स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित (20 अप्रैल, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)
अलामेडा, कैलिफोर्निया,
२० अप्रैल, १९००
प्रिय ‘जो’,
तुम्हारा पत्र आज मिला। मैंने एक पत्र तुम्हें कल लिखा था, पर यह सोचकर कि तुम इंग्लैण्ड में होंगी, उसे वही के पते पर भेज दिया था।
मैंने तुम्हारा संदेश श्रीमती बेट्स को पहुँचा दिया है। मुझे अफसोस है कि ए – के साथ यह झगड़ा हुआ। तुम्हारा भेजा हुआ उनका पत्र भी मुझे मिला। उनका इतना कहना सही है कि “स्वामी जी ने मुझे लिखा कि ‘श्री लेगेट को वेदान्त में कोई रूचि नहीं है और अब वे कोई सहायता नहीं करेंगे। आप स्वयं अपने पाँवों पर खड़े हों।” ऐसा उनके यह पूछने पर कि रूपये के लिए मैं क्या करूँ, मैंने तुम्हारी और श्रीमती लेगेट की इच्छानुसार ही लॉस एंजिलिस से उन्हें न्यूयार्क के विषय में लिख दिया था।
ख़ैर, सब कुछ अपने समय पर ही होगा। लेकिन लगता है श्रीमती बुल और तुम्हारे मन में यह बात है कि मुझे कुछ करना चाहिए। पहली बात तो यह है कि कठिनाईयाँ क्या हैं, इस विषय में मैं कुछ जानता ही नहीं। तुम लोगों में से कोई भी मुझे नहीं लिखता कि वे किस लिए हैं। मैं मन की बात तो पढ़नेवाला हूँ नहीं।
तुमने केवल सामान्य ढंग से मुझे लिख दिया था कि ए – सब कुछ अपने हाथ में रखना चाहते हैं। इससे मैं क्या समझ सकता हूँ? क्या कठिनाइयाँ हैं? मतभेद किन चीजों को लेकर है, इस विषय में मैं उतना ही अज्ञान हूँ, जितना इस विषय में कि महाप्रलय की निश्चित तिथि क्या है?
और फिर भी तुम्हारे तथा श्रीमती बुल के पत्रों से काफी खीझ प्रकट होती है!
ये सब मामले कभी कभी हमारे न चाहने के बावजूद भी उलझ जाते हैं। समय पर ये स्वयं ही सुलझ जायँगे।
जैसा कि श्रीमती बुल की इच्छा थी मैंने वसीयतनामा तैयार कराके उसे श्री लेगेट के पास भेज दिया है।
मेरी तबीयत कभी कभी अच्छी हो जाती है, कभी ख़राब। मेरा अन्तःकरण मुझे यह कहने की अनुमति नहीं देता कि श्रीमती मिल्टन से (उपचार) मुझे तनिक भी लाभ नहीं हुआ। वे मेरे प्रति भली रही हैं और मैं उनका आभारी हूँ। उनसे मेरा प्यार कहना। आशा है उनसे दूसरों को भी लाभ होगा।
श्रीमती बुल को यही बात लिखने पर मुझे चार पृष्ठ का उपदेश सुनने को मिला कि मुझे किस प्रकार कृतज्ञ और आभारी होना चाहिए, आदि आदि।
यह सब निश्चय ही ए – के मामले की वजह से है!
स्टर्डी और श्रीमती जॉन्सन मार्गट से परेशान हो गये और मुझ पर पिल पड़े। अब ए – श्रीमती बुल को परेशान कर रहे हैं और इसका फल भी मुझे भोगना पड़ेगा। यही जीवन है!
तुम और श्रीमती लेगेट चाहती थीं कि मैं उसको लिख दूँ कि वह स्वतन्त्र और आत्म निर्भर हो जाय, और यह कि श्री लेगेट उनकी सहायता नहीं करेंगे। मैंने लिख दिया था, और अब क्या कर सकता हूँ?
यदि कोई ऐरा-ग़ैरा तुम्हारी बात नहीं मानता, तो क्या इसके लिए तुम मुझे फाँसी पर चढ़ा दोगी? इस वेदान्त सोसाइटी के बारे में भला मैं क्या जानता हूँ? क्या मैंने इसे चालू किया है? क्या इसमें मेरा कोई हाथ है?
और फिर मामला क्या है, इस बारे में मुझे कोई कुछ लिखने की तकलीफ भी तो गवारा नहीं करता!
वाकई यह संसार एक मजाक है।
मुझे ख़ुशी है कि श्रीमती लेगेट का स्वास्थ्य तेजी से सुधर रहा है। प्रत्येक क्षण मैं उनके पूर्ण स्वास्थ्य की प्रार्थना किया करता हूँ। मैं सोमवार को शिकागो के लिए रवाना हो रहा हूँ। एक कृपालु महिला ने न्यूयार्क तक का एक पास मुझे दे दिया है, जिसे तीन महीने के भीतर इस्तेमाल किया जा सकता है। मेरी चिन्ता जगन्माता करेंगी। आजीवन मेरी रक्षा करने के बाद अब वे मुझसे विमुख नहीं हो जायँगी।
तुम्हारा चिरकृतज्ञ,
विवेकानन्द