स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (2 मार्च, 1898)

(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)

बेलूड़ मठ,
जिला हावड़ा,
बंगाल, भारत
२ मार्च, १८९८

प्रिय मेरी,

मैंने ‘मदर चर्च’ को जो पत्र लिखा है, आशा है, उससे तुमको मेरा समाचार मिल गया होगा। तुम सब, तुम्हारा सारा परिवार, मेरे प्रति इतना ममतालु है। लगता है, जैसा कि हम हिन्दू कहा करते हैं, निश्चय ही पूर्व जन्म में मैं तुम लोगों से सम्बन्धित रहा हूँगा। करोड़पति आविर्भूत नहीं होते, मुझे केवल इसी बात का दुःख है और उन लोगों की मुझे तत्काल ही बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि निर्माण एवं संगठन के कार्य में मैं दिन-प्रतिदिन जर्जर, वृद्ध एवं चूर होता जा रहा हूँ। यद्यपि हैरियट में लाखों अच्छाइयाँ हैं, फिर भी मुझे विश्वास है कि नकद गुण के कुछ लाख ही इसको और भी प्रकाशमान बना देते; अतः तुम भी वही भूल न करना एक तरुण युगल के पास पति-पत्नी बनने के लिए और सब कुछ था, महज लड़की का पिता इस बात पर अड़ा था कि वह अपनी लड़की को करोड़पति के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं देगा। यह तरुण युगल हताश हो गया, लेकिन तभी एक चतुर विवाह तय कराने वाला उनके रक्षा के लिए उपस्थित हो गया। उसने वर से पूछा कि क्या वह १० लाख रुपये मिलने पर अपनी नाक देने के लिए तैयार है! उसने कहा – नहीं। तब शादी तय कराने वाले ने लड़की के पिता के सामने यह कसम खायी कि वर के पास करोड़ों का सामान है, और शादी तय हो गयी। इस तरह के करोड़ों को तुम न लेना। हाँ, तो तुम करोड़पति नहीं पा सकीं, और इसलिए मैं रुपये नहीं पा सका; अतः मुझे बड़ी चिन्ता करनी पड़ी, और व्यर्थ ही घोर परिश्रम करना पड़ा। इसीलिए मैं बीमार पड़ गया। सच्चे कारण को खोज निकालने के लिए मेरे जैसे तेज दिमाग वालों की जरूरत होती है, मैं अपने पर मुग्ध हूँ।

हाँ, जब मैं लंदन से लौटा तो यहाँ दक्षिण भारत में, जब लोग आयोजनों और भोजों में व्यस्त थे, और जितना सम्भव था, उतना काम मुझसे निचोड़ रहे थे, तब एक पुरानी पैत्रिक बीमारी उभरी। उसकी प्रकृति तो सदा से रही थी, किन्तु मानसिक कार्य की अति ने उसे ‘आत्माभिव्यक्ति’ का अवसर दे दिया। शक्ति का पूर्ण ह्रास एवं आत्यन्तिक अवसाद उसका परिणाम हुआ, और अपेक्षाकृत ठंडे उत्तर भारत के लिए मद्रास से तत्काल प्रस्थान करना पड़ा। एक दिन के विलम्ब का अर्थ था, उस भीषण गर्मी में दूसरे स्टीमर के लिए एक सप्ताह प्रतीक्षा करना। हाँ, तो मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि दूसरे दिन श्री बरोज मद्रास पहुँचे एवं अपेक्षानुसार मुझे वहाँ न पाकर बड़े खिन्न हुए। मैंने वहाँ उनके स्वागत और आवास का प्रबन्ध कर दिया था। उन बेचारों को क्या पता कि उस समय मैं यमलोक के द्वार पर था।

पिछली गरमी भर मैं हिमालय पर भ्रमण करता रहा। मैंने अनुभव किया कि ठंडे जलवायु में तो मैं स्वस्थ रहता हूँ; लेकिन मैदानी इलाकों की गर्मी में ज्यों ही आता हूँ, पुनः बीमार पड़ जाता हूँ। आज से कलकत्ते में गर्मी तीव्र होती जा रही है और शीघ्र ही मुझे भागना पड़ेगा। चूँकि

श्रीमती बुल एवं कुमारी मैक्लिऑड इस समय यहाँ (भारत में) हैं, अमेरिका ठंडा पड़ गया है। संस्था के लिए कलकत्ते के नजदीक गंगा तट पर मैंने थोड़ी सी जमीन खरीद ली है। उसमें एक छोटा सा मकान है, जिसमें इस समय वे लोग रह रहे हैं; नजदीक ही वह मकान है जिसमें इस समय मठ है; और हम लोग रहते हैं।

अतः मैं उनसे रोज ही मिल लेता हूँ और वे भारत में बहुत ही आनन्द प्राप्त कर रही है। एक महीने के बाद वे काश्मीर का भ्रमण करना चाहती हैं, और यदि उनकी इच्छा हुई तो पथ-प्रदर्शक, मित्र एवं शायद एक दार्शनिक के रूप में उनके साथ जा सकता हूँ। उसके पश्चात् हम सब लोग पर-चर्चा एवं स्वतन्त्रता के देश के लिए समुद्र-मार्ग से प्रस्थान करेंगे।

मेरे कारण तुम्हें उद्विग्न होने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि यदि बुरा ही होना है तो मुझे उड़ा ले जाने में बीमारी को दो-तीन साल लग जाएँगे। अन्यथा वह एक अनपकारी साथी के रूप में बनी रहेगी। मैं संतुष्ट हूँ। कार्य के सुव्यवस्थित करने के लिए ही मैं कठिन परिश्रम कर रहा हूँ जिससे रंगमंच से मेरे विलुप्त होने के बाद भी मशीन चलती रहे। मृत्यु पर तो मैं बहुत पहले ही – जब मैंने जीवन का उत्सर्ग कर दिया था, तभी – विजय प्राप्त कर चुका हूँ। मेरी चिन्ता का विषय केवल काम है और उसे भी प्रभु को समर्पित कर दिया है, उनको ही सब कुछ ज्ञात है।

सतत भगवत्पदाश्रित,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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