स्वामीजी से कुछ लोगों का संन्यास-दीक्षाग्रहण – विवेकानंद जी के संग मे
विषय – मठ में स्वामीजी से कुछ लोगों का संन्यास-दीक्षाग्रहण -संन्यास धर्म विषय पर स्वामीजी का उपदेश – त्याग ही मनुष्यजीवन का उद्देश्य – “आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च” – सर्वस्व-त्याग ही संन्यास – संन्यास ग्रहण करने का कोई काला काल नहीं – “यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रवजेत्”- चार प्रकार के संन्यास – भगवान बुद्धदेव के पश्चात् ही विविदिषा संन्यास की वृद्धि – बुद्ध देव के पहले संन्यास आश्रम के रहने पर भी यह नहीं समझाजाता था कि त्याग या वैराग्य ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है – “निकम्मेसंन्यासीगण से देश का कोई कार्य नहीं होता” इत्यादि सिद्धान्त का खण्डन- यथार्थ संन्यासी अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा कर जगत् का कल्याण करते हैं।
स्थान – आलमबाजार मठ
वर्ष – १८९७ ईसवी
हम पहले कह चुके हैं कि जब स्वामीजी प्रथम बार विलायत से कलकत्ते को लौटे थे, तब उनके पास बहुतसे उत्साही युवकों का आना जाना लगा रहता था। इस समय स्वामीजी बहुधा अविवाहित युवकों को ब्रह्मचर्य और त्याग सम्बन्धी उपदेश दिया करते थे और संन्यास ग्रहण अर्थात् अपना मोक्ष और जगत् के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग करने को बहुधा उत्साहित किया करते थे। हमने अक्सर उनको कहते सुना कि संन्यास ग्रहण किये बिना किसी को यथार्थ आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। केवल यही नहीं, बिना संन्यास ग्रहण किये बहुजन-हितकारी तथा बहुजन-सुखकारी किसी कार्य का अनुष्ठान या उसका सिद्धिलाभ नहीं हो सकता। स्वामीजी उत्साही युवकों के सामने सदैव त्याग के उच्च आदर्श रखते थे, और किसी के संन्यास लेने की इच्छा प्रकट करने पर उसको बहुत उत्साहित करते थे और उस पर कृपा भी करते थे। कई एक भाग्यवान युवकों ने उनके उत्साहपूर्ण वचन से उस समय गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया। इनमें से जिन चार को स्वामीजी ने पहले संन्यास दिया था उनके संन्यासव्रत ग्रहण करने के दिन शिष्य आलमबाजार मठ में उपस्थित था। वह दिन शिष्य को अभी तक स्मरण है।
आजकल श्रीरामकृष्ण-संघ में स्वामी नित्यानन्द, विरजानंद, प्रकाशानन्द और निर्भयानन्द नाम से जो लोग सुपरिचित हैं, उन्होंने ही उस दिन संन्यास ग्रहण किया था। मठ के संन्यासियों से शिष्य ने बहुधा सुना है कि स्वामीजी के गुरुभाईयों ने उनसे बहुत अनुरोध किया कि इनमें से एक को संन्यास दीक्षा न दी जाय। इसके प्रत्युत्तर में स्वामीजी ने कहा था, “यदि हम पापी, तापी, दीन, दुःखी और पतितों का उद्धारसाधन करने से हट जायँ, तो फिर इनको कौन देखेगा? तुम इस विषय में किसी प्रकार की बाधा न डालो।” स्वामीजी की बलवती इच्छा ही पूर्ण हुई। अनाथशरण स्वामीजी अपने कृपा-गुण से उनको संन्यास देने में कृतसंकल्प हुए।
शिष्य आज दो दिन से मठ में ही रहता है। स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “तुम तो ब्राह्मण-पुरोहितों में से हो। कल तुम्ही इनकी श्रद्धादि क्रिया करा देना और अगले दिन मैं इनको संन्यासाश्रम में दीक्षित करूँगा। आज पोथीपाथी पढ़कर सब कुछ देख रखो।” शिष्य ने स्वामीजी को आज्ञा शिरोधार्य की।
संन्यासव्रत धारण करने का निश्चय कर उन चार ब्रह्मचारियों ने एक दिन पहले अपना सिर मुण्डन कराया और गंगास्नान कर शुभ्र वस्त्र धारण कर स्वामीजी के चरणकमलों की वन्दना की और स्वामीजी के स्नेहाशीर्वाद को प्राप्त करके श्राद्धक्रिया के निमित्त तैयार हुए।
यहाँ यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जो शास्त्रानुसार संन्यास ग्रहण करते हैं, उनको इस समय अपनी श्राद्धक्रिया स्वयं ही कर लेनी पड़ती है, क्योंकि संन्यास लेने से उनका फिर लौकिक या वैदिक किसी विषय पर कोई अधिकार नहीं रह जाता है। पुत्र-पौत्रादिकृत श्राद्ध या पिण्डदानादि क्रिया का फल उनको स्पर्श नहीं करता। इसलिए संन्यास लेने के पहले अपनी श्राद्ध क्रिया अपने ही को करनी पड़ती है, अपने पैरों पर अपना पिण्ड धरकर संसार के, यहाँ तक कि अपने शरीर के पूर्व सम्बन्धों का भी संकल्प द्वारा निःशेष विलोप करना पड़ता है। इस क्रिया को संन्यास ग्रहण की अधिवास-क्रिया कह सकते हैं। शिष्य ने देखा है कि इन वैदिक कर्म-काण्डों पर स्वामीजी का पूर्ण विश्वास था। वे उन क्रिया-काण्डों के शास्त्रानुसार ठीक ठीक न होने पर बड़े नाराज होते थे। आजकल बहुतसे लोगों का यह विचार है कि गेरुए वस्त्र धारण करने से ही संन्यासदीक्षा हो जाती है, परन्तु स्वामीजी का ऐसा विचार कभी नहीं था। बहुत प्राचीन काल से प्रचलित ब्रह्मविद्यासाधनोपयोगी संन्यासव्रत ग्रहण करने के पहले अनुष्ठेय, गुरुपरम्परागत नैष्ठिक संस्कारों का वे ब्रह्मचारियों से ठीक ठीक साधन कराते थे। हमने यह भी सुना है कि श्रीरामकृष्णदेव के अन्तर्धान होने पर स्वामीजी ने उपनिषदादि शास्त्रों में वर्णित संन्यास लेने की पद्धतियों को मँगवाकर उनके अनुसार श्रीगुरुदेव के चित्र को सम्मुख रखकर अपने गुरुभाइयों के साथ वैदिक मत से संन्यास ग्रहण किया था।
आलमबाजार मठ के दुमंजिले पर जल रखने के स्थान में श्राद्धक्रिया के लिए उपयोगी सब सामग्री एकत्रित की गयी थी। स्वामी नित्यानन्दजी ने पितृ पुरुषों की श्राद्धक्रिया अनेक बार की थी, इस कारण आवश्यक चीजों के एकत्रित करने में कोई त्रुटि नहीं हुई। स्वामीजी के आदेश से शिष्य स्नान करके पुरोहित का कार्य करने को तत्पर हुआ। मन्त्रादि का ठीक ठीक उच्चारण तथा पाठ होने लगा। स्वामीजी कभी कभी देख जाते थे। श्राद्धक्रिया के अन्त में जब चारों ब्रह्मचारियों ने अपने अपने पिण्डों को अपने अपने पाँव पर रखा, तब से सांसारिक दृष्टि से वे मृतवत् प्रतीत हुए। यह देख शिष्य का हृदय बड़ा व्याकुल हुआ और संन्यासाश्रम की कठोरता का स्मरण कर उनका हृदय काँप उठा। पिण्डों को उठाकर जब वे गंगाजी को चले गये तब स्वामीजी शिष्य को व्याकुल देखकर बोले, “यह सब देखकर तेरे मन में भय उपजा है न?” शिष्य के सिर झुका लने पर स्वामीजी बोले, “आज से इन सब की सांसारिक विषयों से मृत्यू हो गयी। कल से उनकी नवीन देह, नवीन चिन्ता, नवीन वस्त्रादि होंगे। ये ब्रह्मवीर्य से दीप्त होकर प्रज्वलित अग्नि के समान अवस्थान करेंगे। ‘न धनेन न प्रज्यया त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।’ ”
स्वामीजी की बातों को सुनकर शिष्य निर्वाक् खड़ा रहा। संन्यास की कठोरता को स्मरण कर उसकी बुद्धि स्तम्भित हो गयी। शास्त्र-ज्ञान का अहंकार दूर हुआ। वह सोचने लगा कि कहने और करने में बड़ा अन्तर है।
इसी बीच वे चारों ब्रह्मचारी, जो श्राद्धक्रिया कर चुके थे, गंगाजी में पिण्डादि डालकर लौट आये और उन्होंने स्वामीजी के चरणकमलों की वन्दना की। स्वामीजी आशीर्वाद देते हुए बोले, “तुम मनुष्यजीवन के सर्वश्रेष्ठ व्रत को ग्रहण करने के लिए उत्साहित हुए हो। धन्य है तुम्हारा वंश, और धन्य है तुम्हारी गर्भधारिणी माता। ‘कुलं पवित्रं जननी कृतार्था।’ ”
उस दिन रात्रि को भोजन करने के पश्चात् स्वामीजी केवल संन्यासधर्म के विषय पर ही वार्तालाप करते रहे। संन्यास लेने के अभिलाषी ब्रह्मचारियों की ओर देखकर वे बोले “आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च” यही संन्यास का यथार्थ उद्देश्य है। इस बात की वेद-वेदान्त घोषणा कर रहे हैं कि संन्यास ग्रहण न करने से कोई कभी ब्रह्मज्ञ नहीं हो सकता। जो कहते हैं कि इस संसार का भोग करना है और साथ ब्रह्मज्ञ भी बनना है, उनकी बात कभी न मानो। प्रच्छन्न भोगियों के ऐसे भ्रमात्मक वाक्य होते हैं। जिनके मन में संसार भोग करने की तनिक भी इच्छा है या लेशमात्र भी कामना है, वे ही इस कठिन पथ से डरते हैं, इसलिए अपने मन को सान्त्वना देने को कहते फिरते हैं कि इन दोनों पथों पर साथ साथ भी चल सकते हैं। ये सब उन्मत्तों के प्रलाप हैं – अशास्त्रीय एवं अवैदिक मत हैं, विडम्बना है। बिना त्याग के मुक्ति नहीं। बिना त्याग के पराभक्ति नहीं। त्याग – त्याग – ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।’ गीता भी कहती है ‘काम्यनां कर्मनां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।’ सांसारिक झगड़ो को बिना त्यागे किसी की मुक्ति नहीं होती। जो गृहस्थाश्रम में बँधे रहते हैं वे यह सिद्ध करते हैं कि वे किसी न किसी प्रकार की कामना के दास बनकर संसार में पँसे हैं। यदि ऐसा न होगा तो फिर संसार में रहेंगे ही क्यों? कोई कामिनी के दास हैं, कोई अर्थ के हैं, कोई मान, यश, विद्या या पाण्डित्य के हैं। इस दासत्व को छोड़कर बाहर निकलने से ही वे मुक्तिके पथ पर चल सकते हैं। लोग कितना ही क्यों न कहें पर मैं भलीभाँति समझ गया हूँ कि जब तक मनुष्य इन सब को त्यागकर संन्यास ग्रहण नहीं करता तब तक किसी भी प्रकार से उसके लिए ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना असम्भव है।
शिष्य – महाराज, क्या संन्यास ग्रहण करने से ही सिद्धिलाभ होता है?
स्वामीजी – सिद्धि प्राप्त होती है या नहीं, यह बाद की बात है। जब तक तुम भीषण संसार की सीमा से बाहर नहीं आते, जब तक वासना के दासत्व को नहीं छोड़ सकते तब तक भक्ति या मुक्ति की प्राप्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती। ब्रह्मज्ञों के लिए ऋद्धि-सिद्धि बड़ी तुच्छ बात है।
शिष्य – महाराज, क्या संन्यास में कुछ कालाकाल या प्रकाराभेद भी है?
स्वामीजी – संन्यासधर्म की साधना में किसी प्रकार कालाकाल नहीं है। श्रुति कहती है, ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।’ जब वैराग्य का उदय हो तभी प्रव्रज्या करना उचित है। योगावाशिष्ठ में भी है –
युवैव धर्मशीलः स्यात् अनित्यं खलु जीवितम्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति॥
अर्थात् ‘जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनो। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा?’ शास्त्रों में चार प्रकार के संन्यास का विधान पाया जाता है। (१) विद्वत् संन्यास (२) विविदिषा संन्यास (३) मर्कट संन्यास और (४) आतुर संन्यास। अचानक यथार्थ वैराग्य के उत्पन्न होते ही संन्यास लेकर चले जाना (यह पूर्व जन्म के संस्कार से ही होता है) इसीको विद्वत् संन्यास कहते हैं। आत्मतत्त्व जानने की प्रबल इच्छा से शास्त्रपाठ या साधनादि द्वारा अपना स्वरूप जानने को किसी ब्रह्मज्ञपुरुष से संन्यास लेकर स्वाध्याय और साधनभजन करने लगना इसको विविदिषा संन्यास कहते हैं। संसार के कष्ट, स्वजन-वियोग अथवा अन्य किसी कारण से भी कोई कोई संन्यास ले लेते हैं, परंतु यह वैराग्य दृढ़ नहीं होता। इसका नाम मर्कट-संन्यास है। जैसे श्रीरामकृष्ण कहा करते थे ‘वैराग्य हुआ – कहीं दूर देश में जाकर फिर कोई नौकरी कर ली, फिर इच्छा होने पर स्त्री को बुला लिया या दूसरा विवाह कर लिया!’ इनके अतिरिक्त चौथे प्रकार का आतुर संन्यास भी होता है, – मान लो किसी की मुमूर्षु अवस्था है, रोगशय्या पर पड़ा है, बचने की कोई आशा नहीं; ऐसे मनुष्य के लिए आतुर संन्यास की विधि है। यदि वह मर जाय तो पवित्र संन्यास व्रत ग्रहण करके मरेगा; दूसरे जन्म में इस पुण्य के कारण अच्छा जन्म प्राप्त होगा और यदि बच जाय तो फिर संसार में न जाकर ब्रह्मज्ञान के लिए संन्यासी बनकर दिन व्यतीत करेगा। स्वामी शिवानन्दजी ने तुम्हारे चाचा को यह आतुर संन्यास दिया था। तुम्हारे चाचा मर गये, परन्तु इस प्रकार से संन्यास लेने के कारण उनको उच्च जन्म मिलेगा। संन्यास के अतिरिक्त आत्मज्ञान लाभ करने का दूसरा उपाय नहीं है।’
शिष्य – महाराज, गृहस्थों के लिए फिर क्या उपाय है?
स्वामीजी – सुकृति से किसी न किसी जन्म में उन्हें वैराग्य अवश्य होगा। वैराग्य के आते ही कार्य बन जाता है अर्थात् जन्ममृत्यु-समस्या के पार पहुँचने में देर नहीं होती, परन्तु सब नियमों के दो-एक व्यतिक्रम भी रहते हैं। गृहस्थधर्म ठीक ठीक पालन करते हुए भी दो-एक पुरुषों को मुक्त होते देखा गया है; ऐसे हमारे यहाँ नागमहाशय हैं।
शिष्य – महाराज, उपनिषदादि ग्रन्थों में भी वैराग्य और संन्यास सम्बन्धी विशद उपदेश नहीं पाया जाता।
स्वामीजी – पागल के समान क्या बकता है? वैराग्य ही तो उपनिषद् का प्राण है। विचारजनित प्रज्ञा को प्राप्त करना ही उपनिषद् ज्ञान का चरम लक्ष्य है। परन्तु मेरा विश्वास यह है कि भगवान बुद्धदेव के समय से ही भारतवर्ष में इस त्यागव्रत का विशेष प्रचार हुआ है और वैराग्य तथा संसारवितृष्णा ही धर्म का चरम लक्ष्य माना गया है। बौद्ध धर्म के इस त्याग तथा वैराग्य को हिन्दू धर्म ने अपने में लय कर लिया है। भगवान बुद्ध के समान त्यागी महापुरुष पृथ्वी पर और कोई नहीं जन्मा।
शिष्य – तो क्या महाराज, बुद्धदेव के जन्म के पहले इस देश में त्याग और वैराग्य कम था और क्या उस समय संन्यासी नहीं होते थे?
स्वामीजी – यह कौन कहता है? संन्यासाश्रम था परन्तु जनसाधारण को विदित नहीं था कि यही जीवन का चरम लक्ष्य है। वैराग्य पर उनकी दृढ़ता नहीं थी, विवेक पर निष्ठा नहीं थी। इसी कारण बुद्धदेव को कितने योगियों और साधुओं के पास जाने पर भी कहीं शान्ति नहीं मिली; तब ‘इहासने शुष्यतु मे शरीरम्’ कहकर आत्मज्ञान लाभ करने को वे स्वयं ही बैठ गये और प्रबुद्ध होकर उठे। भारतवर्ष में संन्यासियों के जो मठ आदि देखते हो, वे सब बौद्ध धर्म के अधिकार में थे। अब हिन्दुओं ने उनको अपने रंग में रंगकर अपना कर लिया है। भगवान बुद्धदेव से ही यथार्थ संन्यासाश्रम का सूत्रपात हुआ है। वे ही संन्यासाश्रम के मृत ढांचे में प्राण का संचार कर गये हैं।
इस पर स्वामीजी के गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानन्दजी ने कहा, “बुद्धदेव से पहले भी भारत में चारों आश्रमों के प्रचलित होने का प्रमाण संहितापुराणादि देते हैं।” उत्तर में स्वामीजी ने कहा, “मन्वादि संहिता, बहुतसे पुराण और महाभारत के भी बहुत से अंश आधुनिक शास्त्र हैं। भगवान बुद्ध इनसे बहुत पहले हुए हैं।”
रामकृष्णानन्द – यदि ऐसा ही होता तो बौद्ध धर्म की समालोचना वेद, उपनिषद, संहिता और पुराणों में अवश्य होती। जब इन ग्रन्थों में बौद्ध धर्म की आलोचना नहीं पायी जाती, तब आप कैसे कहते हैं कि बुद्धदेव इन सभी से पूर्व थे? दो-चार प्राचीन-पुराणादि में बौद्धमत का वर्णन आंशिक रूप में हैं, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दुओं के संहिता और पुराणादि आधुनिक शास्त्र हैं।
स्वामीजी – इतिहास पढ़ो तो देखोगे कि हिन्दू धर्म बुद्धदेव के सब भावों को पचाकर इतना बड़ा हो गया है।
रामकृष्णानन्द – मेरा अनुमान यह है कि बुद्धदेव त्यागवैराग्य को अपने जीवन में ठीक ठीक अनुष्ठान करके हिन्दू धर्म के कुल भावों को केवल सजीव कर गये हैं।
स्वामीजी – परन्तु यह कथन प्रमाणित नहीं हो सकता क्योंकि बुद्धदेव से पहले का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं मिलता। इतिहास का ही प्रमाण मानने से यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि प्राचीन काल के घोर अन्धकार में एकमात्र भगवान बुद्धदेव ने ही ज्ञानालोक से प्रदीप्त होकर अवस्थान किया है।
अब फिर संन्यासधर्म सम्बन्धी प्रसंग होने लगा। स्वामीजी बोले, “संन्यास की उत्पत्ति कहीं से ही क्यों न हो, इस त्यागव्रत के आश्रय से ब्रह्मज्ञ होना ही मनुष्यजीवन का उद्देश्य है। इस संन्यासग्रहण में ही परमपुरुषार्थ है। वैराग्य उत्पन्न होने पर जिनका संसार से अनुराग हट गया है वे ही धन्य हैं।”
शिष्य – महाराज, आजकल लोग कहते हैं कि त्यागी संन्यासियों की संख्या बढ़ जाने से देश की व्यावहारिक उन्नति रुक रही है। साधुओं को गृहस्थों के मुखापेक्षी और निष्कर्मी होकर चारों ओर फिरते देखकर वे लोग कहते हैं, ‘वे (संन्यासीगण) समाज और स्वदेश की उन्नति के लिए किसी प्रकार के सहायक नहीं होते।’
स्वामीजी – मुझे यह तो पहले समझा दो कि लौकिक या व्यावहारिक उन्नति का अर्थ क्या है।
शिष्य – पाश्चात्य देशों में जिस प्रकार विद्या की सहायता से देश में अन्नवस्त्र का प्रबन्ध करते हैं, विज्ञान की सहायता से वाणिज्य, शिल्प, वस्त्रादिक, रेल, टेलीग्राफ (तार) इत्यादि नाना विषयों की उन्नति कर रहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी करना।
स्वामीजी – क्या ये सब बातें मनुष्य में रजोगुण के अभ्युदय हुए बिना ही होती हैं? सारे भारतवर्ष में फिरकर देखा, पर कहीं भी रजोगुण का विकास नहीं पाया, केवल तमोगुण! घोर तमोगुण से सर्वसाधारण लोग भरे हुए हैं। संन्यासियों में ही रजोगुण एवं सतोगुण देखा है। वे ही भारत के मेरुदण्ड हैं। सच्चे संन्यासी ही गृहस्थों के उपदेशक हैं। उन्हींसे उपदेश और ज्ञानालोक प्राप्त कर प्राचीन काल में गृहस्थ लोग जीवनसंग्राम में सफल हुए हैं। संन्यासियों के अनमोल उपदेश के बदले में गृहस्थ उनको अन्नवस्त्र देते रहे हैं। यदि ऐसा आदान-प्रदान न होता, तो इतने दिनों में भारतवासियों का भी अमरीका के आदिवासियों के समान लोप हो जाता। संन्यासियों को मुट्ठी भर अन्न देने के कारण ही गृहस्थ लोग अभी तक उन्नति के मार्ग पर चले जा रहे हैं। संन्यासी लोग कर्महीन नहीं हैं वरन् वे ही कर्म के स्रोत हैं। उनके जीवन या कार्य में ऊँचे आदर्शों को परिणत होते देख और उनसे उच्च भावों को ग्रहण कर गृहस्थ लोग इस संसार के जीवनसंग्राम में समर्थ हुए तथा हो रहे हैं। पवित्र संन्यासियों को देखकर गृहस्थ भी उन पवित्र भावों को अपने जीवन में परिणत करते हैं और ठीक ठीक कर्म करने को तत्पर होते हैं। संन्यासी अपने जीवन में ईश्वर तथा जगत् के कल्याण के निमित्त सर्वत्याग रूप तत्त्व को प्रतिफलित करके गृहस्थों को सब विषयों में उत्साहित करते हैं और इसके बदले में वे उनसे मुट्ठी भर अन्न लेते हैं। फिर उसी अन्न को उपजाने की प्रवृत्ति और शक्ति भी देश के लोगों में सर्वत्यागी संन्यासियों के स्नेहाशीर्वाद से ही बढ़ रही है। बिना विचारे ही लोग संन्याससंस्था की निन्दा करते हैं। अन्यान्य देशों में चाहे जो कुछ क्यों न हो, पर यहाँ तो संन्यासियों के पतवार के कारण ही संसार-सागर में गृहस्थों की नौका नहीं डूबने पाती।
शिष्य – महाराज, लोककल्याण में तत्पर यथार्थ संन्यासी मिलता कहाँ है?
स्वामीजी – यदि हजार वर्ष में भी श्रीगुरुदेव के समान कोई संन्यासी महापुरुष जन्म ले लेते हैं, तो सब कमी पूरी हो जाती है। वे जो उच्च आदर्श भावों को छोड़ जाते हैं, उनके जन्म से सहस्र वर्ष तक लोग उनको ही ग्रहण करते रहेंगे। इस संन्यास पद्धति के इस देश में होने के कारण ही यहाँ उनके समान महापुरुष जन्म ग्रहण करते हैं। दोष सभी आश्रमों में हैं पर किसी में कम और किसी में अधिक। दोष रहने पर भी यह आश्रम अन्य आश्रमों के शीर्षस्थान के अधिकार को प्राप्त हुआ है, इसका कारण क्या है? सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं – जगत् के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। यदि ऐसे संन्यासाश्रम के भी तुम कृतज्ञ न हो, तो तुम्हें धिक्कार, कोटि कोटि धिक्कार है।
इन बातों को कहते ही स्वामीजी का मुखमण्डल प्रदीप्त हो उठा। संन्यास-आश्रम के गौरव-प्रसंग से स्वामीजी मानो मूर्तिमान संन्यास रूप में शिष्य के सम्मुख प्रतिभासित होने लेग। इस आश्रम के गौरव को अपने मन में अनुभव कर मानो अन्तर्मुखी होकर अपने आप ही मधुर स्वर से आवृत्ति करने लगे –
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तः भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः।
अशोकमन्तःकरणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥
फिर कहने लगे, ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ ही संन्यासियों का जन्म होता है। संन्यास ग्रहण करके जो इस ऊँचे लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है उसका तो जीवन ही व्यर्थ है – ‘वृथैव तस्य जीवनम्।’ जगत् में संन्यासी क्यों जन्म लेते हैं? औरों के निमित्त अपना जीवन दान करने को, जीव के आकाशभेदी क्रन्दन को दूर करने को, विधवा के आँसू पोंछने को, पुत्रवियोग से पीड़ित अबलाओं के मन को शान्ति देने को, सर्वसाधारण को जीवनसंग्राम में सक्षम करने को, शास्त्र के उपदेशों को फैलाकर सब का ऐहिक और पारमार्थिक मंगल करने को और ज्ञानालोक से सब के भीतर जो ब्रह्मसिंह सुप्त है, उसे जागृत करने को।”
फिर अपने भाइयों को लक्ष्य करके कहने लगे, “ ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च’ हम लोगों का जन्म हुआ है। बैठे बैठे क्या कर रहे हो? उठो, जाग जाओ, चौकन्ने होकर औरों को चेताओ। अपने नरजन्म को सफल करो, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान् निबोधत।’ ”