स्वामी विवेकानंद के पत्र – कलकत्ते के एक व्यक्ति को लिखित (2 मई, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का कलकत्ते के एक व्यक्ति को लिखा गया पत्र)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागों,
२ मई, १८९५
भाई,
तुम्हारे अनुकम्पापूर्ण सुन्दर पत्र को पढ़कर मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई। हम लोगों के कार्य का तुमने जो सादर अनुमोदन किया है, तदर्थ तुमको असंख्य धन्यवाद। श्रीयुत नाग महाशय एक महान पुरूष हैं। ऐसे महात्मा की कृपा जब तुम पर हुई है, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम महाभाग्यशाली हो। महापुरुषों का कृपालाभ करना ही जीवन के लिए सर्वोच्च सौभाग्य की बात है। तुम उस सौभाग्य के अधिकारी बने हो। मद्भक्तनाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः, उनके एक शिष्य को जब तुमने अपने जीवन के मार्गप्रदर्शक के रूप में पाया है, तो जान लेना कि तुमने उन्हींको पा लिया है।
अब संसार त्यागने का तुमने निश्चय किया है। तुम्हारी इस इच्छा के साथ मेरी सहानुभूति है। स्वार्थ-त्याग से बढ़कर जगत् में और कुछ भी नहीं है। किन्तु तुम्हें यह नहीं भूलना चहिए कि अपने हृदय की प्रबल आकांक्षा का दमन करना उनके कल्याण के लिए, जो तुम्हारे ऊपर निर्भर हैं, भी कम बड़ा बलिदान नहीं है। श्रीरामकृष्ण के उपदेश तथा उनके निष्कलंक जीवन का अनुसरण करो और उसके बाद अपने परिवार के सुख की ओर ध्यान दो। तुम अपने कर्तव्य का पालन करते रहो, शेष प्रभु पर छोड़ दो।
प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद नहीं उत्पन्न करता; चाहे आर्य और म्लेच्छ हो, चाहे ब्राह्मण और चाण्डाल हो, यहाँ तक कि नर और नारी में भी। समग्र विश्व को प्रेम अपने घर जैसा बना लेता है। वास्तविक उन्नति धीरे-धीरे होती है। किन्तु निश्चित रूप से। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझें – ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मन्त्र फूँक दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।
आज्ञा-पालन के गुण का अनुशीलन करो, लेकिन अपने धर्मविश्वास को न खोओ। गुरुजनों के अधीन हुए बिना कभी भी शक्ति केन्द्रीभूत नहीं हो सकती, और बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रीभूत किये बिना कोई महान् कार्य नहीं हो सकता। कलकत्ते का मठ प्रमुख केन्द्र है; सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिए कि केन्द्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित्त होकर कार्य करें।
ईर्ष्या तथा अहंभाव को दूर कर दो – संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द
पु० – श्रीयुत नाग महाशय से मेरे असंख्य साष्टांग प्रणाम कहना।