उसमें ऐसी भद्दी बातें नहीं थीं। विशुद्ध ईसाई धर्म और वेदान्त धर्म में बहुत कम अन्तर है। उन्होंने अद्वैतवाद का भी प्रचार किया और जनसाधारण को सन्तुष्ट रखने के लिए, उसे उच्चतम आदर्श की धारणा कराने के लिए सोपान रूप से द्वैतवाद के आदर्श की भी शिक्षा दी। जिन्होंने ‘मेरे स्वर्गस्थ पिता’ कहकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया था, उन्होंने यह भी कहा था ‘मैं और मेरे पिता एक हैं।’ वे यह भी जानते थे कि इस स्वर्गस्थ पितारूप द्वैतभाव की उपासना करते करते ही अभेद बुद्धि आ जाती है। उस समय ईसाई धर्म केवल प्रेम और आशीर्वादपूर्ण था, किन्तु उसमें जैसे ही असंस्कार आ घुसे, वह,च्युत होकर अरब के पैग़म्बर के धर्म के स्तर पर आ टिका। यह जो क्षुद्र ‘मैं’ के लिए मारकाट, ‘मैं’ के प्रति घोर आसक्ति, और केवल इसी जीवन में नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी इस क्षुद्र ‘मैं’ तथा इस क्षुद्र व्यक्तित्व को ही लेकर रहने की इच्छा, यह सब असंस्कार ही तो है। वे इसीको निःस्वार्थपरता और नैतिकता की आधारशिला कहते हैं। यही अगर नैतिकता की आधार-शिला हो, तो भगवान् हमारी रक्षा करें! और आश्चर्य की बात यह है कि जिन सब नर-नारियों से हम अधिक ज्ञान की अपेक्षा करते हैं, उन्हें यह डर लगता है कि इस क्षुद्र ‘मैं’ के मिटने पर सारी नैतिकता बिल्कुल नष्ट हो जायगी। यह कहने से कि इस क्षुद्र ‘मैं’ के विनाश पर ही यथार्थ नैतिकता अवलम्बित है, इनका कलेजा मुँह में आ जाता है। सब प्रकार की नीति, शुभ तथा मंगल का मूलमन्त्र ‘मैं’ नहीं, ‘तुम’ है। स्वर्ग और नरक है या नहीं, आत्मा है या नहीं, कोई अनश्वर सत्ता है या नहीं, इसकी चिन्ता कौन करता है? हमारे सामने यह संसार है और वह दुःख से पूर्ण है। बुद्ध के समान इस संसार सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुःख को दूर करो या इस प्रयत्न में प्राण त्याग दो। अपने को भूल जाओ; आस्तिक हो या नास्तिक, अज्ञेयवादी ही हो या वेदान्ती, ईसाई हो या मुसलमान–प्रत्येक के लिए यही प्रथम पाठ है। और जो पाठ सबको स्पष्ट है, वह है तुच्छ अहं का उन्मूलन और वास्तविक आत्मा का विकास।

दो शक्तियाँ सदा समानान्तर रेखाओं में एक दूसरे के साथ कार्य कर रही हैं। एक कहती है “मैं” और दूसरी कहती है “मैं नही”। उनकी अभिव्यक्ति केवल मनुष्यों में ही नहीं, किन्तु पशुओं में भी देखी जाती है, केवल पशुओं में ही नहीं क्षुद्रतम कीटाणुओं में भी। नर-रक्त की प्यासी लपलपाती जीभवाली बाघिन भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान देने को प्रस्तुत रहती हैं। अत्यन्त बुरा आदमी, जो अनायास ही अपने भाई का गला काट सकता है–वह भी भूख से मरती हुई अपनी स्त्री तथा बाल-बच्चों के लिए अपने प्राण निस्संकोच दे देता हैं। सृष्टि के भीतर ये दोनों शक्तियाँ पास पास ही काम कर रही हैं–जहाँ एक शक्ति देखोगे, वहाँ दूसरी भी दीख पड़ेगी। एक स्वार्थपरता है, और दूसरी निःस्वार्थपरता। एक है ग्रहण, दूसरी त्याग। एक लेती है, दूसरी देती है। क्षुद्रतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक समस्त ब्रह्माण्ड इन्ही दोनों शक्तियों का लीलाक्षेत्र है। इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं–यह स्वतः प्रमाण है।

समाज के एक अंश के लोगों को जगत् के समस्त क्रियाकलाप और विकास को इन दो में से केवल एक–प्रतियोगिता और संघर्ष–घटक पर आधारित कर देने का क्या अधिकार है? विश्व के नारे व्यापारों को राग-द्वेष, युद्ध, प्रतियोगिता और संघर्ष पर अधिष्ठित मानने का उन्हें क्या अधिकार है? उनके अस्तित्व को हम अस्वीकार नहीं करते। किन्तु उन्हें दूसरी शक्ति की क्रिया को बिल्कुल न मानने का क्या अधिकार है? क्या, कोई मनुष्य यह अस्वीकार कर सकता है कि यह प्रेम, अहंशून्यता अथवा त्याग ही जगत् की एकमात्र धनात्मक शक्ति है? दूसरी शक्ति इस प्रेम-शक्ति का ही असम्यक प्रयोग है, प्रेम से ही प्रतिद्वन्द्विता की उत्पत्ति होती है, प्रेम ही प्रतियोगिता का मूल है। निःस्वार्थपरता ही अशुभ की माता है। शुभ ही अशुभ का जनक है, और अशुभ का परिणाम भी शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एक व्यक्ति जो दूसरे की हत्या करता है, वह भी प्रायः अपने पुत्रादि के प्रति स्नेह की प्रेरणा से ही, एवं उनके लालन-पालन के लिए उसका प्रेम संसार के अन्य लाखों व्यक्तियों से हटकर केवल अपने शिशु में सीमित हो जाता है, किन्तु ससीम हो या असीम, वह मूलतः है प्रेम ही।

अतएव समग्र जगत् की परिचालक, जगत् में एक मात्र प्रकृत और जीवन्त शक्ति वही एक अद्भुत वस्तु है–वह किसी भी आकार में व्यक्त क्यों न हो, और वह है प्रेम, निःस्वार्थपरता तथा त्याग। इसीलिए वेदान्त अद्वैत पर ज़ोर देता है। हम भी इसी व्याख्या पर आग्रह कर रहे हैं, क्योंकि हम जगत् के दो कारण स्वीकार नहीं कर सकते। यहाँ यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वही एक अपूर्व सुन्दर प्रेम सीमित होकर ही असत् रूप में प्रतीत होता है, तो एक ही प्रेमशक्ति द्वारा सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या हो जाती है। नहीं तो हमें जगत् के दो कारण मानने पड़ेंगे–एक शुभ, दूसरा अशुभ–एक प्रेम, दूसरा घृणा। इन दोनों सिद्धान्तों के बीच में कौन अधिक न्यायसंगत है?–निश्चय ही शक्ति को माननेवाला सिद्धान्त।

मैं अब ऐसी बातों की चर्चा करूंगा जो सम्भवतः द्वैतवाद से सम्बन्ध नहीं रखतीं। मैं द्वैतवाद की इस आलोचना में और अधिक समय नहीं दूंगा। मेरा उद्देश्य यहाँ यह दिखलाना है कि नैतिकता और निःस्वार्थपरता के उच्चतम आदर्श उच्चतम दार्शनिक धारणा के साथ असंगत नहीं हैं, नैतिकता और नीति शास्त्र की उपलब्धि के लिए तुमको अपनी दार्शनिक धारणा को नीचा नहीं करना पड़ता, वरन् नैतिकता और नीतिशास्त्र को ठोस आधार देने के लिए तुमको उच्चतम दार्शनिक और वैज्ञानिक धारणाएँ स्वीकार करनी होंगी। मनुष्य का ज्ञान मनुष्य के मंगल का विरोधी नहीं है, वरन् जीवन के प्रत्येक विभाग में ज्ञान हमारी रक्षा करता है। ज्ञान ही उपासना है। हम जितना जान सकें, उसीमें हमारा मंगल है। वेदान्ती कहते हैं, इस समस्त प्रतीयमान अशुभ का कारण है–असीम का सीमाबद्ध हो जाना। जो प्रेम सीमाबद्ध होकर क्षुद्र-भावापन्न हो जाता है तथा अशुभ प्रतीत होता है, वही फिर अपनी चरमावस्था में स्वयं को ईश्वर रूप में प्रकाशित करता है। वेदान्त यह भी कहता है कि इस आपात प्रतीयमान् सम्पूर्ण अशुभ का कारण हमारे भीतर ही है। किसी लोकोत्तर पुरुष को दोष न दो, न निराश या विषण्ण होओ, न यह सोचो कि तुम गर्त के बीच में पड़े हो और जब तक कोई दूसरा आकर तुम्हारी सहायता नहीं करता, तब तक तुम इससे निकल नहीं सकते। वेदान्त कहता है, दूसरे की सहायता से हमारा कुछ नहीं हो सकता। हम रेशम के कीड़े के समान हैं। अपने ही शरीर से अपने आप जाल बनाकर उसमें आबद्ध हो गये हैं। किन्तु यह बद्धभाव चिरकाल के लिए नहीं है। हम लोग उससे तितली के समान बाहर निकलकर मुक्त हो जायेंगे। हम लोग अपने चारों ओर इस कर्मजाल को लगा देते हैं और अज्ञानवश सोचने लगते हैं कि हम बद्ध हैं और सहायता के लिए रोते-चिल्लाते हैं। किन्तु बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती, सहायता मिलती है भीतर से। दुनिया के सारे देवताओं के पास तुम रो सकते हो, मैं भी बहुत वर्ष इसी तरह रोता रहा, अन्त में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है, किन्तु यह सहायता भीतर से मिली। भ्रान्तिवश इतने दिन तक जो अनेक प्रकार के काम करता रहा, उस भ्रान्ति को मुझे दूर करना पड़ा। यही एकमात्र उपाय है। मैंने स्वयं अपने को जिस जाल में फँसा रखा है, वह मुझे ही काटना पड़ेगा और उसे काटने की शक्ति भी मुझमें ही है। इस विषय में निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरे जीवन की सदसत् कोई भी प्रवृत्ति व्यर्थ नहीं गयी–मैं उसी अतीत शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का समष्टिस्वरूप हूँ। मैंने जीवन में बहुत सी भूलें की हैं, किन्तु इनको किये बिना आज जो मैं हूँ वह कभी न होता। मैं अब अपने जीवन से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। पर मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि तुम घर जाकर चाहे जितना अन्याय करते रहो। मेरी बात का ग़लत मतलब न समझ लेना। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि कुछ भूल-चूक हो गयी है, इसलिए एकदम हाथ पर हाथ रखकर मत बैठे रहो, किन्तु यह समझ रखो कि अन्त में फल सबका शुभ ही होता है। इसके विपरीत और कुछ कभी नहीं हो सकता, क्योंकि शिवत्व और विशुद्धत्व हमारा स्वाभाविक धर्म है। उसका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता। हम लोगों का यथार्थ स्वरूप सदा ही एकरूप रहता है।

हमें जो समझ लेना है, वह यह है कि जिन्हें हम भूलें या अशुभ कहते हैं, वह हम दुर्बल होने के कारण करते हैं, और हम दुर्बल अज्ञानी होने के कारण हैं। मैं पाप शब्द के बजाय भूल शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझता हूँ। पाप शब्द यद्यपि मूलतः एक बड़ा अच्छा शब्द था, किन्तु अब उसमें जो व्यंजना आ गयी है, उससे मुझे भय लगता है। हमें किसने अज्ञानी बनाया है? स्वयं हमने। हम लोग स्वयं अपनी आँखों पर हाथ रखकर ‘अँधेरा, अँधेरा’ चिल्लाते हैं। हाथ हटा लो और प्रकाश हो जायगा; देखोगे कि मानव की प्रकाशस्वरूप आत्मा के रूप में प्रकाश सदा विद्यमान रहता है। तुम्हारे आधुनिक वैज्ञानिक क्या कहते हैं, यह क्यों नहीं देखते? इस विकास का क्या कारण है?—वासना-इच्छा । पशु कुछ करना चाहता है, किन्तु परिवेश को अनुकूल नहीं पाता, और इसलिए वह एक नूतन शरीर धारण कर लेता है। तुम निम्नतम जीवाणु अमीवा से विकसित हुए हो। अपनी इच्छा-शक्ति का प्रयोग करते रहो, और भी अधिक उन्नत हो जाओगे। इच्छा सर्वशक्तिमान है। तुम कहोगे, यदि इच्छा सर्वशक्तिमान है, तो मैं हर बात क्यों नहीं कर पाता? उत्तर यह है कि तुम जब ऐसी बातें करते हो, उस समय केवल अपने क्षुद्र ‘मैं’ की ओर देखते हो। सोचकर देखो, तुम क्षुद्र जीवाणु से इतने बड़े मनुष्य हो गये। किसने तुम्हें मनुष्य बनाया? तुम्हारी अपनी इच्छा-शक्ति ने ही। यह इच्छा-शक्ति सर्वशक्तिमान है—तुम क्या यह अस्वीकार कर सकते हो? जिसने तुम्हें इतना उन्नत बना दिया, वह तुम्हें और भी अधिक उन्नत कर सकती है। तुमको आवश्यकता है चरित्र की और इच्छा-शक्ति को सबल बनाने की।

अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूँ कि तुम्हारी प्रकृति असत् है, और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं, इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चात्ताप करने तथा रोने-धोने में ही बिताओ, तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार न होगा, वरन् उससे और भी दुर्बल हो जाओगे। ऐसा करना तुम्हें सत्पथ के बजाय असत्पथ दिखाना होगा। यदि हज़ारों साल इस कमरे में अंधेरा रहे और तुम कमरे में आकर हाय! बड़ा अँधेरा है! बड़ा अँधेरा है!’ कह कहकर रोते रहो, तो क्या अंधेरा चला जायगा? कभी नहीं। एक दिया सलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा। अतएव जीवन भर ‘मैंने बहुत दोष किये हैं, मैंने बहुत अन्याय किया है’, यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी उपकार हो सकेगा? हममें बहुत से दोष हैं, यह किसीको बतलाना नहीं पड़ता। ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो, एक क्षण में सब अशुभ चला जायगा। अपने प्रकृतस्वरूप को पहचानो, प्रकृत ‘मैं’ को–उसी ज्योतिर्मय उज्ज्वल, नित्यशुद्ध ‘मैं’ को प्रकाशित करो–प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ। मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जायें कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें, बल्कि उसके हृदय में रहनेवाले भगवान् को देख सकें। और उसकी निन्दा न कर, यह कह सकें, हे स्वप्रकाशक, ज्योतिर्मय, उठो! हे सदाशुद्धस्वरूप उठो! हे अज, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, उठो! आत्मस्वरूप प्रकाशित करो। तुम जिन क्षुद्र भावों में आबद्ध पड़े हो, वे तुम्हें सोहते नहीं।’ अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना का उपदेश देता है। निजस्वरूप स्मरण, सदा उसी अन्तःस्थ ईश्वर का स्मरण, उसीको सदा अनन्त, सर्वशक्तिमान, सदा शिव, निष्काम कहकर उसका स्मरण – यही एकमात्र प्रार्थना है। यह क्षुद्र ‘मैं’ उसमें नहीं रहता, क्षुद्र बन्धन उसे नहीं बाँध सकते। और वह अकाम है, इसीलिए अभय और ओजस्वरूप है, क्योंकि कामना तथा स्वार्थ से ही भय की उत्पत्ति होती है। जिसे अपने लिए कोई कामना नहीं, वह किससे डरेगा? कौन सी वस्तु उसे डरा सकती है? क्या उसे मृत्यु डरा सकती है? अशुभ, विपत्ति डरा सकती है? कभी नहीं। अतएव यदि हम अद्वैतवादी हैं, तो हमें यह मानना होगा कि हमारा ‘मैं-पन’ इसी क्षण से मृत है। फिर मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ, अमुक अमुक हूँ, यह सब भाव नहीं रह जाता, ये अंधविश्वास मात्र थे, और शेष रहता है वही नित्य शुद्ध, नित्य ओजस्वरूप, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञस्वरूप, और तब हमारा सारा भय चला जाता है। कौन इस सर्वव्यापी ‘मैं’ का अनिष्ट कर सकता है? इस प्रकार हमारी सम्पूर्ण दुर्बलता चली जाती है। तब दूसरों में भी उसी शक्ति को उद्दीप्त करना हमारा एकमात्र कार्य हो जाता है। हम देखते हैं, वे भी यही आत्मास्वरूप हैं, किन्तु वे यह जानते नहीं। अतएव हमें उन्हें सिखाना होगा–उनके इस अनन्तस्वरूप के प्रकाशनार्थ हमें उनकी सहायता करनी पड़ेगी। मैं देखता हूँ कि जगत् में इसके प्रचार की सबसे अधिक आवश्यकता है। ये सब मत अत्यन्त पुराने हैं, बहुतेरे पर्वतों से भी पुराने। सभी सत्य सनातन हैं। सत्य व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है। कोई भी जाति, कोई भी व्यक्ति उसे अपनी सम्पत्ति कहने का दावा नहीं कर सकता। सत्य ही सब आत्माओं का यथार्थस्वरूप है। किसी भी व्यक्ति विशेष का उस पर विशेष अधिकार नहीं है। किन्तु हमें उसे व्यावहारिक और सरल बनाना होगा, (क्योंकि उच्चतम सत्य अत्यन्त सहज और सरल होते हैं) जिससे वह समाज के हर रंध्र में व्याप्त हो जाय, उच्चतम मस्तिष्क से लेकर अत्यन्त साधारण मन द्वारा भी समझा जा सके, तथा आबाल-वृद्ध-वनिता सभी उसे जान सकें। ये न्याय के कूट विचार, दार्शनिक मीमांसाएँ, ये सब मतवाद और क्रिया-काण्ड–इन सबने किसी समय भले ही उपकार किया हो, किन्तु आओ, हम सब आज से-इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग के पुनरागमन में सहायता करें, जब प्रत्येक व्यक्ति उपासक होगा और उसका अन्तःस्थ सत्य ही उसकी उपासना का विषय होगा।

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