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स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती बेटी स्टारगीज को लिखित (जुलाई, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती बेटी स्टारगीज को लिखा गया पत्र)

द्वारा कुमारी डचर,
सहस्रद्वीपोद्यान,
जुलाई, १८९५

माँ,

मेरा विश्वास है कि आप अब न्यूयार्क पहुँच गयी हैं और वहाँ अभी बहुत गर्मी नहीं है। यहाँ हमारा कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। मेरी लुई कल आ पहुँची है। अब हम लोग सब मिलकर सात हुए।

दुनिया भर की नींद मेरे ऊपर सवार हो गयी है। मैं दोपहर में कम से कम दो घंटे और सारी रात लकड़ी के कुंदे की तरह सोता रहता हूँ। मैं समझता हूँ, यह न्यूयार्क की अनिद्रा की प्रतिक्रिया है। थोड़ी-बहुत लिखाई-पढ़ाई करता हूँ और रोज सुबह जलपान करने के बाद क्लास लेता हूँ। भोजन एकदम निरामिष-नियम के अनुसार बनता है और मैं ख़ूब उपवास कर रहा हूँ।

मैं यहाँ से जाने के पहले कई सेर चर्बीं घटाने को दृढ़संकल्प हूँ। यह मेथाडिस्टों का स्थान है और वे अगस्त में अपनी ‘शिविर-गोष्ठी’ करेंगे। यह बहुत ही रम्य प्रदेश है, लेकिन मुझे भय है कि मौसम के दौरान यहाँ बहुत भीड़ हो जायगी।

मेरा विश्वास है, कुमारी जो जो का मक्खी-दंश अब ठीक हो गया होगा।…माँ कहाँ हैं? उन्हें पत्र लिखें, तो दया करके मेरा अभिवादन भी दे दें।

पर्सी के आनन्दपूर्ण दिनों की याद मुझे सदा आयेगी और श्री लेगेट की उस खातिरदारी के लिए सदा धन्यवाद। मैं उनके साथ यूरोप जा सकता हूँ। उनसे भेंट हो, तो मेरा आंतरिक प्यार और कृतज्ञता दे दें। उन्हीं जैसे सज्जनों के प्यार से यह संसार सदा सुन्दर हुआ है। क्या आप अपनी मित्र श्रीमती डोरा (एक लंबा जर्मन नाम) के साथ हैं? वे बहुत ही भली और सही अर्थों में महात्मा हैं। कृपया उन्हे मेरा प्यार और अभिवादन दें।

मैं फिलहाल – निद्रित – अलस और आनन्दपूर्ण अवस्था में हूँ और यह बेजा नहीं लगता मुझे। मेरी लूई न्यूयार्क से अपना पालतू कछुआ ले आयी थीं। यहाँ पहुँचने के बाद कच्छप ने अपने को समस्त प्राकृतिक परिवेश में घिरा हुआ पाया। अनवरत हाथ-पाँव मारकर – रेंगता-लुढ़कता मेरी लुई के प्यार और दुलार को बहुत पीछे छोड़कर – चला गया। पहले तो वे बहुत दुःखित हुई। किन्तु, हम लोगों ने मिलकर मुक्ति का ऐसा जोरदार प्रचार किया कि वे तुरत सँभल गयीं।

भगवान् आपका सर्वदा मंगल करे – यही आपके इस स्नेहाधीन की प्रार्थना है।

विवेकानन्द

पुनश्च – जो जो ने भोजपत्र की पोथी नहीं भेजी। श्रीमती बुल को मैंने एक प्रति दी थी – बहुत प्रसन्न हुई थीं। भारत से बहुत से सुन्दर पत्र आये हैं।वहाँ सब ठीक-ठाक हैं। उस ओर के बच्चों को प्यार – सचमुच के ‘वहाँ के भोले-भाले’।

वि.

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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